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History of Kheer: स्वाद से लेकर रीति-रिवाजों और आयुर्वेद तक, हर जगह होता है खीर का जिक्र, जानिए इसका इतिहास

History of Kheer: आज दस्तरखान में पढ़िए कहानी खीर की, जो न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में अलग-अलग रूपों में बनाई व खाई जाती है. अलग-अलग संस्कृतियों में खीर को अलग-अलग तरह से जाना जाता है.

History of Kheer History of Kheer
हाइलाइट्स
  • मुगल काल से भी जुड़ी हैं जड़ें 

  • ऐसे खीर बनी प्रसाद का रूप 

Rice Pudding: बात खीर (Kheer) की हो आपके मुंह में पानी न आए, ऐसा हो ही नहीं सकता है. पूजा-पाठ, शुभ अवसरों से लेकर आयुर्वेद तक, हर जगह खीर का जिक्र होता है. भारतीय खान-पान ही नहीं बल्कि हमारी धार्मिक संस्कृति का भी बहुत ही अहम हिस्सा है खीर क्योंकि सनातन धर्म में खीर का प्रसाद बहुत ही शुभ माना जाता है. लेकिन अगर कोई आपसे कहे कि जिस खीर के हम भारतीय दीवाने हैं उनका इतिहास सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है बल्कि चीन, जर्मनी, यूनान, रोमन और दुनिया भर में फैला हुआ है तो शायद आपको यकीन नहीं होगा. 

लेकिन हकीकत यही है कि खीर के अस्तित्व को लेकर कोई एक सहमति नहीं है बल्कि सबके पास अपनी-अपनी कहानियां और किस्से हैं. आज दस्तरखान में हम आपको बता रहे हैं कहानी खीर की. 

6000 ईसा पूर्व से है भारत से रिश्ता 
खीर के भारत में अलग-अलग रूप और नाम हैं जैसे पायेश, फ़िरनी, पायसम, गिल-ए-फ़िरदौस, मुहलाबिया, अरोज़ कोन लेचे, रिज़ बी हलीब, मिल्क्रेइस, आदि. लेकिन इन सभी डिशेज का मूल तीन सामग्रियों में निहित है - दूध, चीनी और चावल - ये सभी मिलकर आपके लिए एक स्वादिष्ट व्यंजन बनाते हैं. भारत और चावल के इस व्यंजन के प्रति इसका प्रेम 6000 ईसा पूर्व से चला आ रहा है. इसका पहला उल्लेख महाभारत और रामायण के महाकाव्यों में दर्ज किया गया था, जिसे संस्कृत में क्षीर (Ksheeram) या क्षीरिका या दूधपाक (Doodhpak) कहा जाता है, जिसका अनुवाद दूध से बना व्यंजन होता है. 

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केमिस्ट और भारतीय फूड हिस्टोरियन के. टी. आचार्य के अनुसार, खीर या पायस (Payesh) (जैसा कि दक्षिण भारत में जाना जाता है), काफी लोकप्रिय था और भारतीय साहित्य में इसके पहले उल्लेख में चावल, दूध और चीनी का इस्तेमाल किया गया था. पायस देश के हिंदू मंदिरों में एक प्रमुख भोजन था (और अब भी है), और इसे भक्तों को प्रसाद या मूर्ति भेंट के रूप में परोसा जाता है. इसे प्रसाद के रूप में कैसे परोसा जाने लगा था इसके पीछे भी एक कहानी है. 

ऐसे खीर बनी प्रसाद का रूप
किंवदंती है कि भगवान कृष्ण एक समय ऋषि का रूप धारणकर केरल के एक छोटे से शहर अम्बालापुझा के राजा के सामने पहुंचे. ऋषि के रूप में उन्होंने राजा को शतरंज के खेल के लिए चुनौती दी. उन्होंने कहा कि अगर वह जीत गए, तो इनाम के तौर पर राजा उन्हें चावल देंगे. लेकिन शर्त थी कि चावल से शतरंज की बिसात के वर्गों को भरा जाएगा और वह भी कुछ इस तरह कि हर एक वर्ग में इससे पहले वाले वर्ग से दुगने चावल रखे जाएं. जैसे पहले वर्ग में एक चावल का दाना तो दूसरे पर दो, और तीसरे पर चार... राजा इस बात पर सहमत हो गए. और निस्संदेह, ऋषि ने खेल जीत लिया जिससे राजा को बहुत आश्चर्य हुआ. 

