हंसते-खेलते पढ़ाई करते बच्चों को देखकर शायद आपको ये लगे की ये तस्वीरें किसी स्कूल की है.ये तस्वीरें स्कूल की तो हैं लेकिन ये स्कूल न तो सरकारी है और न ही प्राइवेट.दरअसल यह एक छोटी सी कोशिश है उन बच्चों को पढ़ाने लिखाने कि जिनके माता-पिता मज़दूरी करते हैं. ये बच्चे भी जब तक यहां पर नहीं पहुंचे थे तब तक दिनभर मज़दूरी करते थे, उनके नसीब में शिक्षा नहीं थी.
बच्चों को इस क्लास रूम तक लाने में सबसे बड़ी भूमिका रही है गाज़ियाबाद की तरुणा की. तरुणा एक सरकारी कर्मचारी हैं और बैंक में नौकरी करती हैं.उन्होंने नौकरी करने के साथ ही यह तय कर लिया था कि ऐसे बच्चों तक शिक्षा ज़रूर पहुंचानी है जिनके लिए स्कूल पहुंचना आसान नहीं है.
उम्र 10 साल लेकिन ABCD भी नहीं आती
तरुणा बताती हैं कि इनमें कई बच्चे ऐसे हैं जिनकी उम्र ज़्यादा है लेकिन उन्हें ABCD भी नहीं आती. ऐसे में इन बच्चों का स्कूल में भी एडमिशन नहीं हो पाता. इसलिए हम पहले उन्हें यहां पढ़ाते हैं फिर स्कूल में एडमिशन के लिए कोशिश करते हैं. तरुणा बताती हैं कि जब हम लोगों ने झुग्गी झोपड़ी में जाना शुरू किया तो बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पड़ा. शुरुआत में जब हम लोग झुग्गियों में पहुंचे और महिलाओं से बात की तब महिलाएं बहुत ज़्यादा बात करने में इंटरेस्टेड नहीं होती थी. कई महिलाएं तो कहती थी कि हां ठीक है जो सामान देना है दो और जाओ,ज्ञान मत दो.लेकिन जब एक बार बच्चों के पेरेंट्स हमारी मंशा को समझ गए तो उन सब ने भी हमारा बहुत सहयोग किया.
सैलरी का बड़ा हिस्सा इसी काम में जाता है
तरुणा कहती हैं कि मैं जिस घर से आती हूं मैंने कभी इस तरह से बच्चों को झुग्गियों में काम करते हुए या कूड़ा बिनते हुए नहीं देखा था. इनमें से अधिकतर बच्चे पहले कूड़ा बिना करते थे और उनका सिर्फ एक ही मकसद होता था कि नास्ता और खाने का इंतज़ाम हो जाए. नौकरी लगने के बाद जब मेरे सामने ऐसे बच्चे आए तो मुझे लगा कि इनके लिए कुछ तो करना चाहिए. इसके बाद उन्होंने अपने दोस्तों की एक टीम बनायी और इस काम में लग गईं. वो ये जानती थीं कि बच्चों को किताब से पहले खाना चाहिए इसलिए सेंटर में खाने का इंतज़ाम भी किया गया. बच्चे हर रोज यहां रात का खाना खाकर ही जाते हैं. इस काम में मदद करने वाले तरुणा के कई साथी सरकारी कर्मचारी ही हैं और हर कोई अपने महीने की सैलरी से कम से कम 30-40 पर्सेंट इस काम में लगाते हैं.
पैसा नहीं हम लोगों से टाइम डोनेशन मांगते हैं
साल 2013 से तरुणा ये एक काम करना शुरू किया था. 2015 में तरुणा और उनके साथियों ने मिलकर निर्भेद नाम का एक NGO बनाया. तरुणा बताती हैं कि निर्भेद से कई सरकारी कर्मचारी और रिटायर्ड लोग जुड़े हुए हैं. बड़ी बात यह है कि ये NGO किसी से भी पैसे नहीं लेता है. तरुणा कहती हैं कि हम मदद तो लेते हैं लेकिन किसी से पैसे नहीं लेते हैं कई लोग इन बच्चों के लिए हर रोज खाने का इंतज़ाम करते हैं तो कोई बच्चों के लिए कॉपी किताब ड्रेस और स्टेशनरी का इंतज़ाम करते हैं. हर साल हम कई बच्चों का एडमिशन स्कूलों में करवाने की कोशिश करते हैं उस वक़्त हमें थोड़े ज़्यादा पैसों की ज़रूरत होती है तो हम सब अपनी सैलरी का बड़ा हिस्सा इसी काम में लगा देते हैं. तरुणा कहती हैं कि हम लोगों से टाइम डोनेट करने के लिए कहते हैं अगर किसी के पास वक़्त है तो वो यहां आकर इन बच्चों को पढ़ाए यही हमारी सबसे गुज़ारिश होती है.
स्कूल बनाने का है सपना
तरुणा के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले सुशील कुमार मीणा भी रेलवे में एक सरकारी कर्मचारी हैं वो कहते हैं कि हमारा सपना है कि हम एक दिन ऐसा स्कूल बनाएं जिसमें ऐसे सभी बच्चों को शिक्षा मिल सके जो पढ़ाई करने के लिए नहीं जा पाते. हम बच्चों को खाना इसलिए खिलाते हैं ताकि उनके भूख उनकी पढ़ाई के बीच में न आने पाए.यहां आने वाले बच्चे भी ख़ुद बताते हैं कि कैसे उसकी जिंदगी यहां आकर बदल गई. अधिकतर बच्चे ऐसे हैं जिनके माता पिता मजदूर है या फिर छोटा मोटा काम करते हैं. एक बच्ची बताती हैं कि उनके पैरेंट्स ने कभी मुझे स्कूल भेजने के बारे में सोचा भी नहीं था. बच्चे कहते हैं कि अगर यहां पढ़ने का मौका नहीं मिला होता तो शायद हम पढ़ ही नहीं पाते.
तरुणा और उनकी टीम को इस काम के लिए कई बार तारीफ मिल चुकी है. खुद राष्ट्रपति ने भी उन्हें बुलाया था और उनसे बात की थी. इस विमेंस डे पर हम उनके जैसी महिलाओं को सलाम कर रहे हैं जिन्होंने ऐसे बच्चों की क़िस्मत बदल दी जिन्होंने जीवन में कभी अच्छे बदलाव के बारे में शायद सोचा भी नहीं था. अब यही बच्चे देश का नाम रोशन करने की बातें करते हैं.