
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2005 के एक मामले में नाबालिग के कथित तौर पर अपहरण करने और बलात्कार के आरोप में दोषी ठहराए गए इस्लाम को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया. अदालत का कहना है कि पीड़िता की शादी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के मुताबिक हुई थी. जिसके अनुसार उसकी शादी पूर्ण रूप से वैध है. उस दौरान बतौर पति-पत्नी बनाए गए संबंध के उपर किसी प्रकार की कार्यवाही नहीं की जा सकती है. एकल पीठ न्यायमूर्ति अनिल कुमार ने निचली अदालत के 2007 के फैसले को रद्द करते हुए यह निर्णय सुनाया. ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 363, 366 और 376 के तहत सात वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी थी.
पिता-बेटी की गवाही में अंतर
हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई के दौरान पीड़िता की गवाही में पाया गया कि उसका अपहारण नहीं हुआ था. लड़की के पिता का कहना है कि बेटी को बहला-फुसलाकर कर ले जाया गया था. जबकि पीड़िता ने खुद स्वीकार किया कि वह खुद अपनी मर्जी से इस्लाम के साथ गई थी. तो इस जगह अपहारण की बात खारिज हो जाती है. पीड़िता ने बताया कि उन दोनों ने कालपी में निकाह किया और उसके बाद भोपाल में एक महीने तक पति-पत्नी की तरह साथ रहे.
अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के 1973 के एक फैसले का हवाला देते हुए कहा कि “ले जाने” और “साथ जाने देने” में कानूनी अंतर होता है. इस आधार पर अदालत ने आरोपी को धारा 363 (अपहरण) और धारा 366 (अभिकर्षण) के आरोपों से बरी कर दिया.
शादी और संबंध मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत वैध
धारा 376 (बलात्कार) से संबंधित आरोप पर अदालत ने पाया कि पीड़िता की आयु ऑसिफिकेशन टेस्ट के अनुसार 16 वर्ष से अधिक थी. मुस्लिम पर्सनल लॉ में 15 वर्ष की आयु को विवाह योग्य माना जाता है. यानि की बालिग माना जाता है. इसलिए वह विवाह कर सकती थी. उस समय की कानूनी स्थिति के अनुसार, यदि पत्नी की उम्र 15 वर्ष से अधिक थी तो पति पर बलात्कार का आरोप नहीं लगाया जा सकता था.
न्यायालय ने निष्कर्ष में कहा कि अभियुक्त को बलात्कार के अपराध का दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि घटना के समय पीड़िता की उम्र 16 वर्ष से अधिक थी और दोनों के बीच शारीरिक संबंध विवाह के बाद बने थे. अदालत ने आरोपी को सभी आरोपों से बरी करते हुए कहा कि वह पहले से ही जमानत पर था, इसलिए अब उसे औपचारिक रूप से मुक्त किया जाता है. साथ ही ट्रायल कोर्ट के रिकॉर्ड को वापस भेजने का निर्देश दिया गया.