ज्ञानवापी को लेकर उठे विवाद पर अलग पक्षों के अलग तर्क हैं. कोई इसे सांस्कृतिक विरासत मानता है तो कोई धार्मिक स्थल. जान व्यापी के भीतर अदालत के आदेश पर सील किए गए शिला को हिंदू पक्ष शिवलिंग मान रहा है तो मुस्लिम पक्ष उसे फव्वारा करार दे .हा है. मामला अदालत की चौखट पर है लेकिन इस विवाद को इतिहास और इतिहासकारों के नजरिए से देखने की भी जरूरत है. इसीलिए ज्ञान व्यापक प्रकरण पर इतिहास की रोशनी डालने के लिए हम ने जाने-माने इतिहासकार और इंडोलॉजिस्ट ललित मिश्रा से मुलाकात की.
ज्ञानवापी का उल्लेख पहली बार कब हुआ था ?
ज्ञानवापी यानी ज्ञान देने वाला कुआं. यूं तो इसका जिक्र पुराणों में है लेकिन आधुनिक लेख जो इस पर मौजूद है वह 16वीं शताब्दी महाराष्ट्र के दत्तात्रेय समाज द्वारा लिखी गई किताब में ज्ञान व्यापी का जिक्र आता है. इतिहासकार ललित मिश्रा कहते हैं कि ज्ञान व्यापी प्राचीन काल के विश्वेश्वर मंदिर का एकांश था जिसका जिक्र स्कंद पुराण में किया जाता है लेकिन हमारे पास इसका नवीनतम उल्लेख भी उपलब्ध है जो कि 16वीं शताब्दी में लिखे गए ग्रंथ गुरुचरित्र में होता है जो कि महाराष्ट्र के दत्तात्रेय संप्रदाय के सन्यासियों द्वारा लिखा गया है. उसमें ज्ञानवापी में किए गए स्नान और उसके उपरांत मंदिर में जाकर भगवान के दर्शन करने का उल्लेख है.
क्या कहता है गुरु चरित्र का श्लोक नंबर 57
ज्ञानवापीं करी स्नान । नंवदका श्वर ऄचोन ।
तारका श्वर पूजोन । पुढें जावें मग तुवां ॥५७॥
यानी पौराणिक कथाओं के अलावा 16वीं शताब्दी में दत्तात्रेय संप्रदाय ने जो ग्रंथ लिखा था उसमें भी ज्ञानवापी का जिक्र है. लेकिन इसका उल्लेख मुगलिया सल्तनत में भी पाया जाता है. मसीर ए आलम गिरी की किताब है जिसमें औरंगजेब द्वारा जारी किए गए तमाम फरमान दर्ज किए गए हैं जो 1658 से लेकर 17वीं सदी तक के तमाम औरंगजेब के आदेशों को समावेशित करता है. इस किताब में औरंगजेब के आदेशों का क्रोनोलॉजिकल रिकॉर्ड है. इतिहासकार ललित मिश्रा इस किताब के हवाले से बताते हैं कि 16वीं सदी में औरंगजेब ने 8 अप्रैल 1669 को मुगल सियासत में टट्टा और मुल्तान जोकि इस समय पाकिस्तान में है और बनारस के तमाम मंदिरों को ध्वस्त करने का आदेश दिया. औरंगजेब का यह फरमान मसीर ए आलम में दस्तावेज किया गया है. इतिहासकार बताते हैं कि इसी किताब में आगे जिक्र है कि 2 जून 1669 को औरंगजेब की सभा में उसे यह जानकारी दी गई कि उसके फरमान पर अमल किया जा चुका है यानी टट्टा मुल्तान और बनारस के मंदिरों को ध्वस्त किया जा चुका है.
यानी 2 महीने के भीतर औरंगजेब के आदेश की तामील की गई और तीन मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया था जिसका जिक्र नवीनतम मुगल इतिहास में दर्ज है. लेकिन इतिहासकार मानते हैं कि मस्जिद का निर्माण कब हुआ इसकी जानकारी इतिहास में दर्ज नहीं है.
ज्ञानवापी में शिवलिंग है या फव्वारा?
