
23 जनवरी का दिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती और पराक्रम दिवस के रुप में मनाया जाता है. नेताजी का पूरा जीवन भारतीयों के लिए प्रेरणा है. हालांकि, उनका बाद का जीवन गुमनामी में ही बीता और किसी को नहीं पता चला कि वह कहां रहे और उन्होंने क्या किया. बहुत ही कम लोगों को शायद पता हो कि झारखंड में धनबाद शहर के गोमो से भी नेताजी की यादें जुड़ी हुई हैं. उनका गोमो से गहरा नाता रहा हैं. अंतिम बार नेता जी सुभाष चन्द्र बोस गोमो ही देखे गए थे.
पेशावर मेल से हुए थे रवाना
नेताजी सुभाष चंद्र बोस 18 जनवरी 1941 की रात पठान के वेश में गोमो स्टेशन से ही पेशावर मेल से रवाना हुए थे. वही पेशावर मेल जिसे बाद कालका मेल और अब वर्तमान में नेताजी एक्सप्रेस के नाम से जाना जाता है. इसी ट्रेन में नेताजी अपने गंतव्य के लिए रवाना हुए. उनकी इस यात्रा को निष्क्रमण यात्रा के रूप में याद किया जाता है. ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर नजरबंद कर दिया था तो नेताजी ने भेष बदल कर भागने की योजना बनाई.
उनकी इस रणनीति में उनके मित्र सत्यव्रत बनर्जी साथ थे. सत्यव्रत बनर्जी ने इसे महाभिनिष्क्रमण यात्रा का नाम दिया था. दो जुलाई 1940 को हॉलवेल मूवमेंट के दौरान नेताजी को भारतीय रक्षा कानून की धारा 129 के तहत कोलकाता में गिरफ्तार किया गया था. प्रेसीडेंसी जेल में उन्होंने आमरण अनशन किया. जिससे उनकी तबीयत बिगड़ गयी, गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें पांच दिसंबर 1940 को इस शर्त पर रिहा किया कि तबीयत ठीक होते ही उन्हें पुन: गिरफ्तार किया जा सकता है. यहां से रिहा होने के बाद एल्गिन रोड स्थित अपने आवास चले गये.
27 जनवरी को होनी थी सुनवाई
नेताजी के केस की सुनवाई 27 जनवरी 1941 को होनी थी, लेकिन तब ब्रिटिश हुकूमत के होश उड़ गये, जब उन्हें 26 जनवरी को यह पता चला कि नेताजी तो कोलकाता में हैं ही नहीं. उन्हें खोज निकालने के लिए सिपाहियों को अलर्ट मैसेज भिजवाया गया. लेकिन नेताजी ने पहले ही अपने करीबी नजदीकी के सहयोग से महाभिनिष्क्रमण की तैयारी शुरू कर दी थी. योजना के तहत नेताजी 16-17 जनवरी की रात लगभग एक बजे हूलिया बदलकर, कार में सवार होकर अपनी यात्रा पर कलकत्ता से निकल गये.
इस योजना के अनुसार, नेताजी अपनी बेबी ऑस्टिन कार से गोमो पहुंचे थे. वह एक पठान के वेश में यहां पहुंचे थे. 18 जनवरी 1941 को पुराना कंबल ओढ़ कर नेताजी धनबाद के गोमो स्टेशन से हावड़ा-पेशावर मेल (वर्तमान में नेताजी मेल) पर सवार हुए और इसके बाद वे गुमनामी में खो गये. उनकी याद में वर्ष 2000 की 17 जनवरी को तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव द्वारा गोमो स्टेशन का नाम बदलकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस जंक्शन गोमो रखा गया. वहीं स्टेशन परिसर के प्लेटफॉर्म संख्या एक और दो के बीच नेताजी के कांस्य की प्रतिमा स्थापित की गई है, जहां रेल यात्री नेताजी की प्रतिमा को देखते हुए गोमो की धरती को नमन करते हैं.
आज भी यादों में नेताजी
चैंबर ऑफ़ कॉमर्स के अध्यक्ष धीरज कुमार ने बताया कि 18 जनवरी को नेताजी सुभाष चंद्र बोस एक्सप्रेस ट्रेन को उनकी याद में सजा दिया जाता है. उनकी यादों को हम ताजा रखे हुए हैं. नेताजी सुभाष चंद्र बोस जंक्शन के पूर्व चीफ यार्ड मास्टर पीसी मंडल ने बताया कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस लोको बाजार में रुके थे और फिर वहां से पठान का भेष धारण कर स्टेशन पहुंचे थे. गोमो के लोको बाजार में स्थित अब्दुल्लाह कॉलोनी हाता में स्थित एक आवास में नेताजी कुछ देर के लिए रुके थे. वर्तमान में इस आवास में रहने वाले एडवोकेट एसएन फ़करुल्ला ने बताया कि मेरे दादा एडवोकेट शेख अब्दुल्लाह स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ ही नेता जी के अच्छे मित्र थे.
आजादी के लिए वह साथ साथ लड़े. उनके नाम से ही यह कॉलोनी बनी है. 18 जनवरी 1941 को शाम को करीब पांच-छह बजे नेताजी यहां पहुंचे. नेता जी दादा से बोले कि उन्हें ट्रेन पकड़वा दें, अंग्रेज पीछे लगे हुए हैं. शेख अब्दुल्लाह ने उनकी ट्रेन पकड़ने में मदद की. नेताजी का टिकट पेशावर तक का था. अंग्रेजों की कैद से रिहा होने के बाद उन्होंने आजाद हिंद फौज की कमान संभाली. हम सब जानते हैं कि कैसे आजाद हिंद फौज न ब्रिटिश सरकार की नींदें उड़ा दी थीं. आज भी नेताजी और उनकी फौज को याद किया जाता है.
(सिथुन मोदक की रिपोर्ट)