11 नवंबर को बिहार में दूसरे चरण का मतदान होना है दूसरे चरण में सबकी नजरे एक बार फिर सीमांचल पर टिकी होंगी. सीमांचल के पांच जिलों में मुस्लिम आबादी और इनके वोटो के समीकरण के जरिए ही बिहार में सट्टा का समीकरण तय होगा यह भी माना जा रहा है. 2020 के विधानसभा चुनाव में भी सीमांचल ने सत्ता का रास्ता तय करने में भूमिका निभाई थी. सभी जानते हैं कि महागठबंधन अगर 2020 में सीमांचल के इलाके के अंदर बढ़िया प्रदर्शन कर लेता तो तेजस्वी मुख्यमंत्री बन सकते थे लेकिन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम ने सीमांचल में जीत दर्ज कर तेजस्वी के मंसूबों पर पानी फेर दिया. सीमांचल में धार्मिक स्तर पर वोटो के ध्रुवीकरण के साथ-साथ मुस्लिम आबादी में भी लोकल और बाहरी का मुद्दा एक बार फिर गरम रहने की उम्मीद है. हम बात कर रहे हैं सीमांचल के इलाके में पाए जाने वाली दो प्रमुख मुस्लिम बिरादरियों की. इसमें पश्चिम बंगाल से आकर सीमांचल में बसे शेरशाहवादी भी शामिल हैं और साथ ही साथ स्थानीय मुस्लिम के तौर पर पहचान रखने वाले सुरजापुरी भी.
सीमांचल के पांच जिलों में मुस्लिम आबादी ज्यादा
2020 के पहले भले ही शेरशाहवादी और सुरजापुरी सीमांचल में कोई मुद्दा ना रहा हो लेकिन बीते चुनाव से यह मुद्दा सीमांचल के अंदर मुस्लिम वोटो में बिखराव की कहानी बता रहा है. सीमांचल के पांच जिले किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया, अररिया और सुपौल में मुस्लिम आबादी ज्यादा है. सीमांचल के स्थानीय मुस्लिम जो खुद को देशी कहते हैं, उनमें मुख्य तौर पर सुरजापुरी और कुल्हैया मुस्लिम शामिल हैं. आबादी के लिहाज से सीमांचल में सुरजापुरी समुदाय सबसे बड़ा है. किशनगंज जिले की सभी चार विधानसभा सीटों समेत पूर्णिया की अमौर और बायसी के साथ–साथ कटिहार की बलरामपुर सीट पर सुरजापुरी वोटर्स की संख्या निर्णायक मानी जाती है. इसी तरह अररिया की जोकीहाट और अररिया सदर सीट पर कुल्हैया मुसलमानों का प्रभाव मिलता है. साल 2020 के चुनाव में सीमांचल से कुल 11 मुस्लिम विधायक चुनाव जीते, इनमें 6 सुरजापुरी थे. इसी से समझा जा सकता है कि इस पूरे सीमांचल में सुरजापुरी मुसलमान का प्रभाव किस तरह का है.
कौन हैं शेरशाहवादी मुसलमान? बंगाल से आई एक खास पहचान
सीमांचल में लोकल कहे जाने वाले सुरजापुरी मुसलमानों की आबादी लगभग 24 लाख है. कई सीटों पर सुरजापुरी ही हार और जीत तय करते हैं. इनके मुकाबले बिहार के सीमांचल में शेरशाहवादी मुसलमानो की आबादी लगभग 14 लाख है. अब सवाल उठता है कि आखिर सीमांचल के शेरशाहवादी मुस्लिम कौन हैं? सीमांचल के इलाके में इनकी पहचान बड़ी आसानी से की जा सकती है. उर्दू और बंगाली बोली को मिक्स कर बोलनेवालों की पहचान आमतौर पर शेरशाहवादी मुस्लिम के तौर पर होती है. शेरशाहवादी मुसलमान अति पिछड़ा वर्ग में आते हैं. शेरशाहवादी आपस में ठेठ बंगाली में बातचीत करते हैं. जानकार बताते हैं कि शेरशाहवादी के वंशज शेरशाह सूरी की सेना में सैनिक के तौर पर काम करते थे. शेरशाहवादी मुस्लिमों की परंपराएं भी दूसरी मुस्लिम जातियों से काफी अलग हैं. सीमांचल में इनके पूर्वज पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद और मालदा से आए बताए जाते हैं. सीमांचल में घुसपैठियों एक बड़ा मुद्दा रहा है जिसे शेरशाहवादियों से जोड़ा जाता रहा है.
