नवरात्र के दिनों में हम देवी के उन रूपों की आराधना करते हैं जो साहस, करुणा और शक्ति का प्रतीक हैं. लेकिन देवी का स्वरूप केवल मंदिरों और मूर्तियों में ही नहीं बसता, बल्कि वह उन स्त्रियों में भी जीवित है जो मुश्किल परिस्थितियों में भी अडिग खड़ी रहती हैं. तेलंगाना के मखनूर गांव से गूंजती संगम रेडियो की धुन उसी नारी शक्ति का जीवंत प्रमाण है. यहां दलित महिलाएं अपने दम पर न सिर्फ समाज की आवाज बनी हैं, बल्कि बदलाव की दिशा भी तय कर रही हैं.
संगम रेडियो, गांवों की आवाज
साल 2008 में शुरू हुआ यह देश का पहला कम्युनिटी रेडियो आज 100 से अधिक गांवों तक अपनी गूंज पहुंचा रहा है. इसमें न तो बड़े स्टूडियो हैं और न ही आधुनिक उपकरणों की चमक-दमक. एक साधारण इमारत, कुछ माइक्रोफोन और बेसिक मिक्सिंग डेस्क के सहारे यह रेडियो किसानों, महिलाओं और बच्चों के लिए उम्मीद और संवाद का सबसे भरोसेमंद जरिया बन चुका है.
रेडियो की असली धुरी
45 वर्षीय मसनगरि नरसम्मा और 44 वर्षीय अल्गोले नरसम्मा इस रेडियो की रीढ़ हैं. गांव के लोग इन्हें प्यार से "जनरल" भी कहते हैं. ये दोनों महिलाएं एंकरिंग करती हैं, खेतों और गांव के मुद्दे उठाती हैं, लोगों के इंटरव्यू लेती हैं, कार्यक्रमों की एडिटिंग करती हैं और जरूरत पड़ने पर तकनीकी खराबी दूर करने के लिए रेडियो टॉवर पर भी चढ़ जाती हैं.
उनकी बहादुरी और समर्पण इस रेडियो को एक नई पहचान देता है. जहां मुख्यधारा का मीडिया अक्सर गांवों और हाशिये की कहानियों को नज़रअंदाज़ कर देता है, वहीं संगम रेडियो उन आवाज़ों को मंच देता है जो कहीं दबकर रह जातीं.
बदलाव की राह पर महिलाएं
गांव की महिलाएं बताती हैं कि संगम रेडियो ने उन्हें चुप्पी तोड़ने और बदलाव की ओर कदम बढ़ाने की हिम्मत दी है. अब वे खुलकर अपने विचार रखती हैं, अपने अधिकारों की बात करती हैं और समस्याओं का समाधान खोजने में भी सक्रिय रहती हैं.
मसनगरि नरसम्मा कहती हैं कि यह रेडियो हमारा हथियार है. इसके जरिए हम अपनी सच्चाई बोलते हैं. यह बात केवल एक वाक्य नहीं बल्कि नारी शक्ति का सार है. सच बोलने का साहस, अपने हालात बदलने की ताकत और दूसरों को रास्ता दिखाने का आत्मविश्वास.
नवरात्र पर खास संदेश
संगम रेडियो की कहानी हमें यह याद दिलाती है कि नारी शक्ति केवल पूजा की मूर्तियों में नहीं, बल्कि उन साधारण और साहसी स्त्रियों में भी है जो अपने आसपास के समाज को बदलने का बीड़ा उठाती हैं. नवरात्र के इस पर्व पर यह संदेश और भी प्रासंगिक हो जाता है. जब महिलाएं अपनी आवाज खुद बनती हैं, तो उनकी गूंज किसी देवी के आशीर्वाद से कम नहीं होती.