इंडोलॉजिस्ट ललित मिश्रा बताते हैं कि यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है क्योंकि मुगल काल में जितने मुगल गार्डन बनाए गए जो आज भी भारत में मौजूद हैं उसमें सफदरजंग मकबरे में एक मुगल फव्वारा मौजूद है जो 1780 के दौरान बना है और फंक्शनल है. अगर हमारे विशेषज्ञ चाहे या एएसआई के लोग चाहें तो सफदरजंग के फव्वारे और ज्ञानवपी में जो शिवलिंग प्राप्त हुआ है उन दोनों का कंपैरेटिव एनालिसिस करवा सकते हैं और ऐसे में निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन नहीं होगा. इतिहासकार मानते हैं कि इस बात के सबूत नहीं कि जब ज्ञानवापी मंदिर को नष्ट किया गया तो शिवलिंग को बचाने की कोशिश की गई होगी लेकिन स्थानों में यह जरूर माना जाता है कि उस समय पंडितों ने शिवलिंग को बचाने के लिए उसे कहीं छुपा दिया था लेकिन उसे कहां छुपाया गया था इसका कोई ऐतिहासिक दस्तावेजी उल्लेख मौजूद नहीं है.
ललित मिश्रा यह भी कहते हैं कि ज्ञानवपी में कोई फव्वारा कार्यरत था इसके भी कोई ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद नहीं है. अगर वहां 40 - 50 साल पहले भी फव्वारा फंक्शनल था तो उससे संबंधित फोटो या दस्तावेज मौजूद नहीं है इसलिए फव्वारे के सवाल पर अभी भी सवाल खड़ा हुआ है. लेकिन उन लेखों के मुताबिक शिवलिंग को बचाने का प्रयत्न किया गया था जो कि अभी प्राप्त हुआ है. लेकिन शिवलिंग को कहां रखा गया और वह उस स्थल पर कैसे पहुंचा यह सिलसिला अभी भी अज्ञात है लेकिन इस पर हमें सरकमस्टेंशियल एविडेंस को स्वीकार करना चाहिए.
तो शिवलिंग मानने का आधार क्या है?
आज तक के साथ विशेष इंटरव्यू में इतिहासकार ललित मिश्रा ने कहा कि जब मैंने भी मंदिर का भ्रमण किया तो मैंनें देखा कि नंदी की प्रतिमा वर्तमान शिवद्वार की तरफ नहीं है जो कि एक आश्चर्य का विषय है. तब मैंने तत्कालीन पंडितों से पूछा था कि आखिर यह निर्माण कैसा है जहां मंदिर कहीं और है मूर्ति कहीं और देख रही है जो कि एक अपवाद है. एक लॉजिकल कंक्लुजन यह हो सकता है कि संभवत जिस तरफ नंदी का मुख हैं उसी तरफ ही प्राचीनतम विश्वेश्वर मंदिर हुआ करता था जहां फिलहाल मस्जिद मौजूद है.
तो क्या ताज महल, कुतुब मीनार और जामा मस्जिद के नीचे भी मंदिरों के अवशेष हैं?
इतिहासकार बताते हैं कि मुगलिया दस्तावेज यह इशारा करते हैं कि कुतुब मीनार के नीचे जो मस्जिद है उसके पूर्वी हिस्से में एक आलेख मिला जिसमें 27 मंदिरों के भग्नावशेष बनाए जाने का जिक्र और पुष्टि होती है जो कि एक अभिषेक अभिलेख है और मुस्लिम आक्रांता ने ही उन्हें निर्मित किया हुआ है उस पर संदेह नहीं है. आजादी के पहले दशक में ही एक राष्ट्रीय नीति होती तो यह विवाद खड़े नहीं होते.
रोज उठ रहे विवादों का समाधान कैसे?
भारत का इतिहास सीधा सपाट नहीं है ऐसे में एक राष्ट्रीय नीति बननी चाहिए थी कि ऐसे विवादित जगहों की ऐसी पहचान हो ताकि समरसता भी बनी रहे उदाहरण के तौर पर इंडोनेशिया में ऐसे विवादों को एक राष्ट्रीय नीति के तहत इनका समाधान किया गया जो कि स्वीकारोक्ति के साथ होता है जिसमें इतिहासकार दोनों पक्ष पुरातत्व सभी लोग शामिल होते हैं और ऐसे विवादों का पटाक्षेप किया जा सकता है ताकि हर दूसरे दिन नए-नए विवाद खड़े नहीं होंगे ना ही उससे कटुता का वातावरण बनेगा.