"धरती के सीने में जो फूल नए खिलाती है, जो बिन मांगे सब दे जाती है, वो औरत कहलाती है. जो सूखी रेतीली धरती में फूलों सी लहराती है, जो खुद गरम हवाएँ सहती है पर शीतलता फैलाती है, वो औरत कहलाती है. वो जननी है वो संगनी है, वो सैनिक है वो पहरी है, जो नित नए कीर्तिमान बनाती है, वो औरत कहलाती है."
औरत को धरती की जननी कहा जाता है. इस धरती को जनने वाली औरत कितनी तकलीफें झेलती है. आज के समय जहां कई लोग पीरियड्स पर खुलकर बात करते हैं, वहीं पहले के जमाने में इसको लेकर कई सारी गलत धारणाएं थीं. आपने कभी सोचा है कि महिलाएं कपड़ा, पीरियड्स पैड और टैम्पोन वगैरह से पहले किन चीजों का इस्तेमाल करती थीं. कई सदियों से पीरियड्स को लुका-छुपी का विषय माना गया है, और शायद यही वजह है कि कई महिलाएं मेंस्ट्रुअल हेल्थ एजुकेशन और सेफ पीरियड प्रोडक्ट्स की पहुंच से बाहर रहीं हैं. तो चलिए आज हम आपको पीरियड्स को लेकर महिलाएं में हुए बदलाव के बारे में बताएंगे, कि कैसे महिलाओं को एक वक्त में मोटा कागज इस्तेमाल करना पड़ता था, जिसकी जगह आज पीरियड्स पैड, टैम्पोन और मेंस्ट्रुअल कप ने ले ली है.
मोटे कागज से रोकते थे ब्लड फ्लो
अगर इतिहास के पन्नों को पलटेंगे तो उसमें आपको पता चलेगा कि सबसे पहले मिस्र के रिकॉर्ड्स में मेंस्ट्रुअल प्रोडक्ट्स का जिक्र किया गया था. मिस्र में महिलाएं पीरियड्स के ब्लड फ्लो को रोकने के लिए 'पेपरिस' का इस्तेमाल करती थीं. दरअसल 'पेपरिस' एक मोटा कागज होता था, जिसे महिलाएं पानी से भिगो कर नैपकिन की तरह इस्तेमाल करती थीं. इतना ही नहीं अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में महिलाएं पीरियड्स के दिनों में 'सूखी घास' का पैड बनाकर इस्तेमाल करती थीं.
वहीं अगर 5 से 15वीं सदी की बात करें तो महिलाएं गंदे कपड़े का इस्तेमाल करती थीं. लेकिन ऐसा करने से बैक्टीरियल इंफेक्शन का काफी खतरा रहता था, जिस कारण सैनिटरी ऐप्रन अस्तित्व में आया. ये सैनिटरी ऐप्रन रबड़ का बना होता था. इस रबड़ के सैनिटरी ऐप्रन को पहनना इसलिए मुश्किल था, क्योंकि इससे काफी ज्यादा बदबू आती थी.
पीरियड्स के दिनों में कपड़े का इस्तेमाल काफी पुराना है. यहां तक की अफ्रीका की कई जनजातियां पीरियड्स के दिनों में कुछ भी इस्तेमाल नहीं करती थीं, वो नेचुरल तरीके से इस ब्लड को बहने देती थी, फिर अपने शरीर को रोज के रोज साफ करती थीं.
फिर 1896 में पहली बार लिस्टर्स टावल का पहला कॉमर्शियल पैड आया, लेकिन उस वक्त तक पीरियड्स शर्म की बात थी, महिलाएं अक्सर इसके बारे में बात नहीं करती थी. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जब सैनिकों का खून बहता तो उसे सोखने के लिए सेल्यूलोज का इस्तेमाल किया जाता था, जिसे देख कर नर्सों ने भी मेंस्ट्रुएशन के दौरान इसका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. फिर 1921 में पहली बार कोटेक्स’ सैनिटरी नैपकिन मार्केट में आई.
