पाकिस्तान की सियासत में यह सवाल नया नहीं है कि हुकूमत आखिरकार किसके हाथ में है. चुनी हुई सरकार के या सेना के. हाल के महीनों में पाक आर्मी चीफ जनरल आसिम मुनीर की कूटनीतिक गतिविधियों में बढ़ती मौजूदगी ने इस बहस को और गहरा कर दिया है. विशेषज्ञों का मानना है कि यह सिर्फ औपचारिकता नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति है जिसके जरिये सेना अपनी पकड़ को और मजबूत बना रही है.
शरीफ-मुनीर की संयुक्त मौजूदगी
प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने हाल ही में कई अहम विदेशी दौरे किए, जिनमें आर्मी चीफ मुनीर लगातार उनके साथ नजर आए. इससे साफ संदेश गया कि पाकिस्तान की कूटनीति में सेना की भूमिका अब प्रत्यक्ष हो चुकी है. सऊदी अरब, ब्रिटेन और अमेरिका के दौरे में मुनीर की सक्रिय मौजूदगी नागरिक सरकार की सीमित ताकत और सेना के बढ़ते प्रभाव को उजागर करती है.
सऊदी अरब में रक्षा समझौता
शहबाज शरीफ और मुनीर ने रियाद में क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान से मुलाकात की. इस मुलाकात के दौरान एक अहम रक्षा समझौते को अंतिम रूप दिया गया. समझौते के अनुसार, किसी एक देश पर हमला दोनों देशों पर हमला माना जाएगा. यह कदम पाकिस्तान की कूटनीतिक नीतियों में सेना की सीधी भागीदारी का सबूत है.
अमेरिका दौरे की अहमियत
17 से 26 सितंबर के बीच शरीफ का अमेरिका दौरा और भी खास रहा. संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) के दौरान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और मुस्लिम देशों के नेताओं के साथ बैठकों में आर्मी चीफ मुनीर की मौजूदगी ने उनके कद को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और ऊंचा कर दिया. यह वही मुनीर हैं जिन्हें ट्रंप ने पहले भी व्हाइट हाउस में बुलाकर मुलाकात की थी. जो पाकिस्तान सेना प्रमुख के लिए असामान्य और असाधारण घटना मानी गई.
चीन में रणनीतिक बातचीत
शंघाई सहयोग संगठन (SCO) सम्मेलन में भी मुनीर प्रधानमंत्री शरीफ के साथ नजर आए. राष्ट्रपति शी जिनपिंग से हुई बातचीत रक्षा मुद्दों से आगे बढ़कर राजनीतिक और रणनीतिक पहलुओं तक गई. इस मुलाकात ने और स्पष्ट कर दिया कि पाकिस्तान की विदेश नीति पर अब सेना की पकड़ पहले से कहीं ज्यादा मजबूत है.
नागरिक सरकार या सेना, असली ताक़त किसके पास?
हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर शरीफ के साथ मुनीर की मौजूदगी यह संदेश देती है कि पाकिस्तान की विदेश नीति और रणनीतिक दिशा तय करने में सेना की दखल सबसे ऊपर है. यह सिलसिला न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान की छवि को प्रभावित कर रहा है, बल्कि घरेलू राजनीति में भी इस धारणा को मजबूत करता है कि असली ताकत नागरिक नेतृत्व नहीं बल्कि सेना के हाथ में है.