यह प्रस्तुति भगवान शिव के लौकिक और आध्यात्मिक स्वरूप की विस्तृत व्याख्या करती है. आमतौर पर शिव के भाल पर चंद्रमा, जटा में गंगा, ललाट पर तीसरा नेत्र, गले में गरल और सर्पों की माला, बागंबर, डमरू तथा त्रिशूल जैसे लौकिक स्वरूप की आराधना की जाती है. हालांकि, शिव का आलौकिक व आध्यात्मिक स्वरूप अत्यंत गुण है, क्योंकि शिव सृष्टि की अनादि चेतना हैं. हमारे भीतर की चेतना ही शिव तत्व है. आदिगुरु शंकराचार्य ने अपनी रचना निर्वाण अष्टकम में कहा है: "मनो बुद्धि, अहंकार चित्तानिनाहम् नचा श्रोत्र जिभवे नचा घ्राण नृत्य. नचा व्योम, भूमि न तेजो, न वायु चिदानंद रूप शिओ हम शिओ हम" इसका अर्थ है कि मनुष्य शुद्ध चेतना, अनादि अनंत शुभ है. यह प्रस्तुति शिव के प्रत्येक लौकिक प्रतीक के पीछे छिपे गूढ़ आध्यात्मिक विज्ञान को भी उजागर करती है, जैसे मस्तक पर द्वितीय का चंद्रमा मन पर नियंत्रण का संदेश देता है, जटा में गंगा परम तत्व के प्रति समर्पण का भाव दर्शाती है, तीसरा नेत्र अंतर्दृष्टि और वासना पर विजय का प्रतीक है, गले में गरल दूसरों के सुख के लिए कष्ट सहने की प्रेरणा देता है, और डमरू सृजन, पालन व संहार के शाश्वत नियम का निरूपण करता है.