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इस IAS अफसर की पहल.... 470 महिलाएं.... और रोजगार के अवसर में बदल गया प्लास्टिक कचरा

गांवों में लोग या तो कचरा जला देते थे या नदियों में बहा देते थे. यह स्पष्ट था कि कोई प्रणाली नहीं थी, कोई समाधान नहीं था और लोगों को उम्मीद भी नहीं थी कि कुछ बदलेगा.

IAS Manoj Mahajan (Photo: Instagram) IAS Manoj Mahajan (Photo: Instagram)

ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले के जनजातीय गांवों में सुबह 7 बजे रंग-बिरंगी साड़ियों में सजी महिलाएं, हाथों में दस्ताने, चेहरों पर मुस्कान और दिलों में एक मकसद लिए, ट्राइसाइकिल और इलेक्ट्रिक वाहनों पर सवार होकर निकल पड़ती हैं. उनका रास्ता दफ्तरों या निर्माण स्थलों की ओर नहीं, बल्कि घरों के दरवाज़ों, गलियों और बाज़ारों की ओर होता है. इन्हें यहां स्वच्छता साथी कहा जाता है, और ये जो काम करती हैं, वह पूरे समाज की कचरे को लेकर सोच को बदल रहा है.

इस आंदोलन के पीछे हैं IAS अधिकारी मनोज सत्यवान महाजन, सुंदरगढ़ के जिला कलेक्टर और 2019 बैच के अफसर. इन गांवों में कचरा प्रबंधन कभी एक चुनौती थी, वह अब रोजगार और स्थानीय गौरव का एक मॉडल बन चुका है.

'आमा सुंदरगढ़, स्वच्छ सुंदरगढ़'
जब मनोज महाजन ने यहां का कार्यभार संभाला, तो उन्होंने सड़कों के किनारे प्लास्टिक के ढेर, तालाबों में तैरता कचरा, या जलता हुआ प्लास्टिक देखा. गांवों में लोग या तो कचरा जला देते थे या नदियों में बहा देते थे. यह स्पष्ट था कि कोई प्रणाली नहीं थी, कोई समाधान नहीं था और लोगों को उम्मीद भी नहीं थी कि कुछ बदलेगा.

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स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) अपने दूसरे चरण में प्रवेश कर रहा था. लेकिन सुंदरगढ़ जैसे ग्रामीण इलाकों को एक नारे के साथ-साथ सिस्टम की भी जरूरत थी. उन्होंने देखा कि लोग जागरूक नहीं थे और असहाय महसूस करते थे. उन्हें नहीं पता था कि कचरे का और क्या किया जा सकता है. और फिर जन्म हुआ- आमा सुंदरगढ़, स्वच्छ सुंदरगढ़ का.

2021 में शुरू हुई यह ज़िला-स्तरीय पहल UNICEF की तकनीकी सहायता से शुरू हुई. अर्बन-रूरल कन्वर्जेंस मॉडल ने ग्रामीण और शहरी कचरा प्रबंधन के बीच की खाई को पाटने का काम किया. सुंदरगढ़ अब बदलाव के लिए तैयार था.

महिलाओं को बनाया गया वेस्ट वॉरियर्स
लेकिन इस योजना को असली जीवन महिलाओं ने दिया. जिले ने ग्रामीण महिलाओं को प्रशिक्षित करना शुरू किया. सिर्फ कचरा इकट्ठा करने के लिए नहीं, बल्कि पूरे कचरा प्रबंधन की चेन को चलाने के लिए- घर-घर जाकर कचरा छांटना, उसे संसाधित करना, और फिर मशीनों जैसे श्रेडर और बैलर का संचालन करना. महिलाएं इस मिशन का केंद्र बन गईं.

एकमात्र केंद्र कुआरमुंडा से शुरू होकर, यह मॉडल 1,682 गांवों तक फैल गया, और अब लगभग 3.6 लाख घरों को कवर करता है- यानी जिले की लगभग 70% ग्रामीण आबादी को. आज 470 महिलाएं 6,500 रुपये से 7,500 रुपये प्रति माह कमाती हैं, वह भी ऐसा काम करके जो पहले उनके गांवों में था ही नहीं.

प्लास्टिक: कचरा नहीं, संसाधन
कचरे के संग्रहण के बाद क्या होता है? असली बदलाव तो यहीं से शुरू होता है. PET बोतल जैसे हाई-वैल्यू वाले प्लास्टिक को रिसाइक्लर्स को भेजा जाता है. मल्टी-लेयर्ड पैकेजिंग वाले प्लास्टिक को सीमेंट फैक्ट्रियों में ईंधन की तरह या सड़क निर्माण में उपयोग किया जाता है. स्थानीय सामग्री पुनर्प्राप्ति केंद्र (MRFs) में सब कुछ छांटा और तैयार किया जाता है।

अब तक 360 टन से अधिक प्लास्टिक को संसाधित किया जा चुका है और 17 लाख रुपये की आय हुई है. यह पैसा प्रोजेक्ट को बनाए रखने में लगता है- वाहन, प्रशिक्षण, वेतन आदि में. जिससे यह मॉडल आत्मनिर्भर बना है.

पहचान और असली बदलाव
2024 में सुंदरगढ़ को स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के तहत प्लास्टिक कचरा प्रबंधन में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाला जिला घोषित किया गया. 14 करोड़ रुपये का निवेश किया गया और फायदा- साफ गांव, सशक्त महिलाएं, और एक ऐसा मॉडल जो पर्यावरण, अर्थव्यवस्था और समुदाय- तीनों को जोड़ता है.

यह जिला अब रुकने वाला नहीं है. अगले साल तक इसे 700 महिलाओं तक विस्तार देने की योजना है. यह सिर्फ कचरे की बात नहीं है. यह सम्मान, रोज़गार, स्वास्थ्य और स्थानीय स्वामित्व की बात है. एक सोच, एक प्रयास और कुछ जमीनी हौसले के साथ सुंदरगढ़ आज न सिर्फ साफ है, बल्कि आत्मविश्वासी भी है.