
जयपुर का जवाहर कला केंद्र इन दिनों रंगों, संगीत और लोक संस्कृति के अनुपम संगम से सराबोर है. अवसर है 28वें लोकरंग महोत्सव का, जहां भारत के 25 राज्यों से आए करीब 2500 कलाकार अपनी-अपनी परंपराओं, वेशभूषाओं और कलाओं के माध्यम से देश की सांस्कृतिक विरासत को जीवंत कर रहे हैं. 11 दिनों तक चलने वाले इस आयोजन में प्रतिदिन 30 से अधिक प्रस्तुतियों के ज़रिए भारत की लोकधारा की विविधता और समृद्धि का अद्भुत नज़ारा देखने को मिल रहा है.
लोकरंग महोत्सव का आयोजन-
इस बार लोकरंग में देश के कोने-कोने से लोक कलाओं की नयी विधाएं शामिल की गई हैं. लक्षद्वीप का कोलकली, परिचाकाली और उलक्कामुट्टू, उत्तराखंड का गंगाडू, तमिलनाडु का कलाई कुजु, सिक्किम का सिंगी छम, असम का हाजोंग, गोआ का तुगिया मारुलो, केरल का चेंदा और हिमाचल का लम्बडा नृत्य इस साल की नई आकर्षक प्रस्तुतियों में से हैं. हर राज्य अपनी अनोखी पहचान के साथ मंच पर उपस्थित है, जिससे महोत्सव एक सजीव भारत का प्रतीक बन गया है.
लंगा गायन से बदला माहौल-
सोमवार को जब महोत्सव के सातवें दिन की शाम ढली तो मध्यवर्ती सभागार में लोक संगीत की मधुर ध्वनियाँ गूंज उठीं. शुरुआत हुई बाड़मेर के बुंदु खान लंगा और उनके समूह द्वारा प्रस्तुत लंगा गायन से. सिंधी सारंगी और खड़ताल की थाप पर उन्होंने राग खमेती में ‘आयो रे हेली’ जैसे गीतों से शाम का स्वागत किया. बारात और मायरे के गीतों के साथ राजस्थान की मिट्टी की खुशबू मंच पर फैल गई.
इसके बाद महाराष्ट्र के कलाकारों ने बड़े-बड़े मुखौटे लगाकर सौंगी मुखवटे लोकनृत्य की प्रस्तुति दी, जिसने दर्शकों को रोमांचित कर दिया. देवी-देवताओं की उपासना पर आधारित इस नृत्य में भक्ति और नाट्य का सुंदर संगम देखने को मिला. राजस्थान की युवा कलाकारों ने सिर पर जलती चरी रखकर चरी नृत्य प्रस्तुत किया, उनकी लय और संतुलन ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया.
तलवार रास की प्रस्तुति-
गुजरात से आए कलाकारों ने तलवार रास की प्रस्तुति में देवी दुर्गा को समर्पित अद्भुत शक्ति का प्रदर्शन किया. वहीं, मयूर नृत्य में राजस्थानी कलाकारों ने “मोरियो आच्छो बोल्यो रे आधी रात में” गीत पर वर्षा ऋतु के आगमन की खुशी बिखेरी. महाराष्ट्र की प्रसिद्ध लावणी ने अपनी तेज़ ताल और नृत्यात्मक मुद्राओं से वातावरण में ऊर्जा भर दी.
अफ्रीकी परंपरा और भारतीय लोकधरा का संगम-
राजस्थान के सूर्यवर्धन सिंह की भवाई प्रस्तुति में लय, भाव और कौशल का ऐसा संगम देखने को मिला कि सभागार तालियों से गूंज उठा. किशनलाल व समूह ने ढोल-थाली के साथ राजस्थान की माटी की झंकार मंच पर बिखेरी. गुजरात के भरूच रतनपुर से आए कलाकारों ने सिद्दी धमाल के ज़रिए अफ्रीकी परंपरा और भारतीय लोकधारा का दुर्लभ संगम दिखाया, बाबा गोर की वंदना में हुई यह प्रस्तुति दर्शकों के लिए यादगार बन गई.
शाम की अंतिम प्रस्तुति में हरियाणा के रोहतक से आए कलाकारों ने ‘नंदि के बीरा’ गीत पर पारंपरिक घूमर नृत्य प्रस्तुत किया. माथे पर बोरला, गले में कंठी और पैरों में चांदी के कड़े पहने कलाकारों ने जब ताल पर थिरकना शुरू किया तो पूरा सभागार उत्सव में डूब गया.
गौरतलब है कि लोकरंग महोत्सव की शुरुआत 1994 में हुई थी. प्रारंभ में यह मात्र तीन दिनों का आयोजन था, जो बाद में पांच दिन का हुआ और अब 2025 में अपने 28वें संस्करण में पूरे 11 दिनों के भव्य स्वरूप में सामने आया है. यह विस्तार न केवल इसकी लोकप्रियता का प्रमाण है, बल्कि इस बात का भी कि भारत की लोककलाओं के प्रति लोगों का प्रेम निरंतर बढ़ रहा है.
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