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EXCLUSIVE: बिना पैरों के चढ़ डाले दुनिया के तीन सबसे ऊंचे पर्वत, जानिए ‘हाफ ह्यूमन-हाफ रोबो’ की कहानी

चित्रसेन कहते हैं कि हमारी ज़िन्दगी भी ठीक पहाड़ की ही तरह होती है जिसमें उतार भी आते हैं और चढ़ाव भी. लोगों के साथ सबसे बड़ी समस्या ये आती है कि वे हमेशा सफलता की ओर भागते हैं, वो चाहते हैं कि वे हमेशा सफल हों. चित्रसेन पहले भारतीय हैं जिन्होंने डबल लेग एंप्टी (Double leg Amputee) होने के बावजूद माउंट किलिमंजारो, माउंट कोसियस्ज़को पर चढ़ाई की है. इसके साथ इन्होंने माउंट एल्ब्रुस पर भी चढ़ाई की है. बता दें, ये तीनों ही दुनिया की सबसे ऊंची चोटियों में आती हैं.

Photo: Chitrasen Sahu Photo: Chitrasen Sahu
हाइलाइट्स
  • चित्रसेन पहले भारतीय हैं जिन्होंने Double leg Amputee होने के बावजूद माउंट किलिमंजारो, माउंट कोसियस्ज़को पर चढ़ाई की है

  • दक्षिणी अमेरिका का माउंट ऐकंकॉन्गुआ है च‍ित्रसेन का चौथा पड़ाव

  • चित्रसेन ने इस अभियान को Mission Inclusion नाम दिया है

“एक्सीडेंट के बाद पहली बार व्हीलचेयर पर चलते हैं या आप स्टिक लेकर चलना सीखते हैं.. इस दौरान आप गिरते हैं, बार-बार चोट लगती है.....आप फिर उठते हैं….पहले जैसे चलना चाहते हैं.....और फिर एक दिन आप दुर्गम चढ़ाई…...गहरी ढलान........ऑक्सीजन की कमी.......बर्फीली हवा और शून्य से भी नीचे तापमान होने के बावजूद भी दुनिया की सबसे मुश्किल 3 चोटियों पर चढ़ जाते हैं....और देश का तिरंगा फहरा आते हैं.” 
 
एक ट्रेन हादसे में अपने दाेनाें पैर गंवा चुके 29 साल के चित्रसेन साहू छत्तीसगढ़ से ताल्लुक रखते हैं. प्रोस्थेटिक पैर और बुलंद हौसलों के दम पर च‍ित्रसेन 7 में से 3 महाद्वीप के सबसे ऊंचे पर्वतों को फतह कर चुके हैं. चित्रसेन डबल लेग एंप्यूटी यानी दोनों पैर के बिना किलिमंजारो (अफ्रीका महाद्वीप की सबसे ऊंची चोटी) और कोसियस्ज़को (ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप की सबसे ऊंची चोटी) पर तिरंगा लहराने वाले देश के पहले माउंटेनियर हैं.
पेश है च‍ित्रसेन साहू से हमारी खास बातचीत के मुख्य अंश...

क्या है ‘हाफ ह्यूमन रोबो’ ?

चित्रसेन का कहना है कि वे विश्व के सातों महाद्वीप की सबसे ऊंची चोटी पर चढ़ने का सपना रखते हैं. शरीर का आधा हिस्सा ह्यूमन वाला और आधा हिस्सा आर्टिफिशियल लेग होने के कारण उन्हें ब्लेड रनर, 'हाफ ह्यूमन रोबो' के नाम से भी जाना जाता है. चित्रसेन ने हमें बताया, “मेरे शरीर का आधा हिस्सा ह्यूमन वाला है और कमर से नीचे का हिस्सा आर्टिफिशियल लेग (Artificial Leg) है, इसीलिए लोगों ने मुझे ये नाम दे दिया है- हाफ-ह्यूमन, हाफ रोबोट यानि हाफ ह्यूमन रोबो.”

कैसे हुई सफर की शुरुआत?
 
छत्तीसगढ़ से ताल्लुक रखने वाले चित्रसेन बताते हैं कि उन्हें घूमना-फिरना, ट्रैक करना, जंगलों में जाना, पहाड़ों में जाना और दौड़ना पहले से ही पसंद था. जब दुर्घटना हुई तो उसके बाद मैंने पहले बास्केटबॉल खेलना शुरू किया. वह कहते हैं,  “शुरुआत मैंने छोटे-छोटे ट्रैक से की. जब आप सफल होने लगते हैं तब आपका आत्मविश्वास और भी ज्यादा बढ़ जाता है. इसके बाद कुछ जगह ट्रेनिंग ली और फिर धीरे-धीरे माउंटेनियरिंग की तरफ झुकाव हुआ. पहाड़ों का प्रेम एक नशे जैसा होता है. मेरे साथ भी ऐसा ही है.”

एक भारतीय होने के नाते होता है गर्व

वह आगे कहते हैं कि जब आप अपना पहला पहाड़ चढ़ते हैं, वो फीलिंग काफी इमोशनल होती है. दुनिया की सबसे ऊंची चोटियों में से एक पर जब आप चढ़ रहे होते है और पीछे मुड़कर देखते हैं… तो आपको महसूस होता है कि कितना कुछ पार करके आप यहां तक पहुंचे हैं......वो बहुत भावुक करने वाला पल होता है... और एक भारतीय होने के नाते भी आपको गर्व महसूस होता है. हालांकि, पहाड़ पर चढ़ना सबसे अंतिम स्टेज में आता है, उसके पीछे की मेहनत लोगों को नहीं दिखाई देती. इसके पीछे कई छोटी-छोटी सफलताएं होती हैं जो हमें आगे बढ़ने का हौसला देती हैं. 

