Success Story: इंफोसिस में ऑफिस बॉय की नौकरी करने वाला लड़का कैसे बना करोड़ों की कंपनी का मालिक, बिल्कुल फिल्मी है इनकी सक्सेस स्टोरी

डिजाइन टैंपलेट की सफलता ने उन्हें टीवी शो शार्क टैंक तक पहुंचा दिया. वहां उन्होंने अपनी कंपनी का 10% हिस्सा 1 करोड़ में बेचा. यह डील उन्हें बोट (boAt) के फाउंडर और CMO अमन गुप्ता से मिली.

दादासाहेब भगत
gnttv.com
  • नई दिल्ली ,
  • 16 अक्टूबर 2025,
  • अपडेटेड 10:39 AM IST

महाराष्ट्र के बीड जिले के छोटे से गांव में जन्मे दादासाहेब भगत की कहानी किसी फिल्मी स्टोरी से कम नहीं है. यह वही इलाका है जहां हर साल सूखे जैसी स्थिति रहती है और खेती करना किसी जंग जीतने जैसा होता है. ऐसे माहौल में पले-बढ़े दादासाहेब के परिवार में पढ़ाई को खास अहमियत नहीं दी जाती थी. किसी तरह उन्होंने दसवीं तक की पढ़ाई पूरी की और आगे चलकर आईटीआई (ITI) का छोटा-सा कोर्स किया. 

4,000 से 9,000 तक की नौकरी की
बेहतर भविष्य की तलाश में दादासाहेब पुणे पहुंचे. शुरुआत में उन्हें एक कंपनी में 4,000 महीने की नौकरी मिली. लेकिन जल्द ही उन्हें पता चला कि इंफोसिस में ऑफिस बॉय की पोस्ट खाली है, जहां 9,000 मिलेंगे. उन्होंने बिना देर किए वह नौकरी पकड़ ली.

इंफोसिस में उनका काम था ऑफिस की सफाई, सामान लाना और गेस्ट हाउस के जरूरी काम निपटाना. दादासाहेब जब आरामदायक कुर्सियों पर बैठे लोगों को कंप्यूटर पर काम करते देखते तो उन्हें लगता मैं ऐसा काम क्यों नहीं कर सकता. उन्होंने जब वहां काम करने वाले लोगों से पूछा तो जवाब मिला, “ऐसे काम के लिए डिग्री चाहिए.” लेकिन किसी ने बताया कि ग्राफिक डिजाइन या एनीमेशन जैसे सेक्टर में डिग्री से ज्यादा टैलेंट मायने रखता है.

 

यही बात उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट साबित हुई. उन्हें अपने बचपन के दिन याद आए. जब वह बोर्डिंग स्कूल में रहते थे और मंदिर में काम करने वाले एक पेंटर को देखा करते थे. उस पेंटर की ब्रश की हर रेखा उन्हें मोह लेती थी. वह बचपन का शौक, जो वक्त की धूल में दब गया था, अब फिर से चमक उठा.

दिन में सफाई, रात में डिजाइन की पढ़ाई
दादासाहेब ने ठान लिया कि अब कुछ बदलना है. दिन में वह इंफोसिस में ऑफिस बॉय का काम करते और रात में ग्राफिक डिजाइन सीखते. धीरे-धीरे उन्होंने सॉफ्टवेयर, डिजाइनिंग टूल और डिजिटल आर्ट सीख ली. सिर्फ एक साल में उन्होंने खुद को बदल लिया. झाड़ू पकड़ने वाले हाथ अब माउस पकड़ रहे थे, और साफ-सफाई करने वाला शख्स अब स्क्रीन पर डिजाइन बना रहा था.

अपनी राह खुद बनाने की ठानी
डिग्री न होने की वजह से बड़ी कंपनियों में नौकरी पाना मुश्किल था, लेकिन दादासाहेब ने हार नहीं मानी. उन्होंने फ्रीलांसिंग शुरू की. छोटे-छोटे डिजाइन प्रोजेक्ट लेने लगे. बाद में उन्होंने खुद की एक छोटी डिजाइन कंपनी शुरू की. लेकिन सफर आसान नहीं था. पैसों की कमी, सोर्स की कमी और समाज के तानों ने कई बार उन्हें तोड़ने की कोशिश की. फिर आया कोरोना का दौर. लॉकडाउन ने उनकी कंपनी बंद करा दी. ऑफिस बंद करना पड़ा और वे वापस अपने गांव लौट गए.

गांव की पहाड़ी पर बनाया ऑफिस
लेकिन कहते हैं न जो लोग हार मान लेते हैं, वे इतिहास नहीं बनाते. गांव लौटने के बाद दादासाहेब ने हार नहीं मानी, बल्कि नए सिरे से सोचना शुरू किया. गांव में खर्च कम था, इसलिए उन्होंने पूरी एनर्जी अपने प्रोडक्ट आइडिया पर लगा दी. हालांकि मुश्किलें यहां भी थीं. बिजली बार-बार जाती थी, इंटरनेट का नेटवर्क कमजोर था. मगर उन्होंने समाधान निकाल लिया. गांव की एक पहाड़ी पर उन्होंने अस्थायी ऑफिस बना लिया.

यहीं से शुरू हुआ ‘Design Template’. एक ऐसा प्लेटफॉर्म जो भारत के डिजाइनर्स और छोटे कारोबारियों को तैयार टेम्पलेट्स और डिजाइन टूल्स देता है.

 

गांव से उठकर देशभर में छा गया नाम
धीरे-धीरे Design Template ने पहचान बनानी शुरू कर दी. दादासाहेब न केवल खुद आगे बढ़े, बल्कि गांव के युवाओं को भी ग्राफिक डिजाइन की ट्रेनिंग देने लगे. उन्होंने सिखाया कि अगर चाहत सच्ची हो, तो डिजिटल स्किल गांव में भी सीखी जा सकती है. उनकी इस कोशिश की चर्चा मीडिया में होने लगी. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें मेक इन इंडिया की मिसाल बताया.

शार्क टैंक में पहुंचकर रोशन किया नाम
डिजाइन टैंपलेट की सफलता ने उन्हें टीवी शो शार्क टैंक तक पहुंचा दिया. वहां उन्होंने अपनी कंपनी का 10% हिस्सा 1 करोड़ में बेचा. यह डील उन्हें बोट (boAt) के फाउंडर और CMO अमन गुप्ता से मिली.

अब फोकस है ‘Made in India Canva’ बनाना
आज दादासाहेब भगत की कंपनी देशभर के डिजाइनर्स के बीच चर्चा में है. उनका विजन साफ है. भारत को डिजिटल डिजाइन में आत्मनिर्भर बनाना. वे चाहते हैं कि भारत में भी ऐसा प्लेटफॉर्म बने जो Canva जैसी इंटरनेशनल कंपनियों को टक्कर दे सके, और भारतीय यूजर्स को सस्ती, भारतीय भाषा में डिजाइनिंग की सुविधा दे.

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