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गुजरात का वो गांव...जहां नाई नहीं काटते थे दलितों के बाल, अब जाकर टूटी 78 साल पुरानी बंदिश

79वां स्वतंत्रता दिवस इस बार गुजरात के बनासकांठा जिले के इस गांव के लिए खास रहा. आजादी के 78 साल बाद ही सही लेकिन यहां जो एक बड़ा सामाजिक बदलाव देखने को मिल रहा है. उसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम होगी.

गांव में पहली बार नाई ने काटे बाल.(Photo: Brijesh Doshi/ITG) गांव में पहली बार नाई ने काटे बाल.(Photo: Brijesh Doshi/ITG)
हाइलाइट्स
  • पहली बार दलितों के लिए खुले दरवाजे

  • गांव में हर वर्ग में खुशी की लहर

देश आजादी का 79वां साल मना रहा है, लेकिन गुजरात के बनासकांठा जिले के एक छोटे से गांव आलवाड़ा के लिए ये आजादी कुछ खास रही. वजह थी इस गांव के दलित समुदाय को पहली बार गांव की नाई की दुकानों में बाल और दाढ़ी कटवाने का हक मिला है. जी हां, आजादी के 78 साल बाद इस गांव में दशकों पुरानी एक भेदभावपूर्ण परंपरा का अंत हुआ, जो अब तक जाति के नाम पर लोगों की बुनियादी जरूरतों को भी कुचल रही थी.

आलवाड़ा गांव की आबादी करीब 6,000 है, जिसमें लगभग 250 लोग दलित समुदाय से हैं. सालों से यह समुदाय गांव के भीतर मौजूद नाई की दुकानों में बाल या दाढ़ी नहीं कटवा सकता था. इसके लिए उन्हें गांव से बाहर जाना पड़ता था. नाई समाज इसे पुरानी परंपरा बताकर निभाता रहा, लेकिन इस परंपरा की शुरुआत कब और कैसे हुई, यह किसी को ठीक से याद नहीं.

पहली बार दलितों के लिए खुले दरवाजे
इस महीने की 7 तारीख को गांव में एक ऐतिहासिक पहल हुई. गांव के बुजुर्गों, पुलिस प्रशासन और सामाजिक कार्यकर्ताओं के सहयोग से गांव की सभी नाई की दुकानों ने पहली बार दलित समुदाय के लिए अपने दरवाजे खोल दिए. बाल काटने के अधिकार के लिए लड़ाई लड़ने की नौबत नहीं आई, बल्कि समझदारी और संवाद के जरिए समाज ने मिलकर इस कुरीति का अंत किया.

गांव में हर वर्ग में खुशी की लहर
गांव के सरपंच सुरेश चौधरी बताते हैं, “हमने सोचा कि जब देश 79वीं आजादी मना रहा है, तो हमें भी अपने गांव में एक नई आजादी का रास्ता खोलना चाहिए. हमने सभी समुदायों के बुजुर्गों के साथ मिलकर बैठकों का आयोजन किया और सर्वसम्मति से इस भेदभाव को खत्म करने का निर्णय लिया.”

दलित समुदाय के ग्रामीण जशु परमार ने कहा, “ये हमारे लिए बहुत बड़ा दिन है. पहली बार हमें अपने ही गांव में सम्मान के साथ बाल कटवाने का मौका मिला है. अब हमें बाहर जाने की ज़रूरत नहीं.”

नाई समाज ने भी किया बदलाव को स्वीकार
इस बदलाव में नाई समाज ने भी सकारात्मक भूमिका निभाई. गिरीश नाम के एक नाई ने कहा, “पहले हम परंपरा निभा रहे थे, लेकिन अब हम भी इस बदलाव से खुश हैं. सभी इंसान बराबर हैं, और अब दुकान में हर कोई स्वागत योग्य है.”

गांव ने दिया पूरे देश को संदेश
आलवाड़ा गांव का यह कदम न केवल एक गांव की सामाजिक सोच को दर्शाता है, बल्कि यह पूरे देश को एक संदेश देता है. बदलाव तब ही आता है, जब समाज खुद पहल करे. यहां न कोई आंदोलन हुआ, न कोई नारेबाजी. सिर्फ बातचीत, समझदारी और इच्छाशक्ति ने वो कर दिखाया, जो सालों से नहीं हो पा रहा था.

-ब्रिजेश दोशी की रिपोर्ट