Wonder Plant Hemp: कभी ‘भांग’ के नाम से दी जाती थी बद्दुआ, आज पूरी इकॉनमी को बदल सकता है ये अकेला Seed, 3400 साल पुराने इतिहास वाले इस पौधे के हैं चमत्कारी फायदे 

जुलाई 2018 में उत्तराखंड भांग की खेती को वैध बनाने वाला पहला भारतीय राज्य बन गया था. यह भारत का सबसे बड़ा भांग उत्पादक राज्य है. अब हाल ही में उत्तराखंड में हेम्प पॉलिसी (Uttarakhand Hemp Policy) पर बात हो रही है.  

वंडर प्लांट हेम्प
अपूर्वा सिंह
  • नई दिल्ली,
  • 12 जून 2023,
  • अपडेटेड 2:18 PM IST
  • 3400 साल पहले से हो रहा है भारत में भांग का इस्तेमाल  
  • 7000 की खेती में होती है 17 हजार की आमदनी 

उत्तराखंड के सुदूर गांवों में जब किसी को बद्दुआ दी जाती है तो कहा जाता है कि ‘तेरे खेत में भांग उग जाए या तेरे खेत में भांग जम जाए’. लेकिन अब राज्य सरकार इसकी खेती को लगातार बढ़ावा दे रही है. इतना ही नहीं इसकी नई पॉलिसी भी जल्द आने वाली है. हालांकि, जब भांग (Hemp) या दूसरे तरह के कैनाबिस (Cannabis) की बात आती है, तो आमतौर पर इसे भारतीय संस्कृति से कभी जोड़ा नहीं जाता है. क्योंकि इसे एक नशीले पदार्थ के रूप में देखा जाता है. लेकिन ये हमारी समझ से बहुत ज्यादा है. भांग के पौधे में कई सौ कंपाउंड होते है. जिनमें CBN,THC, CBG और CBD जैसे कंपाउंड शामिल हैं. लेकिन Tetrahydrocannabinol (THC) और Cannabinoid (CBD) के बारे में लोग ज्यादा बात करते हैं. जुलाई 2018 में उत्तराखंड भांग की खेती को वैध बनाने वाला पहला भारतीय राज्य बन गया था. यह भारत का सबसे बड़ा भांग उत्पादक राज्य है. अब हाल ही में उत्तराखंड में हेम्प पॉलिसी (Uttarakhand Hemp Policy) पर बात हो रही है.  

भारत में कैनबिस के लंबे इतिहास के बावजूद इसे आज भी "पश्चिम से आई कोई दवा" के रूप में देखा जाता है. लेकिन प्राचीन भारतीय ग्रंथों जैसे अथर्ववेद और आयुर्वेदिक शास्त्रों में भी इसके इस्तेमाल की बात कही गई है. आज दुनियाभर में इसकी इंडस्ट्री करोड़ों रुपये की है. उत्तराखंड के सेंटर फॉर एरोमेटिक प्लांट (CAP) की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2022 में इंडस्ट्रियल हेम्प का वैश्विक बाजार 5600 करोड़ रुपये था, जो साल 2027 तक 21.6% की CAGR से बढ़कर रु 15 हजार करोड़ होने का अनुमान है. वहीं वर्ष 2022 में मेडिकल कैनाबिस का वैश्विक बाजार 11 हजार करोड़ रुपए था, जो वर्ष 2030 तक 22.1% की CAGR से बढ़कर 54 हजार करोड़ रुपए होने का अनुमान है.

हेम्प (Hemp) क्या है?

