मोबाइल युग में रियल और रील्स का फर्क धुंधला होता जा रहा है. लोगों का कीमती वक्त अब रील्स बनाने या फिर रील्स देखने में जा रहा है.
रील्स देखने के फेर में लोगों की नींद कम हो गई है. लोग अकेले में ज्यादा वक्त गुजारने लगे हैं. इतना ही नहीं लोगों के बीच होने वाली हंसी ठिठोली कम हो गई है.
कुछ सालों के भीतर अस्पतालों में ऐसे मरीजों की बाढ़ आ गई है जो कम नींद के मारे हैं.
इतना ही नहीं बच्चों के हाथ से मोबाइल छीनते ही वे अजीब सा व्यवहार करने लगते हैं. सबके पीछे मनोरंजन का वो मनोविज्ञान है जिसे आम भाषा में रील्स कहते हैं.
मनोचिकित्सक भी रील्स के इस रोग से हैरान है. उनका भी मानना है कि रील्स देखने की ये बीमारी नहीं थमी तो मन की बीमारी महामारी बन जाएगी.
रील्स से जहां आपकी क्रिएटिविटी खत्म हो रही है तो वहीं आपकी मेंटल हेल्थ पर भी इसका असर पड़ रहा है.
रील्स की दुनिया इतनी भयावह होती जा रही है कि उसने अब इंसानों के विचारों और भावनाओं पर भी असर डालना शुरू कर दिया है.
इसमें कोई दो राय नहीं कि मोबाइल हमारी पीढ़ी का सबसे नायाब अविष्कार है. लेकिन मोबाइल पर इन दिनों वीडियोज का जो शार्टकट बाजार सजा है.
वो हमारी अटैंशन से हमारी जिंदगी के कीमती लम्हे चुरा रहा है. रील्स ने हमसे जिंदगी की रियलिटी देखने की कूबत छीन ली है.
रील्स ऐसा रोग बन गया है जिसका इलाज अगर आज नहीं हआ तो इसका परिणाम हमारी आने वाली पीढ़ियों को भुगतना होगा.