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महिलाओं के बुर्का पहनने पर जावेद अख्तर ने उठाए सवाल, पूछा- चेहरे में क्या अश्लील है जिसे ढकना पड़े?

जावेद अख्तर ने सवाल उठाया कि आखिर महिलाओं से ही क्यों उम्मीद की जाती है कि वे अपना चेहरा ढकें. उन्होंने कहा कि अक्सर इसे महिला की पर्सनल चॉइस बताकर पेश किया जाता है, जबकि हकीकत में इसके पीछे गहरा सामाजिक दबाव है.

Javed Akhtar Javed Akhtar
हाइलाइट्स
  • जावेद अख्तर ने कहा चेहरे में क्या अश्लील है?

  • महिला अपने चेहरे से शर्मिंदा क्यों हो?

जावेद अख्तर हमेशा से ही बेबाक राय रखने के लिए जाने जाते हैं. SOA लिटरेरी फेस्टिवल 2025 में भी उन्होंने एक ऐसा सवाल उठा दिया, जिसने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया है. महिलाओं के बुर्का पहनने की परंपरा पर बात करते हुए जावेद अख्तर ने कहा, 'एक महिला को अपने चेहरे से शर्मिंदा होने की क्या जरूरत है?'

बुर्का महिलाओं की पसंद या सामाजिक दबाव?
इंडियन परफॉर्मिंग राइट्स सोसाइटी द्वारा आयोजित इस सत्र के दौरान जावेद अख्तर ने सवाल उठाया कि आखिर महिलाओं से ही क्यों उम्मीद की जाती है कि वे अपना चेहरा ढकें. उन्होंने कहा कि अक्सर इसे महिला की पर्सनल चॉइस बताकर पेश किया जाता है, जबकि हकीकत में इसके पीछे गहरा सामाजिक दबाव है.

कार्यक्रम में मौजूद छात्रों और आम लोगों के साथ बातचीत के दौरान एक महिला ने जावेद अख्तर से सवाल किया कि क्या खुद को ढकना महिला को कमजोर बनाता है. इस पर जावेद अख्तर ने कहा कि मर्यादित कपड़े पहनना अलग बात है, लेकिन चेहरे को ढकने की मजबूरी समझ से परे है.

जावेद अख्तर ने कहा चेहरे में क्या अश्लील है?
जावेद अख्तर ने कहा, 'मैं यह मानता हूं कि बहुत ज्यादा उघाड़ू कपड़े, चाहे पुरुष पहनें या महिलाएं, गरिमापूर्ण नहीं लगते. लेकिन चेहरे में ऐसा क्या है जो अश्लील, अभद्र या आपत्तिजनक है कि उसे ढकना पड़े? उन्होंने जोर देकर कहा कि चेहरा इंसान की पहचान होता है और उसे छिपाने की सोच खुद में सवालों के घेरे में है.

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

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महिलाओं के बुर्का पहनने की पीछे भी दबाव शामिल
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए जावेद अख्तर ने कहा अगर कोई महिला कहती है कि वह अपनी मर्जी से बुर्का पहनती है, तो भी उस फैसले के पीछे पीयर प्रेशर काम करता है. अगर उसे पूरी तरह अकेला छोड़ दिया जाए, बिना किसी सामाजिक दबाव के तो शायद ही कोई महिला अपना चेहरा ढकने का फैसला करे. उनके मुताबिक, समाज की तारीफ और स्वीकृति पाने की चाह ऐसे फैसलों को प्रभावित करती है.

परंपरा को 'चॉइस' न कहा जाए
जावेद अख्तर ने यह भी कहा कि किसी भी परंपरा को सिर्फ 'चॉइस' कहकर नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि यह समझना जरूरी है कि उस चॉइस को आकार देने वाली परिस्थितियां क्या हैं. उन्होंने कहा, जब सामाजिक नियम धीरे-धीरे आदत बन जाते हैं, तो व्यक्ति को यह एहसास भी नहीं होता कि उसकी आजादी छिन चुकी है.

जावेद अख्तर को SOA साहित्य सम्मान
इस लिटरेरी फेस्टिवल में जावेद अख्तर को साहित्य और कला के क्षेत्र में योगदान के लिए SOA साहित्य सम्मान से भी नवाजा गया. हाल ही में इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू में भी उन्होंने सिनेमा, लेखन और सामाजिक मुद्दों पर खुलकर बात की थी.