नवरात्र का आठवाँ दिन पूर्वसंचित पापों को धोने वाली पराम्बा के आठवें रूप महागौरी की स्तुति और उपासना का दिन है. भक्तों के सभी कल्मष(पाप) धोने वाली, अमोघ-शक्ति प्रदात्री, आशुफलदायिनी ‘महागौरी’ का शाब्दिक अर्थ है– ‘महती गौर वर्ण की’.
ऐसी आश्वस्ति है कि शिव को पति के रूप में पाने की तपस्या में आदिशक्ति साँवल-वर्णी हो गईं. महादेव ने प्रसन्न होकर उनके इस स्वरूप को दिव्य गौर वर्ण युक्त कर दिया. ऐसे भी समझ सकते हैं कि जब साधना सिद्ध होती है, तब तन दीप्त होता है, चरित्र में औज्ज्वल्य आता है. ग्रंथों में माता की इस गौरता की उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से की गई है. माता का परिधान और आभूषण भी श्वेत-शुभ्र ही दिखाया गया है, जो किंचित् अंदर की ज्योति के प्राकट्य का बाह्य निदर्शन है.
एक विस्मित करने वाला तथ्य है कि महागौरी की आयु मात्र आठ वर्ष की मानी गई है– 'अष्टवर्षा भवेद् गौरी.' शायद यह प्रतीक है कि साधना फलीभूत होने पर शक्ति भी बालिका की तरह निष्पाप और पवित्र हो जाती है.
चित्र में देखें, तो माता श्वेत-वृषभ पर आरूढ हैं. इसका क्या अर्थ है? इसके लिए हमें यह जानना चाहिए कि वृषभ का अर्थ क्या है और यह किसको रूपायित करता है. संस्कृत शब्दकोशों के अनुसार वृषभ के कई अर्थ हैं, यथा:
1. गौ का नर
2.धर्म जिसके चार पैर माने गए हैं
3. ग्यारहवें मन्वंतर के इन्द्र का नाम
4.विष्णु का एक नाम (विष्णु को वृषभेक्षण भी कहा जाता है!)
5. साहित्य में वैदर्भी रीति का एक भेद. इसी अर्थ में वृष 'वेद' का भी पर्यायवाची है.
6. एक तीर्थ.. इत्यादि.
अब सामान्य बुद्धि से यह समझा जा सकता है कि यहाँ वृषभ धर्म का प्रतीक है. इसका श्वेत वर्ण औज्ज्वल्य एवं औदात्य को अभिव्यंजित करता है.
ध्यातव्य है कि चार भुजाओं वाली माँ का दाहिना हाथ अभय मुद्रा में है. शक्ति जब साधित हो जाती है तब अभय घटित होता है. विदित हो कि 'अभयं सर्वभूतानां' और 'अद्वेष्टा सर्वभूतानां' सनातन संस्कृति में दो अतीव समादृत आर्ष-उद्घोष हैं. इन दोनों की संप्राप्ति हेतु साधना का साफल्य आवश्यक है.
माँ गौरी के नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल दिखया गया है. त्रिशूल को ग़ौर से देखें, तो तीन शूल एक दंड पर टिके हैं. ये तीन शूल सत्त्व, रजस् और तमस् के प्रतीक हैं, जबकि दंड आर्जव(सीधापन या ऋजुता), मार्दव, 'साधना' और 'संतुलन' को दर्शाता है. यह संयोग नहीं है कि सबसे बड़े योगी या 'आदियोगी' शिव के साथ सदा त्रिशूल दिखाया जाता है, जिसका दंड उनके हाथ में होता है. यह दर्शाता है कि योग की शक्ति से आदियोगी ने तीनों गुणों को साध लिया, उनमें संतुलन स्थापित किया.
इसके अलावा, ऊपरवाले बाएँ हाथ में डमरू है. डमरू भी गायन, लयबद्धता, स्वर-संगति और संगीत को दर्शाता है. भाषा-विज्ञान में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि संस्कृत का प्राणतत्त्व (इसकी वर्णमाला) माहेश्वर-सूत्र से उद्भूत हुआ है, जो कि शिव की डमरू के बजने से निकला है. आज भी साधनारत अवस्था में एकनिष्ठ भाव से डमरू की ध्वनि सुनें, आभ्यंतर में कुछ प्रतिध्वनित-प्रतिनिनादित होने लगेगा.
माता के नीचे के बाएँ हाथ को वर-मुद्रा दिखाया गया है. जब वर का मूल अर्थ श्रेष्ठ है। जब हम साधना से वर(श्रेष्ठ) हो जाते हैं, तो परम शक्ति हमें दान भी 'वर' (श्रेष्ठ) ही देती है, जिसे वरदान(श्रेष्ठदान) कहते हैं. ध्यातव्य है कि इस रूप में साधक की शक्ति साधित होकर दिव्य हो जाती है. किञ्चित् यही कारण है कि माता का यह रूप अत्यंत शांत और सर्वांग-सौम्य है.
साधक के दृष्टिकोण से देखें, तो साधना सफलीभूत हुई, अंदर का कमल विकसित हुआ और ज्योत जली जिससे रंग स्याह से सफेद हो गया. एक प्रतीक यह भी कि साधक के सभी दुःख-दैन्य को हरने वाली माता उनके जीवन में सिर्फ उजाला ही उजाला करती हैं.
जो शब्द-साधना करते हैं, उनके लिए महागौरी की आराधना का मन्त्र है –
श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।
(लेखक: कमलेश कमल)
(कमलेश कमल हिंदी के चर्चित वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी हैं. कमल के 2000 से अधिक आलेख, कविताएं, कहानियां, संपादकीय, आवरण कथा, समीक्षा इत्यादि प्रकाशित हो चुके हैं. उन्हें अपने लेखन के लिए कई सम्मान भी मिल चुके हैं.)
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