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बहादुरी ही नहीं मोहब्बत का प्रतीक भी है भूरागढ़ किला, यहां लगता है "आशिकों का मेला"

भूरागढ़ किला, यूपी के जिला बांदा के केन नदी के पास बसा हुआ है. किले का इतिहास और महत्व महाराजा छत्रसाल के पुत्रों बुंदेला शासनकाल और हृदय शाह और जगत राय से जुड़ा हुआ है.

Bhuragrah Fort Bhuragrah Fort
हाइलाइट्स
  • किले से जुड़ा है क्रांतिकारियों का इतिहास

  • भूरागढ़ किला, यूपी के जिला बांदा के केन नदी के पास बसा हुआ है

बुंदेलखंड के युद्धों का जब जिक्र आता है तब सम्राट पृथ्वीराज चौहान और आल्हा ऊदल के युद्ध को घमासान बताया जाता है, कहा जाता है वह युद्ध महाभारत के युद्ध से कम नही था जहां दो दिग्गज शूरवीर आपस में टकराए थे. लेकिन, बुंदेलखंड में तमाम ऐसी इमारतें भी हैं जो गवाह बनी हैं ऐसे तमाम युद्धों की, कुर्बानियों की, वैसी ही एक इमारत है बांदा का भूरागढ़ किला. इस किले की कहानी जंग, देशभक्ति, इतिहास, रहस्य और प्रेम से लबरेज़ है. आइए जानते हैं बांदा के भूरागढ़ किले की कहानी:

भूरागढ़ किला, यूपी के जिला बांदा के केन नदी के पास बसा हुआ है. किले से पूरे बांदा को देखा जा सकता है. किले का इतिहास और महत्व महाराजा छत्रसाल के पुत्रों बुंदेला शासनकाल और हृदय शाह और जगत राय से जुड़ा हुआ है. जगत राय के पुत्र कीरत सिंह ने 1746 में किले की मरम्मत करवाई थी. किले की देखरेख की ज़िम्मेदारी नोने अर्जुन सिंह को दी गई थी.

सन् 1787 में बाँदा का शासन अली बहादुर प्रथम के हाथों में आ गया. अली बहादुर प्रथम का युद्ध सन् 1792 के लगभग भूरागढ़ के प्रशासक नोने अर्जुन सिंह से हुआ. जिसके बाद किला कुछ समय तक नवाबों के शासन में रहा लेकिन कुछ समय बाद ही राजाराम दाउवा और लक्ष्मण सिंह दाउवा ने किले को अपने अधिकार में ले लिया, जिसका शासन गुमान सिंह के नाती के हाथों में था. नोना अर्जुन सिंह पर ज़्यादा विश्वास होने की वजह से उन्हें बांदा का शासन सौंप दिया गया. लेकिन कुछ समय के बाद अर्जुन सिंह की मृत्यु हो गई. जिसके बाद अली बहादुर किले पर शासन करने लगा. साल 1802 में अली बहादुर की भी मौत हो गई और किले का शासन गौरिहार महाराज के हाथों में चला गया.

किले से जुड़ा है क्रांतिकारियों का इतिहास

ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ महान स्वतंत्रता संग्राम 14 जून 1857 को हुआ है. युद्ध का नेतृत्व बांदा में अली बहादुर द्वितीय ने भूरागढ़ किले से किया. युद्ध सोच से भी ज़्यादा भयानक था. नवाबों द्वारा अंग्रेज़ों के खिलाफ इस लड़ाई में कानपूर, इलाहबाद और बिहार के क्रांतिकारी भी शामिल हुए. 5 जून 1857 को, क्रांतिकारियों ने ज्वाइंट मजिस्ट्रेट कॉकरेल की हत्या कर दी. मजिस्ट्रेट कॉकरेल को अंग्रेज़ों की अदालत में काले पानी और मृत्यु दंड की सज़ा सुनाई गई. 16 अप्रैल 1858 को व्हिटलुक बांदा पहुंचे और उन्होंने बांदा की क्रांतिकारी सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी.

इस लड़ाई में लगभग 3,000 क्रन्तिकारी भूरागढ़ किले में मारे गए, लेकिन बांदा के राज–पत्र में सिर्फ 800 लोगों के ही शहीद होने का ज़िक्र किया गया, इस युद्ध में 28 व्यक्तियों के नाम विशेषतौर पर मिलते हैं, किले के अंदर और बाहर कई क्रांतिकारियों की कब्रें पाई जाती हैं. किला कई सालों तक ब्रिटिशों के अधीन रहा.

