Diwali 2025: दिवाली, दीपावली, दीपोत्सव या फिर दीप-पर्व.. आखिर क्या है पर्व का सही नाम? क्या है पर्व की असली महिमा?

दिवाली के पर्व को कई नामों से जाना जाता है जैसे दीपोत्सव, दीपावली और दीप-पर्व, लेकिन सवाल उठता है कि क्या अलग-अलग नामों से बुलाने पर पर्व की महिमा बदल जाती है?

Diwali 2025
gnttv.com
  • नई दिल्ली,
  • 19 अक्टूबर 2025,
  • अपडेटेड 2:01 PM IST

दीपावली, दीप-पर्व अथवा दीपोत्सव—सब नाम एक ही सच्चाई की ओर संकेत करते हैं: ज्ञान-ज्योति द्वारा आत्म-ज्योति को जगाने का पर्व. यह केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि आत्मप्रकाश की यात्रा है. आध्यात्मिक दृष्टि से दीप का जलना “तमसो मा ज्योतिर्गमय” की युगों-युगों पुरानी प्रार्थना को साकार करता है. ‘दीप’ देह है, ‘तेल’ आत्मा है, ‘बाती’ चेतना है, और ‘ज्योति’ आत्मज्ञान—जो अज्ञान और मिथ्याज्ञान के तम को दूर करती है. मानव तन जब ‘माटी का तन’ कहा गया, तो यह स्वाभाविक है कि दीपावली के दीप भी मिट्टी के ही बनाए जाते हैं— ताकि बाहरी ज्योति के माध्यम से हम भीतर की ज्योति को पहचान सकें.

सनातन परंपरा मानती है कि सबसे महत्त्वपूर्ण दीप हम स्वयं हैं. आत्मा के भीतर निहित यह ज्योति ही निःश्रेयस की साधना का लक्ष्य है. इसी भाव को शास्त्रों ने इस प्रकार अभिव्यक्त किया है—
“दीप ज्योति परं ज्योति, दीप ज्योति जनार्दनः.
 दीपो हरतु मे पापं, दीपज्योति नमोऽस्तुते॥
 शुभं करोति कल्याणं, आरोग्यं सुखसंपदः.
 द्वेषबुद्धि विनाशाय, आत्मज्योति नमोऽस्तुते॥
 आत्मज्योति प्रदीप्ताय, ब्रह्मज्योति नमोऽस्तुते.
 ब्रह्मज्योति प्रदीप्ताय, गुरुज्योति नमोऽस्तुते॥”

अर्थात् दीपज्योति ही परम-ज्योति है, वही जनार्दन है और वही पापों का हरण करने वाली है. उसी से शुभ, आरोग्य, सुख-संपदा की प्राप्ति होती है और द्वेष-बुद्धि का नाश होता है. आत्म-ज्योति के प्रदीप्त होने के लिए ब्रह्म-ज्योति को नमन और ब्रह्म-ज्योति के साक्षात्कार हेतु गुरु-ज्योति को नमन. ‘गु’ अर्थात् अंधकार और ‘रु’ अर्थात् प्रकाश—अतः गुरु वही जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए.

विचारणीय है कि दीपावली का पर्व हो अथवा “ज्योति से ज्योति जगाते चलो” का गान— दोनों का सार एक ही है: अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ना. भारतीय संस्कृति में ‘ज्योति’ केवल भौतिक प्रकाश नहीं, बल्कि ज्ञान, चेतना और जीवन का पर्याय है. ‘आत्म-ज्योति’, ‘परम-ज्योति’, ‘अखंड-ज्योति’, ‘ज्योतिर्लिंग’, ‘ज्योतिर्विज्ञान’—सबमें एक ही सत्ता का प्रसार है.

