बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की रणभेरी बज चुकी है और महागठबंधन, जिसमें राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस, वीआईपी, और वामपंथी दल शामिल हैं, एकजुट होकर चुनावी मैदान में है. हालांकि, महागठबंधन की राह में सबसे बड़ी चुनौती उसके प्रमुख सहयोगी दल कांग्रेस का लगातार कमजोर प्रदर्शन है, जिसे गठबंधन में एक 'कमजोर कड़ी' के रूप में देखा जा रहा है. कांग्रेस की यह कमजोरी राजद नेता और मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव के लिए चुनावी समीकरणों को काफी मुश्किल बना सकती है. बिहार चुनाव दो चरणों में 6 और 11 नवंबर को होने हैं, और परिणाम 14 नवंबर को घोषित किए जाएंगे. सियासी नजरिए से देखें, तो महागठबंधन में कांग्रेस को कमजोर कड़ी मानने का एक और भी कारण है. कांग्रेस का पिछला प्रदर्शन उस हिसाब से नहीं रहा, जैसा महागठबंधन के मुख्य दल आरजेडी का रहा.
कांग्रेस का सबसे खराब स्ट्राइक रेट-
पिछले प्रदर्शन में कांग्रेस का सबसे खराब स्ट्राइक रेट रहा. 2020 बिहार विधानसभा चुनाव को देखें, तो इस चुनाव में कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन वह केवल 19 सीटें ही जीत पाई. 27% के बेहद कम स्ट्राइक रेट के साथ, कांग्रेस का प्रदर्शन महागठबंधन के अन्य घटक दलों की तुलना में सबसे खराब रहा. महागठबंधन में सबसे अधिक सीटें लेकर भी कमज़ोर परिणाम देना तेजस्वी और लालू यादव के लिए हमेशा तनाव का विषय रहा है. राजद खेमे को आशंका है कि पिछली बार की तरह, इस बार भी कांग्रेस को दी गई सीटें, जो संभावित रूप से जीती जा सकती थीं, हार में बदल सकती हैं.
NDA के कब्जे वाले 56 सीटों पर कांग्रेस के उम्मीवार-
कांग्रेस ने इस बार कहने को 61 उम्मीदवार मैदान में उतारा है. उनमें से 56 सीटें ऐसी हैं, जहां कांग्रेस का सीधा मुकाबला बीजेपी और जेडीयू से है यानी ये वो सीटें हैं, जिन पर पहले से एनडीए का कब्जा रहा है. ऐसे में इन सीटों को निकालने के लिए कांग्रेस को एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ेगा. लगभग पाँच या छ: सीटें ऐसी हैं, जहाँ कांग्रेस आरजेडी और लेफ्ट साथ-साथ एनडीए का मुक़ाबला कर रहे हैं. ऐसे में कांग्रेस का स्ट्राइक रेट कितना ऊपर जाएगा, इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
उत्तर बिहार में सिर्फ एक सीट पर जीत-
पिछले चुनाव में उत्तर बिहार की 71 सीट पर चुनाव लड़कर केवल एक मुजफ्फरपुर की सीट जीती थी, हालांकि इस बार कांग्रेस उतर बिहार के कुछ सीटों पर अच्छा मुकाबला करते दिखाई दे रही है, वो चाहे गोविंदगंज रक्सौल चनपतिया बेनीपुर और मुजफ्फरपुर का विधानसभा क्षेत्र हो.
दशकों से कांग्रेस की खराब हालत-
कांग्रेस का कमजोर प्रदर्शन कोई तात्कालिक समस्या नहीं है, बल्कि बिहार की राजनीति में यह दशकों से जारी है. 1995 के बिहार विधानसभा चुनावों के बाद से, कांग्रेस कभी भी 30 से ज़्यादा सीटें नहीं जीत पाई है. इस बीच कांग्रेस का सबसे खराब दौर भी आया. 2005 के चुनावों में उसे सिर्फ़ नौ सीटें मिली थीं, और 2010 में यह संख्या घटकर केवल चार सीटों पर आ गई थी. इतनी कम स्ट्राइक रेट के साथ, कांग्रेस को दी गई सीटों पर उम्मीदें कम हो जाती हैं, जिसका सीधा असर महागठबंधन की कुल सीट संख्या पर पड़ता है. एनडीए के साथ कड़ा मुकाबला करने के लिए महागठबंधन को हर सीट पर जीत सुनिश्चित करनी होगी.
वापसी की कोशिश में कांग्रेस-
बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस ने इस बार अपनी प्रासंगिकता और जनाधार वापस लाने के लिए कई आंतरिक और बाहरी रणनीतियां बनाने का प्रयास किया था. हाई-प्रोफाइल नेताओं के दौरे, युवाओं को आकर्षित करने वाले वादे, और पुराने कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने की कोशिशें भी की गईं. हालांकि, ये सभी प्रयास अंततः 'ढाक के तीन पात' ही साबित हुए हैं. इसका मुख्य कारण स्थानीय नेतृत्व का अभाव रहा. कांग्रेस ने वोटर अधिकार यात्रा की. सभी हाई प्रोफाइल नेताओं को बिहार में उतारा. सचिन पायलट से लेकर स्टालिन तक, कई प्रदेशों के दिग्गज बिहार में आए. इस यात्रा के बाद राहुल गांधी दोबारा साइलेंट हो गए. स्थिति ये हुई कि महागठबंधन के प्रेस कांफ्रेंस में सिर्फ तेजस्वी यादव की तस्वीर पोस्टर पर दिखाई दी. कांग्रेस ने वोट चोरी के अलावा लोगों से कई तरह के वादे किए लेकिन सब कुछ फुस्स हो गया.
बेरोजगारी और विकास का मुद्दा बना रहे तेजस्वी-
तेजस्वी यादव, जो इस चुनाव में बेरोजगारी और विकास को मुख्य मुद्दा बनाकर लड़ रहे हैं, के लिए कांग्रेस की कमजोरी एक दोहरी चुनौती है. कांग्रेस को मिली कई सीटें, जिन पर वह जीत हासिल नहीं कर पाती, अंततः एनडीए के पक्ष में जा सकती हैं, जिससे राजद का सत्ता तक पहुंचने का गणित बिगड़ सकता है. कांग्रेस के कमजोर उम्मीदवारों के कारण विपक्षी वोटबैंक (खासकर अल्पसंख्यक वोट) बिखर सकता है, जिसका लाभ सीधा एनडीए को मिल सकता है. कांग्रेस के सामने चुनौती अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखने की है. प्रासंगिकता के आईने में बिहार के चुनाव को भी देखा जा सकता है. बिहार इससे अछूता नहीं है. राज्य में लचर होता कांग्रेस संगठन और सिकुड़ते जनाधार के कारण राजद पर उसकी निर्भरता काफी बढ़ गई है. आलम यह है कि बिहार कांग्रेस में इस वक्त संगठन के नाम पर सिर्फ प्रदेश अध्यक्ष हैं, जबकि जिलों में पार्टी की इकाइयां बनी ही नहीं हैं. पार्टी के रणनीतिकारों के लिए भाजपा से मुकाबला करने के साथ-साथ सहयोगी दल राजद पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए एक ठोस रणनीति बनाना सबसे बड़ी चुनौती बन गया है.
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