Bhuragrah Fort
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संजय निगम अकेला, जो समाजसेवी हैं और तमाम बुंदेलखंडी फिल्मों में काम कर चुके हैं, बताते हैं भूरागढ़ का किला सिर्फ एक इतिहास का पन्ना या टुकड़ा नहीं है. जो की वक़्त के साथ पुराना हो जाएगा या ढह जायेगा. यह बलिदान, देशभक्ति, संप्रभुता और समानता का प्रतीक है. यह किला उस लड़ाई का गवाह है जहां अलग–अलग संप्रदायों, नस्लों, समुदायों, धर्मों के लोगों ने एक दूसरे का हाथ थाम, विदेशी शासकों के खिलाफ लम्बी जंग लड़ी थी. और इसी लड़ाई में ब्रिटिश शासन से आज़ादी प्राप्त करने के लिए बाँदा को भारत का पहला शहर बनाया गया था. बाँदा का इतिहास अभी और आने वाली कई पीढ़ियों को गौरवांवित होने का मौका देता रहेगा.

केवल बहादुरी नहीं, मोहब्बत का भी प्रतीक है भूरागढ़ किला
मकर संक्रांति से 5 दिन पहले भूरागढ़ किले में "आशिकों का मेला' लगता है. अपने प्रेम को पाने के लिए हज़ारों जोड़े इस दिन यहां आकर विधिवत पूजा करते हैं और मन्नत मांगते हैं. हर साल इस किले के नीचे बना नटबाबा के मंदिर में मेला लगाया जाता है. मेले में दूर–दूर से लोग आते हैं. कहते हैं कि यह जगह प्रेम करने वालों के लिए इबादगाह से कम नहीं है. जहां आकर उन्हें लगता है कि इस जगह मन्नत मांगने से उन्हें उनका मनचाहा प्रेम मिल जाएगा. हालांकि, इस मंदिर और नटबाबा के बारे में आपको इतिहास में कुछ नहीं मिलेगा. लेकिन बुंदेलियों के दिलों में आपको नटबाबा की कहानी ज़रूर मिलेंगी.  

क्या है नटबाबा मंदिर की कहानी?

निगम बताते हैं माना जाता है कि तकरीबन 600 साल पहले महोबा जिले के सुगिरा के रहने वाले नोने अर्जुन सिंह भूरागढ़ दुर्ग के किलेदार थे. किले से कुछ दूर मध्यप्रदेश के सरबई गाँव में रहने वाला नट जाति का 21 साल का युवक किले में नौकर था. किलेदार की बेटी को नट बीरन से प्यार हो गया. जिसके बाद वह अपने पिता यानी किलेदार से नट से शादी करवाने के लिए ज़िद्द करने लगी. नोने अर्जुन सिंह ने अपनी बेटी के सामने शर्त रखी कि अगर बीरन नदी के उस पार  बांबेश्वर पर्वत से किले तक नदी, सूत की रस्सी (कच्चे धागे की रस्सी) पर चढ़कर किले तक आएगा तभी उसकी शादी राजकुमारी के साथ कराई जाएगी. बीरन ने नोने अर्जुन सिंह की शर्त मान ली. खास मकर सक्रांति के दिन वह सूत पर चढ़कर किले तक आने लगा. चलते–चलते उसने नदी पार कर ली लेकिन जैसे ही वह किले के पास पहुंचा, नोने अर्जुन सिंह ने किले से बंधे सूत के धागे को काट दिया. बीरन ऊंचाई से चट्टानों पर आ गिरा और उसकी मौत हो गई. जब नोने अर्जुन सिंह की बेटी ने किले की खिड़की से बीरन की मौत देखी तो वह भी किले से कूद गई और उसी चट्टान पर उसकी भी मौत हो गई. दोनों प्रेमियों की मौत के बाद, किले के नीचे ही दोनों की समाधि बना दी गई,  जिसे बाद में मंदिर के रूप में बदल दिया गया.

क्या कहते हैं रत्ना बाबा

रत्ना बाबा, जो मंदिर के मुख्य पुजारी हैं, उन्होंने बताया कि यहां तमाम जोड़ें अपने प्यार के लिए मन्नतें मांगने आते हैं. उनका कहना है कि नट बाबा की आत्मा आज भी इसी किले में वास करती है और जोड़ों को आशीर्वाद देती है.