

काशी में ज्ञानवापी और मथुरा में इदगाह मस्जिद के बाद अब राजधानी दिल्ली में कुतुब मीनार को लेकर विवाद गहराता जा रहा है. 24 मई को दिल्ली के साकेत कोर्ट में कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद मामले में सुनवाई हुई. इस पूरे मामले में 9 जून को फैसला आने की उम्मीद जताई जा रही है. कोर्ट में सुनवाई के दौरान हिंदू पक्ष की तरफ से दलील दी गई कि देवी-देवताओं की मूर्तियां तोड़कर ये मस्जिद बनाई गई थी और कई सारे साक्ष्य भी पेश किए गए. इसी के तहत जीएनटी की टीम ने कुतुब मीनार परिसर के अंदर जाकर तथ्यों और सबूतों के साथ हर उस जगह पर जाकर ग्राउंड जीरो से जायजा लिया जिस पर विवाद छिड़ा हुआ है. इसके इतिहास और थीयोरिज को विस्तार से समझने के लिए ग्राउंड जीरो से ही इतिहासकार दिनेश कपूर से भी बातचीत की. बता दें कि कुतुब मीनार परिसर में कुल दो मस्जिद हैं— मुगल मस्जिद (जिस पर फिलहाल नमाज़ पढने को लेकर रोक लगाई गई है) और दूसरी है कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद जिसमें देवी-देवताओं की मूर्तियां होने का दावा किया गया है. हिन्दू पक्ष यहां पर पूजा का अधिकार चाहता है.
1199 से 1220 के दौरान कराया गया था कुतुब मीनार का निर्माण
कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद के प्रवेश द्वार पर ही आपको दाईं और बाईं दीवारों पर हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियों के अवशेष नज़र आएंगे. इनका आकार और बनावट ठीक वैसी ही नजर आती है जैसे की एक मंदिर के दीवार पर होती है. इतिहासकार दिनेश कपूर बताते हैं कि कुतुब मीनार का निर्माण 1199 से 1220 के दौरान कराया गया था. कुतुब मीनार को बनाने की शुरुआत कुतुबुद्दीन-ऐबक ने की थी और उसके उत्तराधिकारी इल्तुतमिश ने पूरा कराया था. प्रवेश द्वार पर बने चिन्ह यहीं दर्शाते हैं कि मंदिरों की दीवारों को पूरी तरह से नहीं तोड़ा गया बल्कि उसी में सुधार कार्य करते हुए इस्लामिक इमारतें तैयार की गई.
प्रवेश द्वार के भीतर आते ही आपको कई खंभे ऐसे नज़र आएंगे जिस पर नक्काशी की गई है. इस नक्काशी में कमल का फूल, गौमाता, देवी —देवता, घंटी और स्वस्तिक जैसे निशान दिखाई पडेंगे. इतिहासकार दिनेश कपूर बताते हैं कि कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद में सदियों पुराने मंदिरों का भी एक बड़ा हिस्सा शामिल है. देवी-देवताओं की मूर्तियां और मंदिर की वास्तुकला अभी भी आंगन के चारों ओर के खंभों और दीवारों पर स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं. इतिहासकार दिनेश कपूर ने बताया कि इनमें हिंदू देवताओं और श्री गणेश, विष्णु और यक्ष समेत देवताओं की स्पष्ट तस्वीरें हैं. इसके खंभों की बनावट से प्रतीत होता है कि यह कहीं न कहीं सन् 1178 में बनाए गए होंगे. यह खंभे बताते हैं कि मुसलमानों ने मदिरों के अवशेषों को छिपाने के लिए खंभों पर मोटा प्लास्टर चढ़ा दिया था. जब प्लास्टर उतरता गया वैसे वैसे सच्चाई सामने आती गई. इन खंभों के ठीक सामने की तरफ यानि उपर की ओर आपको मंडपम् भी नज़र आएगा. इस मंडपम् को उन्होंने इस्लामिक गु्ंबद की तरह बानाने की कोशिश की लेकिन वो पूरी तरह से उसे तब्दील नहीं कर पाए.
लौह स्तंभ भी है विवादों में
कुतुब मीनार परिसर में स्थित लौह स्तंभ भी विवादों में है. कहा जा रहा है कि यह लौह स्तंभ ना होते हुए एक विष्णू स्तंभ है. इतिहासकार दिनेश कपूर बताते हैं कि इसे विष्णू ध्वज के नाम से जाना जाता था. इस स्तंभ की लंबाई 23.8 फीट है, जिनमें से 3.8 फीट जमीन के अंदर है. इसका वजन 600 किलो से ज्यादा है. इतिहास कहता है कि इसका निर्माण चंद्रगुप्त द्वितीय यानि राजा विक्रमादित्य ने करवाया. इस स्तंभ पर संस्कृत में जो लेख खुदा हुआ है उसमें यह लिखा गया है कि इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था.
