GNT Exclusive: Labubu और प्लास्टिक के बीच चंपारण की नमिता आज़ाद ने जिंदा की कन्यापुत्री गुड़िया की परंपरा, बिहार की खोई हुई संस्कृति को दे रहीं वैश्विक पहचान 

कन्यापुत्री का मतलब है ‘कन्या’ यानी नई दुल्हन और ‘पुत्री’ यानी उसका बच्चा. ये गुड़िया मां और बच्चे की जोड़ी के रूप में बनाई जाती थीं, जो गांव की बोली में ‘गुड्डा-गुड़िया’ कहलाती थीं. शादी में बेटियों को ये गुड़िया उनके ससुराल भेजी जाती थीं, जो सौभाग्य, परिवार की निरंतरता और ममता का प्रतीक थीं. इसे लेकर नमिता ने GNT डिजिटल से बात की.

Kanyaputri dolls
अपूर्वा सिंह
  • नई दिल्ली,
  • 17 जुलाई 2025,
  • अपडेटेड 12:06 PM IST

पश्चिम चंपारण, बिहार के छोटे से गांव मंझरिया की तंग गलियों में, जहां सावन का महीना रंग-बिरंगी परंपराओं और भाई-बहन के प्यार से सजता है, एक ऐसी कहानी छिपी है, जो पुरानी यादों को नया जीवन दे रही है. यह कहानी है नमिता आजाद की, एक ऐसी महिला, जिन्होंने अपनी जड़ों से जुड़ी कन्यापुत्री गुड़िया की परंपरा को न केवल बचाया, बल्कि इसे देश-विदेश तक पहुंचाया है. 

नमिता की कहानी उनके बचपन से शुरू होती है, जब मंझरिया गांव में सावन का महीना उत्सव की तरह मनाया जाता था. गांव की महिलाएं पुरानी साड़ियों और कपड़ों के टुकड़ों से कन्यापुत्री गुड़िया बनाती थीं. ये गुड़िया सिर्फ खिलौने नहीं थीं; ये एक ऐसी परंपरा थीं, जो परिवार, भाई-बहन के रिश्ते और सांस्कृतिक मूल्यों को जीवंत करती थीं. नमिता ने GNT डिजिटल से एक्सक्लूसिव बात करते हुए बताया, “जब मैं छोटी थी, मेरी दादी, नानी और मां सावन में कन्यापुत्री गुड़िया बनाती थीं. ये गुड़िया भाई-बहन के प्यार की कहानी को बयां करती थीं. बहनें इन्हें नदी में बहाती थीं, और भाई इन्हें बचाने का खेल खेलते थे.”

कन्यापुत्री का मतलब है ‘कन्या’ यानी नई दुल्हन और ‘पुत्री’ यानी उसका बच्चा. ये गुड़िया मां और बच्चे की जोड़ी के रूप में बनाई जाती थीं, जो गांव की बोली में ‘गुड्डा-गुड़िया’ कहलाती थीं. शादी में बेटियों को ये गुड़िया उनके ससुराल भेजी जाती थीं, जो सौभाग्य, परिवार की निरंतरता और ममता का प्रतीक थीं. नमिता बताती हैं, “हमारी माताएं और दादियां इन गुड़ियों को बेटी को शादी के समय उनके सामान में रखकर देती थीं. यह परंपरा बहुत खूबसूरत थी, क्योंकि यह परिवार और रिश्तों की अहमियत सिखाती थी.”

सावन की परंपरा का गहरा नाता
सावन का महीना बिहार में भाई-बहन के रिश्ते का उत्सव है. गांव की बहनें मिट्टी की डलिया में कन्यापुत्री गुड़िया सजाती थीं और गीत गाते हुए नदी में बहाने ले जाती थीं. नमिता GNT को बताती हैं, “एक कहानी थी कि एक भाई को उसकी बहन की वजह से श्राप मिला था. बहन ने शर्मिंदगी में खुद को गुड़िया के रूप में बनाया और नदी में बहा दिया. भाई उसे बचाने की कोशिश करता था. यह रस्म भाई-बहन के प्यार और विश्वास को दर्शाती थी.” इस परंपरा में बहनें भाइयों को फल और मिठाइयां बांटती थीं, जिससे रिश्तों में मिठास बढ़ती थी.

लेकिन समय के साथ, यह परंपरा धीरे-धीरे गायब होने लगी. प्लास्टिक के खिलौनों और बदलते दौर ने कन्यापुत्री गुड़िया को गांवों से लगभग मिटा दिया. नमिता को यह देखकर दुख हुआ. वे कहती हैं, “40 साल पहले मेरे बचपन में यह परंपरा जीवित थी, लेकिन धीरे-धीरे लोग इसे भूल गए. मैंने ठान लिया कि मुझे इस खूबसूरत परंपरा को फिर से जिंदा करना है.”

शिक्षण से उद्यमिता की ओर कदम
नमिता की जिंदगी का अगला पड़ाव तब शुरू हुआ, जब 2002 में उनकी नौकरी उद्यमिता विकास संस्थान में लगी. यहां वे शिक्षकों को कला के जरिए पढ़ाने का प्रशिक्षण देती थीं. इस दौरान, उन्होंने ‘फैमिली डॉल’ का कॉन्सेप्ट शुरू किया, जिसमें बच्चों को गुड़िया के जरिए परिवार और रिश्तों को समझाया जाता था. नमिता बताती हैं, “मैंने हजारों शिक्षकों को सिखाया कि गुड़िया के माध्यम से बच्चे मां-बेटी, भाई-बहन और परिवार की अहमियत को आसानी से समझ सकते हैं. यह बच्चों को पढ़ाने का मजेदार और रचनात्मक तरीका था.”