सीमांचल के इलाके में शेरशावादियों के मुकाबले सुरजापुरी मुसलमानों की स्थिति आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक तौर पर कमजोर है. सुरजापुरी समाज के पिछड़ेपन को मुद्दा बनाकर ओवैसी की पार्टी AIMIM ने सीमांचल में पिछले चुनाव के अन्दर चौंकाने वाले नतीजे दिए थे. इस बार भी ओवैसी इसी रास्ते पर नजर आए हैं. आरजेडी और कांग्रेस की नजर शेरशाहवादी मुसलमानो पर रही है. लेकिन मौजूदा चुनाव में शेरशाहवादी वोट बैंक को साधने की तैयारी प्रशांत किशोर ने भी कर रखी है. जन सुराज ने शेरशाहवादी मुस्लिम वर्ग से आने वाले उम्मीदवार को चुनाव मैदान में उतारा है. इसकी एक खास वजह भी है शेरशाहवादी समाज को ज्यादा लिबरल माना जाता है. वह मुद्दों पर आधारित राजनीतिक फैसले लिए जाने के लिए जाने जाते हैं.
ओवैसी, प्रशांत किशोर और महागठबंधन में जंग
सीमांचल की जमीन पर ओवैसी जहां लोकल गरीब मुसलमान को अपने साथ जोड़कर चुनावी समीकरण साधने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ प्रशांत किशोर ने मुस्लिम और हिंदू वोटरों को विकास के नाम पर जोड़ने और नए प्रयोग के साथ नतीजे देने की रणनीति बनाई है. ओवैसी की कोशिश जहां मुस्लिम को एक वह वोट बैंक से ऊपर निर्णायक ताकत बनाने की है, वहीं प्रशांत किशोर 40 फ़ीसदी हिंदू के साथ 20 फ़ीसदी मुस्लिम वोट बैंक को जोड़कर नया विकल्प देने की कोशिश कर रहे हैं. सुरजापुरी मुस्लिमों के पास संख्याबल है तो वहीं शेरशाहवादी मुसलमानों के बार में माना जाता है कि वे सूरजपुरियों के मुकाबले कम आबादी होने के बावजूद सामाजिक तौर पर दूसरे वर्गों को भी प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. शेरशाहवादी मुसलमान दलित आबादी के अलावा सवर्ण तबके से आने वाले ब्राह्मण वोटर्स से भी जुड़ाव रखते हैं. इसे इस तरह समझा जा सकता है कि स्थानीय निकाय या पंचायत चुनाव में अगर शेरशाहवादी और सुरजापुरी मुस्लिम बिरादरी से दो उम्मीदवार मैदान में हों तो ब्राह्मण वर्ग शेरशाहवादी उम्मीदवार का चयन करता है. कुल मिलाकर कहे तो दो अलग-अलग मुस्लिम जमातों ने सीमांचल के अंदर समीकरण को उलझा दिया है. एनडीए के लिए यह बिखराव शुभ संकेत हो सकता है, वहीं आरजेडी और कांग्रेस से के लिए परेशानी का सबब बन सकता है. ओवैसी को लेकर महागठबंधन के नेताओं ने भले ही लाख बयानबाजी की हो लेकिन पतंग का फैक्टर अभी सीमांचल में कम होता नजर नहीं आ रहा. प्रशांत किशोर भी नए समीकरण रचकर सबको चौंकाना चाहते हैं.
2020 के चुनाव में एनडीए ने सीमांचल की 24 में से 12 सीटें जीती थीं जबकि महागठबंधन ने 7 सीटों पर कब्जा जमाया यह. ओवैसी की AIMIM ने 5 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया था. मौजूदा चुनाव में ओवैसी और प्रशांत किशोर दोनों ही विपक्ष के पारंपरिक वोट बैंक को चुनौती दे रहे हैं. इन चार कोणों ने सीमांचल की लड़ाई को दिलचस्प बना दिया है. 11 नवंबर की वोटिंग में समीकरण ईवीएम के अंदर कैद होंगे और फिर नतीजे बताएंगे कि किसने सीमांचल को साध लिया.
-शशिभूषण की रिपोर्ट