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Faiz Ahmed Faiz Birth Anniversary: दिल छू लेंगी फ़ैज़ की ये बेहतरीन नज़्में

gnttv.com
  • नई दिल्ली ,
  • 13 फरवरी 2023,
  • Updated 12:42 PM IST
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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ एक पाकिस्तानी कवि और उर्दू और पंजाबी साहित्य के लेखक थे. फ़ैज़ अपने समय के सबसे प्रसिद्ध, लोकप्रिय और प्रभावशाली उर्दू लेखकों में से एक थे. ब्रिटिश शासन के दौरान पंजाब के सियालकोट जिले में जन्मे फैज़ ने ब्रिटिश भारतीय सेना में सेवा दी. भारत के बंटवारे के बाद फ़ैज़ ने समाचार पत्रों में काम किया और उनकी बेबाक आवाज के लिए उन्हें जेल में डाल दिया गया. फ़ैज़ को उनके कामों के लिए 1962 में साहित्य में नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकन के साथ सोवियत संघ से लेनिन शांति पुरस्कार मिला. 

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हम देखेंगे- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ 

हम देखेंगे 

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे 

वो दिन कि जिस का वादा है 

जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है 

जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ 

रूई की तरह उड़ जाएँगे 

हम महकूमों के पाँव-तले 

जब धरती धड़-धड़ धड़केगी 

और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर 

जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी 

जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से 

सब बुत उठवाए जाएँगे 

हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम 

मसनद पे बिठाए जाएँगे 

सब ताज उछाले जाएँगे 

सब तख़्त गिराए जाएँगे 

बस नाम रहेगा अल्लाह का 

जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी 

जो मंज़र भी है नाज़िर भी 

उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा 

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो 

और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा 

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो. 

(Source: Rekhta)

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बोल- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे 

बोल ज़बाँ अब तक तेरी है 

तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा 

बोल कि जाँ अब तक तेरी है 

देख कि आहन-गर की दुकाँ में 

तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन 

खुलने लगे क़ुफ़्लों के दहाने 

फैला हर इक ज़ंजीर का दामन 

बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है 

जिस्म ओ ज़बाँ की मौत से पहले 

बोल कि सच ज़िंदा है अब तक 

बोल जो कुछ कहना है कह ले.

(Source: Rekhta)

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ढाका से वापसी पर- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

हम कि ठहरे अजनबी इतनी मुदारातों के बा'द 

फिर बनेंगे आश्ना कितनी मुलाक़ातों के बा'द 

कब नज़र में आएगी बे-दाग़ सब्ज़े की बहार 

ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बा'द 

थे बहुत बेदर्द लम्हे ख़त्म-ए-दर्द-ए-इश्क़ के 

थीं बहुत बे-मेहर सुब्हें मेहरबाँ रातों के बा'द 

दिल तो चाहा पर शिकस्त-ए-दिल ने मोहलत ही न दी 

कुछ गिले शिकवे भी कर लेते मुनाजातों के बा'द 

उन से जो कहने गए थे 'फ़ैज़' जाँ सदक़े किए 

अन-कही ही रह गई वो बात सब बातों के बा'द.

(Source- Rekhta)

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तराना- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दरबार-ए-वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएँगे 

कुछ अपनी सज़ा को पहुँचेंगे, कुछ अपनी जज़ा ले जाएँगे 

ऐ ख़ाक-नशीनो उठ बैठो वो वक़्त क़रीब आ पहुँचा है 

जब तख़्त गिराए जाएँगे जब ताज उछाले जाएँगे 

अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें अब ज़िंदानों की ख़ैर नहीं 

जो दरिया झूम के उट्ठे हैं तिनकों से न टाले जाएँगे 

कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो, बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत 

चलते भी चलो कि अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएँगे 

ऐ ज़ुल्म के मातो लब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक 

कुछ हश्र तो उन से उट्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएँगे.

(Source- Rekhta)