2013 में, नमिता ने नौकरी छोड़ दी और कन्यापुत्री गुड़िया को अपना पूरा समय दे दिया. उन्होंने अपने घर को एक वर्कशॉप में बदल दिया और पुराने कपड़ों से गुड़िया बनाना शुरू किया. शुरुआत में, उन्होंने अपनी घरेलू सहायिका को प्रशिक्षित किया. धीरे-धीरे, 15 महिलाओं की एक टीम बन गई. नमिता कहती हैं, “मैंने अपने गांव की महिलाओं को इस काम से जोड़ा. कुछ महिलाएं घर से सामग्री लेकर काम करती हैं, और कुछ मेरे साथ वर्कशॉप में.” यह काम न केवल परंपरा को जीवित रख रहा है, बल्कि गांव की महिलाओं को आत्मनिर्भर भी बना रहा है.

खोई परंपरा को नई पहचान
नमिता के अनुसार, कन्यापुत्री गुड़िया की परंपरा पहले मिथिलांचल और बिहार के कई इलाकों में थी. बट सावित्री और नाग पंचमी जैसे त्योहारों में भी ये गुड़िया बनाई जाती थीं. लेकिन प्लास्टिक के खिलौनों और बदलते समय ने इस परंपरा को लगभग खत्म कर दिया. नमिता ने इसे दोबारा शुरू करने का बीड़ा उठाया. वे कहती हैं, “मुझे लगा कि अगर मैं इस परंपरा को नहीं बचाऊंगी, तो यह हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी. बिहार में अब यह परंपरा लगभग गायब हो चुकी है, लेकिन मैंने इसे फिर से जिंदा किया.”

नमिता ने गुड़िया के डिजाइन में थोड़ा बदलाव किया, ताकि यह नई पीढ़ी को भी पसंद आए. उनकी चट्ट वाली गुड़िया, जिसमें गुड़िया के हाथ में सूप होता है, और मां-बेटी या दुल्हा-दुल्हन की जोड़ी वाली गुड़िया को लोग खूब पसंद कर रहे हैं. ये गुड़िया पर्यावरण के अनुकूल हैं, क्योंकि इन्हें पुराने कपड़ों से बनाया जाता है. नमिता ने पटना के NIFT में बच्चों को इस कला के बारे में बताया, और उनकी गुड़िया अब खिलौने के रूप में भी इस्तेमाल हो रही हैं.

पुरस्कार और पहचान
नमिता के प्रयासों को बिहार सरकार ने भी सराहा. 2023 में, उन्हें हस्तशिल्प के लिए बिहार राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया. 2020 में इंडिया टॉय फेयर में उनकी गुड़िया को चुना गया, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसकी तारीफ की. नमिता की गुड़िया अब बिहार के खादी मॉल, संग्रहालयों और दिल्ली के हाट में बिकती हैं. वे बताती हैं, “मेरी गुड़िया की मांग इतनी बढ़ गई है कि मैं ऑर्डर पूरे करने में मुश्किल महसूस करती हूं. कभी-कभी एक दिन में 10 गुड़िया तक बिक जाती हैं.”

नमिता की गुड़िया अब न केवल बिहार, बल्कि देशभर में मशहूर हो रही हैं. लोग उनके फोन नंबर और ईमेल के जरिए ऑर्डर देते हैं. उनकी चट्ट वाली गुड़िया और मां-बेटी की जोड़ी को लोग खूब पसंद कर रहे हैं. यह गुड़िया न केवल सांस्कृतिक महत्व रखती हैं, बल्कि बच्चों और बड़ों को अपनी खूबसूरती से लुभाती हैं. नमिता कहती हैं, “मुझे गर्व है कि मेरी गुड़िया अब जीके (जनरल नॉलेज) में भी पूछी जा रही हैं. लोग जानना चाहते हैं कि कन्यापुत्री गुड़िया किस जिले से है और यह क्या दर्शाती है.”

चुनौतियां भी आईं जीवन में 
नमिता की राह आसान नहीं थी. वे कहती हैं, “लोगों को इस परंपरा की अहमियत समझाना मुश्किल था. शुरू में मुझे लगा कि यह काम शायद नहीं चलेगा.” लेकिन बिहार सरकार, खादी मॉल, और मीडिया के समर्थन ने उनके काम को आसान बनाया. उनके पति, देवर, और देवरानी ने भी उनका पूरा साथ दिया. नमिता बताती हैं, “मेरे परिवार का सपोर्ट मेरे लिए सबसे बड़ा हौसला है. मेरे बच्चे भी इस काम में रुचि ले रहे हैं.”

नमिता का सपना है कि कन्यापुत्री गुड़िया नई पीढ़ी तक पहुंचे. वे स्कूलों और कॉलेजों में वर्कशॉप कर रही हैं, ताकि बच्चे इस कला को सीखें. वे कहती हैं, “मैं चाहती हूं कि मेरे बच्चे और गांव की नई पीढ़ी इस परंपरा को अपनाए. यह सिर्फ गुड़िया नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति और रिश्तों की कहानी है.” नमिता की मेहनत ने न केवल एक परंपरा को जिंदा किया, बल्कि बिहार की सांस्कृतिक विरासत को देश और दुनिया तक पहुंचाने का रास्ता खोला.

 

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