‘ज्योति’ शब्द सुनते ही हमारे भीतर भिन्न-भिन्न स्तरों पर अवधारणाएँ जाग्रत होती हैं. सामान्य व्यक्ति इसे मात्र रोशनी मानता है, पर भारतीय मनीषा ने इसे ब्रह्म के अनुभव से जोड़ा है. हमारे ऋषि-मुनियों ने आत्म-तत्त्व के उद्घाटन में ‘ज्योति’ को केंद्र बनाया. अग्नि से सृष्टि की उत्पत्ति मानी गई और अग्नि स्वयं ‘ज्योति’ का स्वरूप है. ऋग्वेद कहता है कि साधना का लक्ष्य ‘अभय-ज्योति’ की प्राप्ति है—
“हे आदित्य! मुझे दिशाओं का ज्ञान नहीं, मैं मूढ़ और हतोत्साहित हो गया हूँ. यदि आपकी कृपा है, तो मैं अवश्य ही अभय-ज्योति को प्राप्त कर सकता हूँ.” (ऋग्वेद 2.27.11)

उपनिषदों में ब्रह्म को ‘परम-ज्योति’ कहा गया है. सत्य की कोई भी खोज अंततः ज्योति की ओर ही ले जाती है. राजा जनक के प्रश्न पर याज्ञवल्क्य ने कहा—“ज्योति ही आत्मा है.” उन्होंने बताया कि दिन में हम सूर्य की ज्योति से देखते हैं, रात में चंद्रमा से, और जब आँखें बंद होती हैं, तो शब्दों की ज्योति से. जब शब्द भी न हों, तब जो अनुभव होता है, वह आत्मा की ज्योति है—
“योयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृदयं तज्योतिः पुरुषः.”

सभी धर्मों में ज्योति की महत्ता को स्वीकार किया गया है. हिंदू वेदांत में ‘ज्योति’, इस्लाम में ‘नूर’, ईसाई धर्म में ‘डिवाइन लाइट’, सिख परंपरा में ‘ज्योति जोत समाना’—सब एक ही दैवीय चेतना के प्रतीक हैं; भेद केवल भाषा और दृष्टि का है. यही कारण है कि शास्त्र कहते हैं—
“यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्.
 लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति॥”

वैज्ञानिक दृष्टि से भी ‘ज्योति’ ऊर्जा का ही रूप है—विद्युत-चुंबकीय विकिरण का आधारभूत कण फोटॉन (photon). पृथ्वी पर जीवन के हर रूप का पोषण इसी से संभव है. पादपों में प्रकाश-संश्लेषण के माध्यम से अन्न का निर्माण ‘ज्योति’ के बिना असंभव है—यह सर्जन का आधार है.

यहाँ थोड़ी शाब्दिक यात्रा करें: जिसमें चमक हो उसे द्युतिमान कहते हैं; सूर्य, चंद्र आदि ज्योतिष-पिंड जो प्रकाश करते हैं, उन्हें द्युतिकर कहते हैं. तारे-सूर्य आदि प्रकाशमान पदार्थों के लोक का एक नाम द्युलोक भी है. सभी ‘द्युति’ या ज्योति को धारण करने के कारण विष्णु को द्युतिधर भी कहते हैं.

व्याकरण की दृष्टि से ‘ज्योति’ शब्द ‘द्युत्’ धातु से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है ‘चमकना’. ‘द्युत्’ से ‘द्युति’ बना—अर्थात् लावण्य, प्रकाश और यही ‘द्युत्’ रूपांतरित होकर ‘ज्योति’ बना. 

व्याकरण के उत्तुंग शिखर से उतर लोक-जीवन में झाँकें, तो ज्योति-कलश का स्थापन, संध्या-आरती, अखंड-ज्योति आदि की मान्यताएँ जन-जीवन में ‘ज्योति’ की महत्ता रेखांकित करती हैं. सर्वशक्तिमान, जगदीश्वर शिव की स्वयंभू ज्योति की पहचान के रूप में भारतवर्ष की पुनीत धरा पर बारह ज्योतिर्लिंग तो ‘ज्योति’ की महिमा के सबसे बड़े संकेत हैं ही—जो यह दर्शाते हैं कि परमात्मा सर्वत्र एक ही रूप में प्रकाशमान है.
महत्त्वपूर्ण यह है कि विज्ञान और अध्यात्म—दोनों ही ‘ज्योति’ की अनश्वरता को स्वीकारते हैं. आधुनिक भौतिकी कहती है: ऊर्जा का नाश नहीं होता, केवल रूपांतरण होता है. यही बात गीता के इस श्लोक में कही गई—
“नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः.
 न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः॥” (द्वितीय अध्याय, श्लोक 23)