दरअसल, कैनबिस सैटिवा एल (Cannabis sativa L) को हेम्प के नाम से जाना जाता है. यह कैनाबिस परिवार का ही एक सदस्य है. इस प्लांट की सबसे अच्छी बात है कि इसका फूल, तना और बीज सहित पौधे के हर हिस्से का उपयोग किया जा सकता है. लेकिन लोग आमतौर पर इसे नशे वाले पौधे मेरुआना (Marijuana) से जोड़कर देखते हैं. मेरुआना में 20% तक THC कंटेंट होता है जबकि हेम्प में THC कंटेंट 0.3% से कम होता है, इसे साइकेडेलिक (Psychedelics) पदार्थों की लिस्ट से बाहर रखा गया है. आज देश में कई सारे स्टार्टअप ऐसे हैं जो हेम्प से कई तरह की चीजें बना रहे हैं जैसे कि कपड़े, भोजन, रस्सियां, दवाएं आदि.

जंगली हेम्प (तस्वीर: अपूर्वा सिंह)

उत्तराखंड में पिछले 2 दशकों से आगाज फेडरेशन (Aagaas Federation) हेम्प पर काम कर रहा है. इसके चेयरमैन जगदम्बा प्रसाद मैठाणी (Jagdamba Prasad Maithani) के मुताबिक, राज्य में इसका इतिहास बहुत पुराना है. GNT डिजिटल से बात करते हुए वे कहते हैं, “कुमाऊं में सदियों से भांग की चटनी का प्रचलन है. आयुर्वेद में भांग के तेल को माना जाता है. केवल हरिद्वार और नैनीताल दो ऐसे जिले हैं जहां पर ब्रिटिश समय से ही जंगल से भांग की कच्ची पत्तियों को औषधीय उपयोग के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. हालांकि इसमें पहले कुछ लोगों का एकाधिकार था लेकिन वह अब टूट रहा है. लोग अब धीरे धीरे जागरूक हो रहे हैं.”

वहीं CAP के डायरेक्टर नृपेंद्र के. चौहान (Dr. Nirpendra K. Chauhan) ने GNT डिजिटल को बताया कि इसकी खोज नशे के लिए नहीं बल्कि इसकी खोज घरेलू उपयोग के लिए की गई थी. वे कहते हैं, “इसके बीज से बहुत सारे फायदे होते हैं. हमारे पूर्वज भांग के बीज खाते थे और हमारे यहां अभी भी इसे खाया जाता है. इसके तने के भी कई फायदे हैं. जैसे तने में फाइबर निकलता है और उससे कपड़ा बनाया जाता है और इसके कपड़े काफी मजबूत हैं कई देश इसकी मजबूती के कारण अपने सैनिक के कपड़े बनाते हैं.मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता के समय में इसके तने से ईट बनाई गई थी. वो ईट आज तक भी सुरक्षित रखी हैं. इससे ये पता चलता है फाइबर से बनाई हुई कोई भी चीज बेकार नहीं होती.”

आगाज चेयरमैन जगदम्बा प्रसाद मैठाणी (तस्वीर: अपूर्वा सिंह)

3400 साल पहले से हो रहा है भारत में भांग का इस्तेमाल  

जेपी मैठाणी आगे आयरिश रिसर्चर एडविन थॉमस एटकिन्सन (Edwin Thomas Atkinson) के बारे में बताते हैं. वे कहते हैं, “एडविन थॉमस ने 1881 में ही उत्तराखंड में भांग की खेती की प्रचलित प्रथा पर प्रकाश डालते हुए 'द हिमालयन गजेटियर' में एक लेख लिखा था. उसमें एडविन थॉमस ने कोटद्वार में जो भांग की सबसे पहले मंडी लगती थी उसका जिक्र किया था. इसे देखकर ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) यूरोप से एक्सपर्ट्स को लेकर आई और उन्होंने नगीना, चांदपुर, बिजनौर और जो इलाका कुमाऊं वाला है, उसमें भांग की खेती करवाई. उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के लोग भांग के रेशे से बने मोटे कपड़े पहनते थे. हम मानते हैं कि वहीं से ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसका आईडिया लिया. हालांकि समाज में भांग शब्द को बड़ी हीन भावना से देखा जाता है. इसी को कम करने के लिए भांग की जगह हेम्प शब्द प्रचलन में लाया गया.”

