समंदर की लहरों से मौसम का गहरा कनेक्शन है. प्रशांत महासागर (Pacific Ocean) में होने वाले दो रहस्यमय बदलाव, अल नीनो (El Niño) और ला नीना (La Niña) दुनिया भर के मौसम में होने वाले बदलाव के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं. ये बदलाव सिर्फ समंदर में नहीं होते, इनका असर दिखता है आपके शहर के मौसम में, किसानों की फसल पर और यहां तक कि जेब पर भी.
क्या है अल नीनो?
अल नीनो एक जलवायु पैटर्न है. अल नीनो का मतलब होता है “छोटा लड़का”. इसका नाम दक्षिण अमेरिकी मछुआरों ने 1600 के दशक में रखा था, क्योंकि ये घटना अक्सर क्रिसमस के आस-पास देखने को मिलती थी. सामान्य परिस्थितियों में समंदर में हवाएं पूर्व से पश्चिम की ओर बहती हैं, यानी दक्षिण अमेरिका से एशिया की ओर. ये हवाएं गर्म पानी को भी एशिया की ओर ले जाती हैं लेकिन जब अल नीनो आता है, ये हवाएं कमजोर पड़ जाती हैं और गर्म पानी वापस अमेरिका की तरफ लौट आता है.
अमेरिका के पश्चिमी तट पर ठंडा और पोषक तत्वों से भरपूर पानी ऊपर नहीं आ पाता, जिससे मछलियों और समुद्री जीवन को नुकसान होता है. फ्लोरिडा, खाड़ी क्षेत्र और भारत के कुछ हिस्सों में भारी बारिश और बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है. वहीं, उत्तरी अमेरिका के कुछ इलाके सूखे और गर्म हो जाते हैं.
भारत में मानसून कमजोर पड़ जाता है, जिसका फसल पर सीधा असर होता है.
अब जानते हैं ला नीना के बारे में?
ला नीना का मतलब है “नन्ही लड़की”. इसे अल नीनो की बहन कह सकते हैं, जो बिल्कुल उलटा असर डालती है. इस दौरान हवाएं और भी तेज चलती हैं और गर्म पानी को एशिया की ओर और ज्यादा धकेलती हैं. इससे दक्षिण अमेरिका के किनारों पर बहुत ठंडा, पोषक तत्वों से भरपूर पानी ऊपर आता है, जो मछलियों और समुद्री जीवन के लिए वरदान बन जाता है. ला नीना की वजह से अमेरिका के दक्षिणी हिस्सों में सूखा, लेकिन उत्तरी हिस्सों में बारिश और ठंड बढ़ जाती है. हिन्द महासागर के एरिया में ज्यादा तूफान और चक्रवात आ सकते हैं. भारत में मानसून सामान्य या बेहतर हो सकता है, जिससे खेती को फायदा मिलता है. भारत में ला नीना की वजह से ज्यादा ठंड और बारिश की संभावना होती है.
कब-कब आते हैं ये?
हर 2 से 7 साल में कभी अल नीनो, कभी ला नीना देखने को मिलते हैं. दोनों का असर 9 से 12 महीने तक रह सकता है, कई बार तो सालों तक खिंच जाता है. अल नीनो आमतौर पर ला नीना से ज्यादा बार आता है.
भारत में ENSO‑neutral की स्थिति
इस साल भारत में ENSO‑neutral की स्थिति है. ENSO‑Neutral मे प्रशांत महासागर में हवाएं और समुद्री तापमान सामान्य बने रहते हैं. मौसम पर इसका असर स्पष्ट नहीं होता यानी सूखा या बाढ़ जैसी स्थिति नहीं बनती. ENSO-Neutral स्थिति में मानसून का पूर्वानुमान लगाना थोड़ा मुश्किल हो जाता है. कुल मिलाकर, यह एक स्थिर लेकिन सतर्क रहने वाली स्थिति होती है.
इस बार मानसून समय से पहले पहुंचा भारत
इस बार मानसून ने भारत की ज़मीन पर समय से पहले दस्तक दी है. भारतीय मौसम विभाग (IMD) के अनुसार, इस साल मानसून सामान्य से अधिक यानी 106% तक रहने की संभावना है.
मौसम विभाग ने 20 जून से 25 जून के बीच उत्तर-पश्चिम भारत के कई हिस्सों में बारिश की सक्रियता की भविष्यवाणी की है. इसमें हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पूर्वी राजस्थान, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख शामिल हैं.
खास बात यह है कि मानसून इस साल 30 जून से पहले ही दिल्ली पहुंच सकता है. मौसम विभाग का कहना है कि 23 जून तक राजधानी में मानसून की दस्तक हो सकती है.
मध्य और दक्षिण भारत में भी मानसून की मेहरबानी देखने को मिल सकती है. खासतौर पर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और ओडिशा जैसे राज्यों में सामान्य से ज्यादा बारिश की उम्मीद जताई गई है.
हालांकि कुछ इलाकों में बारिश सामान्य से कम हो सकती है. इनमें पंजाब, हरियाणा, केरल और तमिलनाडु के कुछ हिस्से शामिल हैं. उत्तर-पश्चिम भारत में बारिश सामान्य रहने की संभावना है, जबकि पूर्वोत्तर भारत में सामान्य से कम बारिश होने का अनुमान है.
हमारे लिए क्यों जरूरी होता है मानसून
भारत की कुल GDP का लगभग 20% से अधिक हिस्सा कृषि से जुड़ा है. भारत की अर्थव्यवस्था में मानसून की भूमिका बहुत ही अहम होती है. मानसून की बारिश सीधे तौर पर किसानों की फसलों की पैदावार पर असर डालती है. जब मानसून सही समय पर और पर्याप्त मात्रा में होता है, तो खेतों में अच्छी फसल होती है. इससे ना केवल किसानों की आमदनी बढ़ती है, बल्कि पूरे देश में अन्न की उपलब्धता भी बढ़ती है. अच्छी फसल होने से खाद्य पदार्थों की कीमतें स्थिर रहती हैं और महंगाई दर कम रहती है.
लेकिन जब मानसून कमजोर होता है या अनियमित बारिश होती है, तो फसल खराब होती है. इससे कृषि उत्पादन घट जाता है और देश को खाद्य आयात बढ़ाना पड़ता है. खाद्य वस्तुओं की कमी के कारण महंगाई बढ़ जाती है, जिसका असर आम आदमी की जेब पर पड़ता है.