लेकिन जब राजा ने शतरंज की बिसात पर चावल के दाने रखना शुरू किया, तो उन्होंने देखा कि आखिरी वर्ग आते-आते उनके महल के सारे चावल लगभग खत्म हो गए. राजा ने ऋषि के सामने हाथ जोड़ लिए तब कृष्ण जी ने उन्हें दर्शन देकर कहा कि तुम ये चावल मुझे मत दो, बस इतना करो कि मेरे मंदिर में आने वाला कोई भी भक्त बिना पायसम के न जाए. पायसम (Payasam) खीर का ही दक्षिणी रूप है और मान्यता है कि तबसे ही खीर को प्रसाद रूप में बांटा जाने लगा. तब से राजा का वचन आज तक प्रसिद्ध अम्बालापुझा पाल (दूध) पायसम के रूप में प्रचलित है. 

मुगल काल से भी जुड़ी हैं जड़ें 
खीर का इतिहास सिर्फ सनातन धर्म या मंदिरों से नहीं जुड़ा है. बल्कि मुगल सल्तनत ने भी इसे नया रूप दिया- फ़िरनी (Phirni), जिसकी जड़ें फ़ारसी में थीं. परोसते समय, फ़िरनी (Firni) को सूखे मेवे, गुलाब की पंखुड़ियां और चांदी का वर्क या खाने योग्य चांदी की पत्तियों के साथ मिट्टी के बर्तन में रखा जाता है, जिसे शिकोरा या कुल्हड़ कहा जाता है. हालांकि, फिरनी को भारत में कौन लाया, इस बात पर बहस होती रहती है. मध्य पूर्व में खीर मध्य पूर्वी रसोइयों द्वारा बनाए गए अनाज के व्यंजनों से मिलती जुलती है. तब इसे शीर बेरिंज कहा जाता था और देवदूतों का भोजन माना जाता था.

हालांकि, इसका पहला उल्लेख पाक कला पुस्तकों के बजाय चिकित्सा ग्रंथों में पाया जा सकता है क्योंकि यह अच्छे पोषण से भरपूर था और आसानी से पच सकता था. हालांकि इसकी शुरुआत लोगों के लिए एक इलाज के रूप में हुई, लेकिन जल्द ही इसे एक शाही व्यंजन के रूप में बनाया जाने लगा. जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, इस मिठाई का सेवन विशेष अवसरों पर किया जाने लगा. इसे गिल ए फ़िरदौस (Gil-e-firdaus) भी कहा जाता है.

चीन के पास है अपनी कहानी
खीर की जड़ें चीन के मंगोलिया से भी जुड़ी हैं जो 1047 ईसा पूर्व चीन में पश्चिमी झोउ राजवंश के समय का है. चीन को चावल की पहली खेती करने वाले देश के रूप में जाना जाता है और चीनी खीर को 'आठ खज़ाना' या 'आठ रत्नों वाला' चावल दलिया के रूप में जाना जाता है.

बताते हैं कि इस व्यंजन का जन्म तब हुआ जब चीनी सम्राट झोउ को आठ विद्वानों ने सत्ता से हटाया. विद्वानों को पड़ोसी राज्य के एक सम्राट (राजा वू) ने भर्ती किया था, और वे निरंकुश राजा को सत्ता से हटाने में सफल रहे. इन शूरवीरों को उनकी बहादुरी के लिए पुरस्कृत करने के लिए, उन्हें पुरुषों के चावल पर आधारित मिठाई 'आठ खजाने' या शहद में भिगोए फल और किशमिश से पुरस्कृत किया गया. इसके अलावा, आठ नंबर को चीनी संस्कृति में भाग्यशाली माना जाता है. 

दुनियाभर में अलग-अलग रूप
आपको बता दें कि खीर एक सर्वव्यापी व्यंजन है. रोमन लोग मिठाई के बजाय इस व्यंजन को अपने पेट के लिए शीतलक या कुलेंट के रूप में इस्तेमाल करते थे. पहले चावल को उबाला जाता था और उसे मीठा स्वाद देने के लिए गाय के दूध और फिर चीनी के साथ मिलाया जाता था. हालांकि, जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, इसे खाना एक औपचारिक संबंध में बदल गया, जिसमें इसे एक उत्सव के व्यंजन के रूप में परोसा जाता है - चाहे वह शादी हो, जन्मदिन हो, या कोई खास खाना. इटली में, कई शेफ रिसोट्टो कुकिंग स्टाइल के साथ खीर बनाते हैं. 

जर्मन लोग इसे मिल्क्रेइस (Milchreis) कहते हैं, स्पेनवासी इसे अरोज़ कोन लेचे (Arroz Con Leche) कहते हैं, मलेशियाई इसे पुलुट हिटम (pulut hitam) कहते हैं और यूनानी इसे रिज़ोगालो (Rizogalo) कहते हैं. आज, प्रत्येक महाद्वीप, देश और कस्बे में खीर का एक अलग रूप है.