योग-साधना में मानव चेतना के केंद्र आज्ञा-चक्र में स्थित दिव्य-नेत्र—ज्योति का ही प्रतीक है. “अप्पदीपो भव” (स्वयं दीप बनो)—बुद्ध का यह उपदेश हो या “ज्योतिष्मान भव”—आर्ष ऋषियों का आशीर्वचन, दोनों आत्म-प्रकाश की ही पुकार हैं.

साकार उपासना में आराध्य-प्रतिमा के चारों ओर प्रदीप्त प्रभामंडल उसी ज्योतिर्मय सत्ता का संकेत है और निराकार-उपासक भी अपने ध्यान का केंद्र ‘ज्योति’ को ही मानते हैं. तप की अग्नि से जब अंतर्ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित होती है, तभी कहा जाता है—“मेरे मन के अंध-कमल में ज्योतिर्मय उतरो.”

गहराई से देखें, तो समस्त अध्यात्म तीन तत्त्वों का संवाद है—ज्योति, शब्द और आत्मा. शब्द-ब्रह्म साधना की प्रक्रिया में ज्योति-स्वरूप परब्रह्म में परिणत होता है. आत्मा का परमात्मा से मिलन, आत्म-ज्योति का दिव्य-ज्योति से सम्मिलन—एक ही सत्य के भिन्न रूप हैं.

ज्योतिषीय दृष्टि से भी “ज्योतिरेव ज्योतिषाम्”—अर्थात् ज्योति ही ज्योतिष है. उपनिषदों में ब्रह्म को “सत्यस्य सत्यम्” के साथ “ज्योतिषाम् ज्योति” कहा गया है. वेद की आँखों के रूप में ज्योतिष का उल्लेख इसी कारण हुआ. सूर्य की अरुण-ज्योति, दिनकर-ज्योति या विश्व-ज्योति—सबमें उस मूल तेजस् का अंश है. ‘ज्योति’ से बने शब्दों की व्युत्पत्ति भी विस्तृत है—ख-ज्योति, तमो-ज्योति, सुवर्ण-ज्योति, स्वयम्-ज्योति, अखंड-ज्योति…—सब एक ही सत्ता के विविध आयाम हैं. 

लोक-जीवन में यही ‘ज्योति’ आरती, अखंड दीपक, दीप-दान, दीप-शिखा और दीपोत्सव के रूप में विराजमान है. भारत की पवित्र भूमि पर बारह स्वयंभू ज्योतिर्लिंग इसी ज्योति की अखंड उपस्थिति के प्रतीक हैं—जो यह दर्शाते हैं कि परमात्मा सर्वत्र एक ही रूप में प्रकाशमान है.

निष्कर्षतः, ‘ज्योति’ की सत्ता अपरिमित और अनंत है; जीवन का कोई आयाम इससे अछूता नहीं. यह हम पर निर्भर करता है कि हम बाहरी दीपक से भीतर की लौ तक पहुँचते हैं या नहीं. दीपावली हमें इसी आंतरिक यात्रा की याद दिलाती है—अंधकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर.

इसी भाव के साथ—शुभ दीपावली! 

(लेखक: कमलेश कमल) 
(कमलेश कमल हिंदी के चर्चित वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी हैं. कमल के 2000 से अधिक आलेख, कविताएं, कहानियां, संपादकीय, आवरण कथा, समीक्षा इत्यादि प्रकाशित हो चुके हैं. उन्हें अपने लेखन के लिए कई सम्मान भी मिल चुके हैं.)

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