
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने मंगलवार को घोषणा की है कि रानी दुर्गावती का शौर्य अब स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा. सीएम यादव ने कहा कि रानी दुर्गावती का गौरवशाली इतिहास स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने से नई पीढ़ी उनके योगदान को स्मरण रखेगी और प्रेरणा लेगी.
दरअसल, मंगलवार शाम को मुख्यमंत्री मोहन यादव रानी दुर्गावती के बलिदान दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में शिरकत करने जबलपुर पहुंचे थे. इस दौरान मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने कहा कि प्रदेश सरकार ने मोटे अनाज (Millets) के प्रोत्साहन एवं उपार्जन के लिए रानी दुर्गावती के नाम पर योजना की शुरुआत की है.
तीन बार मुगलों को हराया
रानी दुर्गावती ने अपने जीवनकाल में 52 लड़ाइयां लड़ीं और 51 में विजय हासिल की. उनके गौंडवाना साम्राज्य में 23 हजार गांव शामिल थे. वीर रानी दुर्गावती ने तीन बार मुगल सेना को धूल चटाई थी. राज्य सरकार ने उनकी वीरता की कहानियों को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने का निर्णय लिया है.
यह विरासत से विकास का एक क्रम है. वीरांगना दुर्गावती ने जल संरक्षण की दिशा में भी उल्लेखनीय प्रयास किए थे. उनके साथ इसी स्थान पर विश्वासघात हुआ था और उन्होंने वीरतापूर्वक अपना बलिदान कर दिया था. रानी दुर्गावती भी चंद्रशेखर आजाद की तरह आजाद रहीं. दुश्मन उन्हें कभी हाथ नहीं लगा पाए.
कौन थीं रानी दुर्गावती
5 अक्टूबर 1524 को जन्मीं रानी दुर्गावती गोंडवाना साम्राज्य की रानी थी. उनका विवाह राजा संग्रामशाह के बेटे दलपत शाह से हुआ था. करीब 14 साल तक गोंडवाना साम्राज्य की रानी रहीं रानी दुर्गावती ने 52 युद्ध लड़े जिसमें से 51 युद्धों में वह विजयी रहीं. रानी दुर्गावती को मुगलों से गोंडवाना साम्राज्य की रक्षा के लिए जाना जाता है.
मुगलों की सेना ने गोंडवाना पर कई बार हमला किया और हर बार रानी दुर्गावती ने उन्हें हरा दिया. लेकिन सन 1564 में मुगल शासक आसफ खां ने धोखा देते हुए युद्ध में बड़ी तोपों का इस्तेमाल किया जिससे रानी दुर्गावती की सेना को भारी नुकसान हुआ और उनके कई योद्धा मारे गए.
खुद रानी दुर्गावती को आंख और गले में तीर लगे थे जिसके बाद उनके महावत ने उन्हें युद्ध छोड़ने का निवेदन किया लेकिन रानी दुर्गावती ने ऐसा करने से इंकार कर दिया. ज्यादा खून बहने से रानी बेहोश होने लगी तो उन्होंने दुश्मनों के हाथों मरने से बेहतर खुद को खत्म करना सही समझा और अपनी तलवार अपने सीने में घोंपकर 24 जून, 1564 को वीरगति को प्राप्त हुईं.
(रवीश सिंह की रिपोर्ट)