दरअसल, हेम्प एक्सपर्ट्स भी मानते हैं कि मध्य एशिया और भारतीय उपमहाद्वीपों में कश्मीर से लेकर नेपाल, भूटान और म्यांमार तक हिमालय की पर्वतमालाएं भांग की मूल भूमि मानी जाती हैं. वहीं पुरातत्वविदों की मानें तो 8000 ईसा पूर्व में, चीन, जापान और ताइवान ने कपड़े जैसे विभिन्न उत्पादों का उत्पादन करने के लिए भांग का इस्तेमाल किया गया था.

लेकिन जब हम भारत के इतिहास पर नजर डालते हैं, तो भांग के उपयोग का पता आज से 3400 साल पहले आयुर्वेद की उत्पत्ति तक लगाया जा सकता है. हजारों साल से अलग-अलग स्वास्थ्य समस्याओं का इलाज करने के लिए भांग का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता रहा है. इसके अलावा भांग को वेदों में वर्णित पांच पवित्र पौधों में से एक माना जाता है. 

हेम्प के पत्ते (तस्वीर: अपूर्वा सिंह)

भविष्य में हेम्प ले सकता है प्लास्टिक की जगह 

हेम्प का सबसे बड़ा फायदा है कि यह सबसे टिकाऊ कच्चा माल है. हेम्प को देखभाल के लिए कीटनाशकों, उर्वरकों या बहुत ज्यादा पानी की जरूरत नहीं पड़ती है क्योंकि इसे खरपतवार के रूप में देखा जाता है. उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करते हुए अपने दम पर हेम्प बढ़ जाता है. इतना ही नहीं, यह पर्यावरण अनुकूल (Environment Friendly) भी है और दूसरे पौधों के मुकाबले ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड (Carbon Dioxide) खींचता है . वहीं, अगर बात करें इसके पौधे की तो इसका हर एक हिस्सा काम का होता है. जैसे भांग के लंबे गोल डंठल की ऊपरी त्वचा से भांग के रेशे बनते हैं. वे एक साल में 3 से 14 फीट लंबाई तक बढ़ सकते हैं. ये महीन रेशे जिस स्किन से ढके होते हैं उन्हें छल्ली कहते हैं. भांग के रेशे मादा पौधे की तुलना में अधिकतर नर पौधे से मिलते हैं. दूसरी ओर, मादा पौधा बीज और मादक पदार्थ पैदा करता है. इन बीजों का उपयोग भांग का तेल निकालने और मसाले बनाने में किया जाता है. नर पौधे से जो रेशा निकलता है उसे भंगोला कहते हैं. भांग के रेशों का उपयोग रस्सियां बनाने में किया जाता है जिनका उपयोग बैग, बोरे और पुल बनाने में किया जाता है. भविष्य में ये प्लास्टिक की जगह भी ले सकता है. 

इसे लेकर जेपी मैठाणी कहते हैं, “ये सीड पूरी इकॉनमी को बदल सकती है. जब आगाज का गठन हुआ था 1997 में वो बहुत पुरानी बात है. इसके 7 साल बाद 2004 में हेम्प पर काम करना शुरू किया. 2004-05 में उत्तराखंड के पहले चीफ सेक्रेटरी डॉ रघुनंदन सिंह टोलिया ने उत्तराखंड बैम्बू एंड फाइबर डेवलपमेंट बोर्ड स्थापना की थी. तभी से इसपर बात होनी शुरू हो गई थी. आरएस टोलिया ने गाइडलाइन निकाली और एक्साइज कमिश्नर को कहा कि इंडस्ट्रियल हेम्प की एक नीति होनी चाहिए जिसमें इसके इस्तेमाल की बारे में बताया गया हो. भारत के एनडीपीएस एक्ट में हेम्प के 0.3 स्टैण्डर्ड मानक को ही क्यों रखा गया इसका जवाब किसी के पास नहीं था. इसका कारण है कि हमने बाहर के देशों के कानून को अडॉप्ट किया. बजाय इसके कि हम अपने देश की स्थितियों को देखकर कानून बनाते. 2004-05 में सर रतन टाटा ने उत्तराखंड बैम्बू बोर्ड को एक ग्रांट प्रदान किया और आगाज फेडरेशन ने उत्तराखंड के पीपलकोटी में एक प्रोसेसिंग ट्रायल किया. हालांकि, हमारे समाज की परेशानी ये है कि हम मिलकर काम नहीं करते हैं. अगर ऐसा होता तो पॉलिसी पहले ही आ जाती.”

