

गोंडा के रहने वाले उमेश कुमार शुक्ला ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा पान बेचते हुए या मज़दूरी करते हुए गुज़ारा है. वह अपने बेटे रूद्र के सपनों को पूरा करने के लिए बहुत कुछ तो नहीं कर सकते थे, लेकिन उसे उड़ने के लिए खुला आसमान ज़रूर दे सकते थे. उन्होंने ऐसा ही किया. अपने पिता के समर्थन और अपने हौसले के बलबूते रूद्र ने नीट-यूजी परीक्षा में सफलता हासिल कर अपने गांव का नाम रोशन कर दिया है.
वेटर की नौकरी के साथ की पढ़ाई
रूद्र के पिता नीट की तैयारी के लिए उसका खर्चे नहीं उठा सकते थे. ऐसे में उसने दिल्ली में बाकायदा वेटर का काम किया और कोचिंग सेंटर का खर्च उठाया. रुद्र शुक्ला ने अपने दूसरे अटेम्प्ट में नीट में सफलता हासिल की है. परीक्षा में 537 नंबर लाने वाले रूद्र की 19141वीं रैंक आई है. वह अब न्यूरो सर्जन बनना चाहते हैं.
रूद्र बताते हैं, "जब मैं नीट की तैयारी कर रहा था तो दिल्ली में एक कोचिंग ने मुझे शहर आने के लिए कहा. उन्होंने कहा कि मैं उनका टेस्ट ले सकता हूं और उनके यहां नीट की तैयारी कर सकता हूं. मैं वहां कुछ दिन अपने रिश्तेदारों के यहां रहा. कुछ दिन बाद मैंने एक कमरा किराए पर लेकर रहने का फैसला किया. अपना खर्चा उठाने के लिए मैंने केटरिंग सर्विस में काम शुरू किया."
वह बताते हैं, "उस काम के मुझे एक दिन के 500 रुपए मिलते थे. वह काम भी रोज़ नहीं चलता था. जो भी पैसों का इंतज़ाम होता था, उससे मैं किराया भरता था. नोट्स और किताबें खरीदता था. जब मैं वेटर का काम करता था तो देखता था कि कार्यक्रमों में डॉक्टर-इंजीनियर आते थे. उन्हें देखकर मुझे लगता था कि एक दिन मुझे भी इन जैसा बनना है. इससे मुझे प्रेरणा मिलती थी."
पिता मजदूर, मां आशा वर्कर
इंद्रापुर गांव निवासी उमेश कुमार शुक्ला लंबे वक्त तक पान की दुकान चलाते हैं. जब उनकी दुकान अच्छी नहीं चलती तो वह मनरेगा में मजदूरी और शहर की दूसरी दुकानों में काम करके अपने परिवार का खर्च उठाते हैं. उनकी मदद करने के लिए उनकी पत्नी स्वास्थ्य विभाग में आशा वर्कर के तौर पर काम करती हैं. उमेश ने बहुत मशक्कत से रूद्र को शहर के कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ाया था.
रूद्र का कहना है कि मौका मिला तो वह सिविल सेवा की परीक्षा भी देना चाहेंगे. उनका कहना है कि पढ़ाई में गरीबी कभी बाधा नहीं बनती. बस इंसान को अपने लक्ष्य के प्रति वफादार रहकर खूब मेहनत करके सफलता हासिल करने पर ध्यान देना चाहिए.