

मिनिएचर (Miniature) पेंटिंग का मतलब होता है लघु या छोटे आकर का चित्र, जिसका इतिहास भारत में लगभग 1000 से 1200 साल पुराना बताया गया है. इसमें खास चित्रकारी या पेंटिंग करने में हाथों से रंगों का इस्तेमाल किया जाता है, जिमसें धार्मिक, पौराणिक, श्री कृष्ण की रास लीला से लेकर गुरुनानक देव जी की जन्मसाखी तक के वर्णन को खास तरह के रंगों से सजाया गया है. यह रंग पत्थर ,सब्जियों, खनिजों, नील, शंख के गोले, कीमती पत्थरों, शुद्ध सोने और चांदी से बनाए जाते हैं. इतनी पुरानी धरोहर होने के बावज़ूद आज ये विलुप्त होने के कागार पर है.
क्या आपने कभी सोने और चांदी से बना रंग देखा है या फिर विभिन्न पत्थरों से पीसकर लाल, नीला, हरा रंग देखा है? अगर नहीं तो आज हम आपको यह सब दिखाने जा रहे हैं लेकिन, इन रंगों का इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है. ये सभी मिनिएचर पेंटिंग यानी की लघु चित्रकारी कर रहे है. चलिए आपको बताते हैं कि कैसे की जाती है ये मिनिएचर पेंटिंग और क्या है इसकी खास बात.
क्या है मिनिएचर की खास बात
एक छोटी सी तस्वीर के माध्यम से पूरी कहानी बताना लघु चित्रकला की विशेषता है और सिख गुरु साहिबाना के जीवन को दर्शाने वाली पेंटिंग को सिख लघु चित्रकला कहा जाता है. मिनीएचर बनाने वालों के हाथों में जादू होता है. इनके हुनर को देखकर आप दंग रह जाएंगे. ये सभी कलाकार राजस्थान, हिमाचल और पंजाब से हैं.
इन कलाकारों में एक विजय शर्मा हैं, जो कि पिछले 40 सालों से इस बहुमूल्य और ऐतिहासिक धरोहर को सहज और संभाल कर रखे हुए. जिस चित्रकारी को यह बनाते हैं उसे मिनिएचर पेंटिंग कहा जाता है. इसका इतिहास भारत में लगभग 1200 साल पुराना है. पद्मश्री से सम्मानित विजय शर्मा ने गुड न्यूज़ टुडे को बताया कि ये चित्रकारी राजाओं और दरबारों में खूब फैली और फूली है.
मुगलों के शासन से हुई थी मिनिएचर की शुरुआत
भारत में मिनिएचर की शुरुआत मुगलों के शासन के दौरान हुई क्योंकि मुगलों ने बड़ी उदारता के साथ इस कला को समझा और फिर आगे बढ़ाया. सबसे पहले अकबर ने इस कला को सहजते हुए कलाकारी को कश्मीर, गुजरात, ग्वालियर से बुलाया और फिर उन्हें रंगों की तालीम दी. अकबर ने लगभग 200 से ज्यादा कलाकारों को ये कला सिखाई, जिसके बाद इसे आगे बढ़ाया. जहांगीर के समय मंसूर नाम का चित्रकार हुआ करता था, जो लगातार जहांगीर में राजदरबारों, मुगल शासकों की जीत, चकाचौंध, युद्ध को चित्रकारी के माध्यम से पेश किया करता था.
मुगलों के पतन के बाद भारत में राजाओं और राजपूतों ने भी इसे संरक्षण दिया और इस कला को समझा और बढ़ावा दिया. इस दौर में पहाड़ी राज्यों में पंजाब के राज दरबारों और राजस्थान, मध्यप्रदेश में ये कला खूब फली फूली. इस दौर में भी मुगलों की तरह राजाओं ने धार्मिक, पौराणिक, नायक-नायिका के रोमानी प्यार, श्रीकृष्ण की रास लीला, दुर्गा शक्ति और गुरुनानक देव जी की जन्मस्थली को खूब इस चित्रकला के माध्यम से रंगों में उतरा और सहज कर रखा.
राजशाही खत्म होने के बाद विलुप्त होने लगी कला
पहाड़ी राज्य हिमाचल में राजा संसार चंद के बाद इन कलाकारों को उनका स्थान और अहमियत दी पंजाब में राजा रणजीत सिंह ने. तमाम बड़े कलाकार संसार चंद के दरबार से रणजीत सिंह के दरबार में आए और यहीं से सिख मिनिएचर की शुरुआत हुई. पंजाब में ये कला उस समय खूब बढ़ी क्योंकि पटियाला रिसायत से लेकर कपूरथला और अमृतसर रियासत में इसके खूब कद्रदान हुए लेकिन देश के आज़ाद होने के बाद जैसे ही राजाओं का शासन ख़त्म हुआ उसके बाद से ये कला का पतन और ये धरोहर विलुप्त होनी शुरू हो गई.
सबसे बड़ी विडम्बना ये रही कि जहां शास्त्रीय संगीत को उसका स्थान मिला और उसे बचाया गया. स्कूलों, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में इसे पढ़ाने को लेकर कलाकारों को संरक्षण दिया गया, वहीं मिनिएचर पैंटिंग के साथ उपेक्षा और भेदभाव किया गया. अभी तक मिनिएचर पेंटिंग के लिए कोई पॉलिसी नहीं है. त्रासदी यह है कि इस कला में कुशल कुछ शिल्पकार जो बचे हैं और इस विरासत को आगे साझा करना चाहते हैं लेकिन बिना किसी संरचित प्रणाली के खो रहे हैं.
विजय शर्मा बताते हैं कि जैसे कोई बेल बिना सहारे के नहीं बढ़ सकती, उसी तरह से इस पारंपरिक कला को संरक्षण की जरूरत है. क्योंकि इस कला को सीखने के लिए बहुत धैर्य और लिटरेचर का अध्ययन करना पड़ता है. ये कला कल्पना प्रधान है जिसमें सबसे ज्यादा रेखाओं का प्रयोग किया जाता है.
इस कला के लिए जो रंग बनाने पड़ते हैं वो भी ख़ास तरह के रंग होते हैं जिसमें पत्थर ,सब्जियों, खनिजों, नील, शंख के गोले, कीमती पत्थरों, शुद्ध सोने और चांदी से बनाए जाते हैं. इसका काम इतना बारीक़ होता है कि रेखाओं को बनाने के लिए जो ब्रश इस्तेमाल किया जाता है वो भी गिलहरी की पूँछ के बाल से ख़ासतौर पर तैयार किया जाता है.
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