हेम्प रेशे से कपड़े बनने तक का सफर (तस्वीर: अपूर्वा सिंह)

7000 की खेती में होती है 17 हजार की आमदनी 

CAP के डायरेक्टर डॉ नृपेंद्र बताते हैं कि यूएन के इसपर बैन लगाने के बाद इसकी कहती अवैध मानी जाने लगी थी. इसके बारे में बताते हुए डॉ नृपेंद्र कहते हैं, “साल 1985 के पहले हर शहर में इसके ठेके होते थे जहां आसानी से इसके बीज उपलब्ध होते थे. लेकिन 1985 में इस पर बैन लगा दिया गया था. इसमें यूनाइटेड नेशन का सबसे बड़ा हाथ था. उनका कहना था कि इससे नशा करने को बढ़ावा मिल रहा है. हालांकि, उन सभी ज्यादातर देशों में आज इससे बैन हटाकर मेडिकल और दूसरी चीजों में इस्तेमाल किया जा रहा है. इंडिया में सबसे अच्छे हेंप की खेती होती थी और यहां से पूरे दुनिया में भेजा जाता था. आज दूसरे देशों ने हमें कॉपी करके अपने देश में अरबों खरबों का काम कर लिया है. कई देशों से बैन हट गया लेकिन हमारा बैन ही रहा. इसी को देखते हुए उत्तराखंड राज्य में इसके बैन को हटा दिया गया है.” 

आज भांग को रोजगार देने वाले पौधे के रूप में देखा जा रहा है. इसे लेकर जेपी मैठाणी आखिर में कहते हैं, “उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में जो भुतहा गांव जिन्हें हम घोस्ट विलेज के नाम से जानते हैं उनकी संख्या तीन कारणों से लगातार बढ़ रही है. शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य. अगर ये तीनों सुविधाएं उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में हो जाए तो ये पलायन नहीं होगा. और रोजगार के लिए भांग की खेती काफी लाभदायक है. प्राकृतिक रेशा आधारित स्वरोजगार एक बहुत बड़ा रिसोर्स है. इसलिए भांग की खेती की नीति आ रही है. इसके अलावा भांग की खेती का ये फायदा है कि जो गांव खाली हो रहे हैं उनका कहना है कि उनकी खेती जंगली जानवर खराब कर देते हैं, लेकिन उन बंजर जमीनों में अगर भांग की खेती शुरू की जाए तो इससे हमारे राज्य को फायदा हो सकता है. बस इन्हीं सबको ध्यान में रखते हुए आगाज ने लगातार इसके लिए कई लोगों के साथ मिलकर काम किया. वहीं से सीखकर आज आगाज लोगों को भांग की खेती को लेकर गाइड करता है.”

गौरतलब है कि हेम्प की खेती में ज्यादा मेहनत और पैसा नहीं लगता है. जेपी मैथानी ने GNT डिजिटल को बताया, “एक नाली जमीन (200 स्क्वायर मीटर) में भांग की खेती करने में लगभग 7000 से 7500 हजार रुपये का खर्चा आता है. इसमें बीज की कीमत, हल लगाना, नाली में लाइन से बीज बोना आदि शामिल है. इसमें से करीब 17500 का सामान एक नाली से निकलेगा. 4-5 किलो बीज, करीबन 60-70 किलो रेशा, 160-170 किलो डंठल. अगर आज की तारीख में इनकी कीमत देखें तो ये 17500 की इनकम होती है.” 

हेम्प (तस्वीर: अपूर्वा सिंह)


 

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