चित्रसेन साहू
चित्रसेन साहू

 
दक्षिणी अमेरिका का माउंट ऐकंकॉन्गुआ है चौथा पड़ाव

आगे की तैयारियों को लेकर जब हमने चित्रसेन से पूछा तो उन्होंने बताया कि 7 समिट कांटिनेंट का है, यानि दुनिया के जो 7 महाद्वीप हैं उन सभी पर हमें चढ़ना है. इसमें से तीन-अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप हो चुका है, अब चौथा पड़ाव दक्षिणी अमेरिका का माउंट ऐकंकॉन्गुआ है. बता दें ये इस महाद्वीप की सबसे ऊंची चढ़ाई है. हिमालय रेंज को छोड़ दें तो ये दुनिया की सबसे ऊंची चोटी है.

पर्वतारोही होने के साथ हैं व्हीलचेयर बास्केटबॉल प्लेयर 

चित्रसेन पहले भारतीय हैं जिन्होंने डबल लेग एंप्टी (Double leg Amputee) होने के बावजूद  माउंट किलिमंजारो, माउंट कोसियस्ज़को पर चढ़ाई की है. इसके साथ इन्होंने माउंट एल्ब्रुस पर भी चढ़ाई की है. बता दें, ये तीनों ही दुनिया की सबसे ऊंची चोटियों में आती हैं. 
आपको बताते चलें कि एक सफल पर्वतारोही होने के साथ चित्रसेन नेशनल व्हीलचेयर बास्केटबॉल और नेशनल पैरा स्विमिंग टीम के भी सदस्य हैं. उनके नाम 14 हजार फीट से स्काई डाइविंग करने का भी रिकॉर्ड दर्ज है. इतना ही नहीं वे एक सर्टिफाइड स्कूबा डाईवर भी हैं और चित्रसेन ने दिव्यांगजनों के ड्राइविंग लाइसेंस के लिए काफी लंबी लड़ाई भी लड़ी है.

अपने जैसे कई लोगों को कर रहे हैं प्रेरित

आपको बताते चलें कि चित्रसेन ने इस अभियान को ‘मिशन इन्क्लूजन’ (Mission Inclusion) नाम दिया है. इसमें तहत लाखों लोगों को जागरूक किया जा रहा है और जो दिव्यांगजन अपने ऊपर भरोसा नहीं कर पाते, उनके लिए अलग अलग एक्टिविटीज करवाई जाती हैं. ताकि वे आगे आने वाली चुनौतियों के लिए तैयार रह सकें और खुद को लेकर उनका आत्मविश्वाव बढ़े.

एक्सेसिबिलिटी के कारण झेलनी पड़ती हैं परेशानियां

चित्रसेन ने बताया कि देश में दिव्यांगजनों (Person with Disability) के लिए काफी कुछ करने की जरूरत है. फिर चाहे वह खेलों में जाने के लिए फंड हो, इंफ्रास्ट्रक्टर हो या एक्सेसिबिलिटी का सवाल हो. हमें दिव्यांगजनों को सपोर्ट करने के लिए और भी काम करने की जरूरत है. वे कहते हैं,  “शुरुआत में जब मैं एक एग्जाम देने गया तो उस बिल्डिंग में व्हीलचेयर को ले जाने का कोई अलग रास्ता नहीं था. ज्यादातर एग्जाम मैंने क्लास के बाहर जो दरवाजा होता है, वहां बैठकर दिए हैं. कई बार हम चाहते हैं इंडिपेंडेंट होना लेकिन सुविधाओं के अभाव में हम नहीं हो पाते हैं, और इससे हमारे आत्मविश्वास में कमी आती है. हालांकि, अब धीरे धीरे इसपर भी काम हो रहा है.” 

पहाड़ों की तरह होती है जिंदगी, उतार भी और चढ़ाव भी

पहाड़-सा साहस लिए चित्रसेन कहते हैं कि हमारी ज़िन्दगी भी ठीक पहाड़ की ही तरह होती है जिसमें उतार भी आते हैं और चढ़ाव भी. लोगों के साथ सबसे बड़ी समस्या ये आती है कि वे हमेशा सफलता की ओर भागते हैं, वो चाहते हैं कि वे हमेशा सफल हों. लेकिन पहाड़ चढ़ते हुए उतार भी आते हैं और चढ़ाव भी… हमारी ज़िन्दगी भी ठीक ऐसी ही होती है. हमें उन सभी पड़ावों को स्वीकार करना है और जूनून से साथ आगे बढ़ते जाना है.
 
हिंदी के प्रख्यात कवि कुंवर नारायण लिखते हैं कि 

 “दुर्गम वनों और ऊंचे पर्वतों को जीतते हुए
जब तुम अंतिम ऊंचाई को भी जीत लोगे
जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ का पहला तूफान झेलोगे
और कांपोगे नहीं
तब तुम पाओगे कि कोई फर्क नहीं
सब कुछ जीत लेने में
और अंत तक हिम्मत न हारने में

सचमुच चित्रसेन को देखते हुए आज ये कविता सार्थक साबित होती है.