इस स्तंभ पर खुदे अभिलेख में इसे ताकतवर राजा चंद्र, जोकि भगवान विष्णु के भक्त थे, द्वारा 'ध्वज स्तंभ' के रूप में 'विष्णुपद की पहाड़ी' पर बनाए जाने का जिक्र है. इस ताकतवर राजा की पहचान आमतौर पर गुप्त साम्राज्य के चंद्रगुप्त द्वितीय के तौर पर की जाती है. करीब 1600 सालों बाद भी इस लौह स्तंभ में जंग नहीं लगी है, जो कि प्राचीन भारत की इंजीनियरिंग कौशल का प्रमाण है. राजा विक्रमादित्य भगवाल विष्णू के भक्त थे और इसे चौथी शताब्दी में बनाया गया था. खास बात यह है कि इसके ऊपर गरूड की मूर्ति भी हुआ करती थी जो विष्णु के ध्वज के रूप में विष्णु मंदिर का संकेत देने के लिए उस पर लगाई गई थी. स्पष्ट है कि यह स्तंभ यहां पर इस जगह किसी और स्थान से लाया गया है. क्योंकि माना जाता है कि मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने इसे खड़ा किया गया था, जिसे 1050 ईस्वी में तोमर वंश के राजा और दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल ने दिल्ली लाया.
शंक्वाकार आकार का है मस्जिद का गुंबद
परिसर के भीतर की आपको मस्जिद गुंबद जैसे आकार की बनावट नज़र आएगी. उपरी सतह में देखने पर यह गुंबद जैसे लगते हैं लेकिन यह वास्तविकता में मदिर के मंडपम है. हिन्दूओं के मंडपम को तोडकर उसे इस्लिामिक डोम में तब्दिल करने की नाकामयाब कोशिश की जिसे शंक्वाकार का आकार दे दिया गया. यह साफ दर्शाता है कि कोने के गुंबद पर भी हिंदू संस्कृति की झलक साफ दिख रही है.
कुतुबद्दीन ऐबक ने करवाया था पहली मंजिल का निर्माण
इतिहासकार दिनेश कपूर बताते हैं कि 11वीं शताब्दी में इसकी पहली मंजिल पृथ्वीराज चौहान ने बनाई थी ताकि रानियां सूर्य को जल चढा सके. इसके बाद 1102 कुतुबद्दीन ऐबक ने पहली मंजिल को दोबारा बनाया. इसके बाद जब इल्तु-तमिश दिल्ली सल्तनत का बादशाह बना तो उसने इस मीनार की तीन और मंज़िलों का निर्माण कराया. बाद में जब फिरोजशाह तुगलक दिल्ली का बादशाह बना तो उसने भी 15वीं शताब्दी में इसकी पांचवीं और आखिरी मंज़िल का निर्माण कराया. 1814 में इसके प्रभावित हिस्सों को ब्रिटिश-इंडियन आर्मी के मेजर रॉबर्ट स्मिथ ने इसका सौंदर्यीकरण का काम करवाया था.
पूर्व एएसआई डायरेक्टर ने बताया सूर्य स्तंभ
कुतुब मीनार को लेकर पूर्व एएसआई डायरेक्टर धमर्वीर शर्मा ने कहा कि यह एक सूर्य स्तंभ है जिसे 5वीं शताब्दी में बनाया गया था. कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इसे सूर्य और नक्षत्रों का अध्ययन करने के लिए बनाया गया था, इसी वजह से कुतुब मीनार में 25 इंच का झुकाव है और ये मीनार 73 मीटर ऊंची है. दरअसल जब 21 जून को जब सूर्य आकाश में जगह बदलता है तो भी कुतुब मीनार की उस जगह पर आधे घंटे तक छाया नहीं पड़ती. यह वैजानिक और आर्कियोलॉजिकल तथ्य भी है.
मस्जिद परिसर के अन्दर है भगवान गणेश की मूर्ति
मस्जिद परिसर के अन्दर भगवान गणेश जी की मूर्ति रखी हैं. यह एक मूर्ति ऐसी जगह है, जहां वुजू का पानी बहता था. यह मूर्ति जाली में बंद है. उन्हें वहां से हटाकर नेशनल म्यूजियम जैसी दूसरी जगह रखे जाने की मांग की जा रही है.
अलाउद्दीन खिलजी ने शुरू करवाया था अलाई मीनार का निर्माण
कुतुबमीनार के उत्तर में अधूरी बनी इस मीनार का निर्माण अलाउद्दीन खिलजी ने 1312 में शुरू करवाया था. 24.5 मीटर इस मीनार की ऊंचाई है. अलाउद्दीन ने कुव्वतुल-उल-इस्लाम मस्जिद के आकार को दोगुना करवाया. वह मस्जिद के अनुपात में कुतुबमीनार से दो गुनी ऊंची मीनार का निर्माण कराना चाहते थे, लेकिन मुश्किल से मीनार की पहली मंजिल ही बन सकी. खास बात यह है कि हर मुगल इमारत एक सतह पर होती है और पश्चिम की तरफ इसका सामने का हिस्सा था और कुतुब मीनार दक्षिण की तरफ की दिशा में है. यह इस बात को स्पष्ट करती है कि कुतुब मीनार की पहली मंजिल का निर्माण ऐबक द्वारा नहीं किया गया.
दीवारों को कुछ हिस्सा जला हुआ है
1707 में जब मुस्लिम राजाओं का दबदबा कम हुआ तब यह आसापास रहने वाले जाट और गुर्जरों ने इसे जलाने की कोशिश की. उन लोगों में इन मुस्लिम आक्रांताओं के द्वारा किए गए जुल्मों का गुस्सा था.