Biogas from Kitchen Waste: सस्टेनेबिलिटी की तरफ एक कदम! कैंटीन के जैविक कचरे से बना रहे हैं बायोगैस, LPG पर खर्च हुआ कम

आपको बता दें कि बायोगैस बनाने की प्रोसेस में स्लरी भी निकलती है जिसे खेती के लिए प्राकृतिक खाद के रूप में और मछली पालन में चारे के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है.

Biogas Plant (Representative Image)
gnttv.com
  • नई दिल्ली ,
  • 27 जून 2025,
  • अपडेटेड 10:30 AM IST

सस्टेनेबल एनर्जी की दिशा में एक बड़ा कदम उठाते हुए, पश्चिम बंगाल के कोलकाता में NRS मेडिकल कॉलेज, कलकत्ता पावलोव अस्पताल और आद्यापीठ अन्नादा पॉलिटेक्निक कॉलेज ने सफलतापूर्वक एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया है. इन संस्थानों में रसोई से निकलने वाले कचरे से बायोगैस बनाई जा रही है और इस बायोगैस को फिर से कैंटीन में ही इस्तेमाल किया जा रहा है. 

पश्चिम बंगाल अक्षय ऊर्जा विभाग मे इन कॉलेजों को गाइड किया है और इस पहल के परिणाम पहले से ही दिखने लगे हैं. अब फ्यूल की लागत में बचत हो रही है और हानिकारक उत्सर्जन में कमी आ रही है. आपको बता दें कि बायोगैस बनाने की प्रोसेस में स्लरी भी निकलती है जिसे खेती के लिए प्राकृतिक खाद के रूप में और मछली पालन में चारे के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है. ये तीनों संस्थान अब इस ग्रीन फ्यूल का इस्तेमाल अपनी कैंटीन में कर रहे हैं, जिससे एलपीजी पर निर्भरता कम हो रही है. 

वेस्ट मैनेज करने का बेहतर तरीका
द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, यह आइडिया अस्पतालों, मॉल और होटलों जैसे बड़े प्रतिष्ठानों में कचरे के निपटान की बढ़ती समस्या को देखते हुए आया. साथ ही, बायोगैस का इस्तेमाल एलपीजी से कम लागत वाला है. साथ ही, यह सस्टेनेबल है. 

कचरे का सही से निपटान न होने से डंपयार्ड भर रहे हैं. साथ ही, इससे दुर्गंध भी आती रहती है और लैंडफिल में डंप किए गए जैविक कचरे से खतरनाक मीथेन उत्सर्जन और पर्यावरण प्रदूषण होता है. यह जैविक कचरा बीमारियों और हवा और पानी के प्रदूषण का प्रमुख स्रोत है. ऐसे में, जैविक कचरे को फ्यूल में बदलना बेहतर तरीका है. 

लगाए गए बायोगैस प्लांट
जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल के अनुसार, मीथेन कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में 21 गुना अधिक हानिकारक है. बायोगैस उत्पादन न सिर्फ ऐसे उत्सर्जन को रोकता है बल्कि एक स्वच्छ वातावरण भी बनाता है. बताया जा रहा है कि एनआरएस और पावलोव अस्पतालों में बायोगैस प्लांट लगाए गए हैं. हर एक प्लांट प्रतिदिन 250 किलोग्राम वेस्ट को मैनेज कर सकता है. इन प्लांट्स की पांच साल की रखरखाव योजना है. 

आद्यापीठ अन्नादा पॉलिटेक्निक कॉलेज में प्लांट इस महीने की शुरुआत में पूरा हो गया था. तीनों प्रोजेक्ट्स पर कुल मिलाकर 50 लाख रुपये से ज्यादा की लागत आई है. अब हर दिन, रसोई में 250-300 किलोग्राम अपशिष्ट, जैसे कि सब्जी के अवशेष, चावल का घोल और बचा हुआ भोजन डाइजेस्टर में डाला जाता है. इससे इनपुट की मात्रा के आधार पर 15 से 25 क्यूबिक मीटर बायोगैस का उत्पादन होता है, जिसे फिर सीधे रसोई में पाइप किया जाता है. इसके अलावा, स्लरी का इस्तेमाल संस्थानों के बगीचों में किया जाता है. 

 

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