भाषा की दृष्टि से सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, मिथिला एक माना जाता है, जहां मैथिली ही बोली जाती है. लेकिन सियासी दृष्टि से ये कोसी का इलाका माना जाता है. 2008 में आई कोसी की बाढ़ ने यहां भयंकर तबाही मचाई थी, तब सुपौल, सहरसा, मधेपुरा जैसे जिलों ने भयंकर तबाही झेली थी. इस कोसी की बाढ़ के बाद नीतीश कुमार क्विंटलिया बाबा के नाम से कोसी इलाके में मशहूर हुए, जब उन्होंने घर-घर बोरी में भरकर अनाज भिजवाना शुरू किया.
20 सालों से एनडीए का गढ़-
आज भी नीतीश कुमार इस इलाके में अति पिछड़ी जातियों और महिलाओं की पहली पसंद हैं. लालू यादव के दौर में एक नारा चलता था रोम पोप का, मधेपुरा गोप का यानि मधेपुरा यादवों का. लेकिन इसी मधेपुरा में कभी लालू यादव को लोकसभा में हार का मुँह भी देखना पड़ा. पिछले 20 सालों से मधेपुरा समेत पूरे कोसी को NDA ने अपने गढ़ में तब्दील कर दिया था.
कोसी नदी की अभिशप्तता फणीश्वर नाथ रेणु ने अपनी रचनाओं में बयां की है. साठ के दशक में अपनी रचना "परती परीकथा" में फणीश्वरनाथ रेणु ने लिखा है कि अररिया, पूर्णिया के इलाकों में जब कभी कोसी नदी बहा करती थी तो उसने कैसे इस पूरे कोसी इलाके को बलुई ज़मीन में तब्दील कर दिया. हर साल आने वाली बाढ़ ने पूरे इलाके को तबाह कर दिया. लेकिन इसी बलुई जमीन में कभी समाजवाद की फसल लहराई तो अब नीतीश का भाजपा के साथ वाला समाजवाद आ गया और बीजेपी के अंत्योदय का असर भी रहा.
कोसी इलाके पर किसका कब्जा?
राजनीतिक दृष्टि से कोसी में तीन जिले सहरसा, सुपौल और मधेपुरा आते हैं. सहरसा की चार में से तीन सीटों पर एनडीए जीती है. सुपौल की सभी पांच सीटें एनडीए के खाते में है और मधेपुरा की चार में से दो सीट एनडीए और दो सीटों पर आरजेडी काबिज़ है. ऐसे में कोसी का यह इलाका एनडीए का गढ़ बना हुआ है. पिछले चुनाव में अगर एनडीए की सरकार वापस आई तो उसने बड़ा योगदान मिथिलांचल, सीमांचल और कोसी क्षेत्र का रहा. जिसने बीजेपी को एकतरफा जीत दी थी.
एनडीए का गढ़ तोड़ पाएगा महागठबंधन?
इस बार भी एनडीए के गढ़ टूटने के आसार कम है. हालांकि सहरसा में इस बार बीजेपी को कड़ी टक्कर निवर्तमान विधायक आलोक रंजन को आईपी गुप्ता से मिल रही है, जो की आईआईपी नई पार्टी से मैदान में, अति पिछड़ी जति से आते हैं और यहां भाजपा के वोट बैंक में अच्छी सेंध आईपी गुप्ता लगा रहे हैं. यही नहीं, मुकेश सहनी के भी महागठबंधन में आने और उपमुख्यमंत्री का चेहरा घोषित होने से इस इलाके के मल्लाह बिरादरी में भी सेंध लगेगी. ऐसे में बीजेपी के लिए यह सीट कांटे के मुकाबले में तब्दील होने वाली है.
सहरसा के महिषि में भी आरजेडी से जदयू को कड़ी टक्कर मिल रही है. पिछले चुनाव में गुंजेश्वर शाह महज कुछ सौ वोटो से बाजी मार गए थे, लेकिन उनके सामने बीडीओ की नौकरी छोड़कर गौतम कृष्णा फिर चुनाव में हैं. लाल कुर्ता और लाल हवाई चप्पल में वह चुनाव प्रचार कर रहे हैं. हर किसी का पांव छूकर वोट मांगते हैं. ऐसे में यह सीट भी जदयू के लिए मुश्किल में फंसी है. ऐसे में माना जा रहा है कि इस बार सहरसा के चार में से तीन सीटों पर एनडीए कड़े मुकाबले में है. लेकिन एनडीए के लिए इस बार मधेपुरा का चुनाव मुफीद हो सकता है. मधेपुरा शहर से राजद के उम्मीदवार चंद्रशेखर के खिलाफ उनकी ही पार्टी के कई मजबूत दावेदार मैदान में उतर गए हैं और जेडीयू ने वहां से एक वैश्य उम्मीदवार उतारा है. माना जा रहा है कि मधेपुरा की यह सीट इस बार राजद के लिए मुश्किल भरी हो सकती है.
वही सुपौल की सभी पांच सीटों पर एनडीए का कब्जा है और वहां एनडीए की स्थिति मजबूत दिखाई देती है.
सहरसा में एनडीए के लिए मुश्किल?
सहरसा में बेशक जातीय समीकरण एनडीए के थोड़े गड़बड़ा रहे हैं. लेकिन महिलाओं में नीतीश और मोदी का असर जबरदस्त है और बदलाव के मुद्दे के बीच भी अगर कोई सबसे बड़ा एनडीए का खेवनहार है तो वह महिला वोटर यानि नारी शक्ति है, जो जातीय समीकरण से हटकर नीतीश और मोदी के नाम पर आज भी मजबूती से खड़ी हैं.
दरअसल इस क्षेत्र के निर्विवाद सबसे बड़े नेता नीतीश कुमार हैं. साल 2015 में जब नीतीश और लालू मिले, तब बीजेपी यहां से साफ हो गई थी. लेकिन 2020 के चुनाव में इसी क्षेत्र ने एनडीए को बचा लिया और वापस सरकार में ला दिया. ऐसे में एक बार फिर नज़रें कोसी की सियासत पर टिकी हैं. क्या इस बार नीतीश कुमार और मोदी की बातों पर जनता मोहर लगाएगी या तेजस्वी और राहुल के मुद्दे हावी रहेंगे?
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