और फिर हुआ मॉर्डन टैम्पोन का आविष्कार...
सन् 1931 में मॉडर्न टैम्पोन का आविष्कार हुआ. लेकिन जहां कुंवारी लड़कियां इससे दूरी बरतती थीं, वहीं शादीशुदा महिलाएं इसका इस्तेमाल पूरी छूट के साथ करती थी. फिर 1937 में मेंस्ट्रुअल कप मार्केट में आए. ये कप्स महिलाओं को खूब पसंद आए. मॉडर्न प्रोडक्ट्स के बाजार में आने के बाद उनकी विविधता भी देखने को मिली. अब आज बाजार में सैनिटरी नैपकिन, कप, पैंटीज और टैम्पोन जैसे तमाम तरह के प्रोडक्ट्स आते हैं.
वैसे तो ये सभी प्रोडक्ट बाजार में आ चुके थे, पीरियड्स से जुड़ी शर्म, धर्म की सीख, उसे पाप मानना, गंदा खून मानना जैसी धारणाओं की वजह महिलाएं इस पर कम ही खुल के बात कर पाती थीं.
जब पीरियड्स के दिनों में महिलाओं के लिए होता था रेत का बिस्तर...
पुरानी रिसर्च में देखेंगे तो ऐसा माना जाता है कि उन दिनों महिलाएं रेत का इस्तेमाल करती थीं. राजस्थान में बच्चे के जन्म के वक्त महिला को रेत के बिस्तर पर लिटाया जाता था, और उसी पर बच्चे का जन्म होता था, क्योंकि ब्लीडिंग को रेत सोख लेता था. हम सभी जानते हैं कि राजस्थान में पानी की कमी होती है, जिसके चलते चोट वगैरह में सूखा गोबर लगाया जाता था, ऐसे में अनुमान लगाया जाता है कि पीरियड्स के दिनों में भी महिलाएं सूखा गोबर लगाती होंगी. जिस कारण महिलाओं को काफी गंभीर इंफेक्शन से गुजरना पड़ता है. हमारा समाज काफी ज्यादा उलझा हुआ है, जहां एक तरफ कई जगहों पर महावारी के आने के बाद जश्न मनाया जाता है क्योंकि लड़की तब रिप्रोडक्टिव सिस्टम का हिस्सा बन जाती है. यह उसके स्वस्थ होने की निशानी है. तो वहीं समाज के दूसरे हिस्से में काफी अशुद्ध माना जाता है.
पीरियड्स के खून को इतना गंदा माना जाता था, कि जो रेत महिलाएं इस्तेमाल करती थी, उनकी कोशिश होती थी कि उस पर किसी की नजर न पड़े और न पैर, जिससे किसी के साथ कुछ बुरा ना हो. यहां तक की कई जगहों पर पीरियड्स ब्लड को काला जादू माना जाता था. इससे जुड़े अंधविश्वास आज भी कई जगहों पर माने जाते हैं.
जानवर की खाल का भी होता था इस्तेमाल
खबरों की मानें तो युगांडा में पीरियड्स ब्लड को सोखने के लिए महिलाएं जानवर की खाल तक का इस्तेमाल करते थे. वहीं जांबिया जैसे देशों में गोबर को सुखाकर उसका इस्तेमाल किया जाता था.
आज बदल चुकी है परिस्थितियां
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) की ताजा रिपोर्ट की मानें को हिंदुस्तान में 64 फीसदी महिलाएं सेनेटरी नैपकिन, 50 फीसदी कपड़ा धोकर बार-बार इस्तेमाल करती हैं. 15 फीसदी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं. यानी की कुल मिलाकर 15-24 वर्ष की 78 फीसदी महिलाएं मासिक धर्म में स्वच्छ विधि का उपयोग करती हैं.