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एक ऐसा स्कूल जिसमें सर पर ना छत है ना बैठने के लिए बेंच, लेकिन गरीब बच्चों के लिए उम्मीद की किरण है यह शिक्षक

सतीश और उनके स्कूल में पढ़ने वाले  बच्चों के पास संसाधनों की कमी ज़रूर है लेकिन पढ़ने और पढ़ाने की उम्मीद ने उन्हें बांध रखा है. सतीश खुद पेशे से एक शिक्षक हैं और प्राइवेट स्कूल में बच्चों को पढ़ते हैं. अपनी नौकरी के बाद वे बचा हुआ समय इन्हीं बच्चों के साथ बिताना पसंद करते हैं.

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हाइलाइट्स
  • सतीश खुद पेशे से एक शिक्षक हैं और प्राइवेट स्कूल में बच्चों को पढ़ते हैं.

  • इस मिशन में उनकी पत्नी के साथ साथ 14 वॉलिंटियर भी सहयोग कर रहे हैं.

उत्तरप्रदेश में ऐसी कई बस्तियां हैं, जहां पर रहने वाले बच्चों के हाथ में कलम और किताब की बजाय मजबूरियों और बेबसी का भविष्य है. अपने दो वक्त की रोटी के लिए यह लोग सड़क पर भीख मांगकर गुज़ारा करते हैं. इन्ही बच्चों के भविष्य को सुधारने का और एक सही दिशा देने का काम कर रहे हैं सतीश चन्द्र शर्मा. सतीश अपनी खुद की पहल से बच्चों को पढ़ाने का काम कर रहे. इनकी पाठशाला भी अनूठी है. संसाधनों की कमी के कारण इनकी कक्षा में बैठने के लिए बेंच नहीं है, सिर के ऊपर छत नहीं है, पढ़ाई के लिए चंद किताबे हैं और मन में सिर्फ हौसला और उम्मीद.

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सतीश और उनके स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के पास संसाधनों की कमी ज़रूर है लेकिन पढ़ने और पढ़ाने की उम्मीद ने उन्हें बांध रखा है. विपरीत परिस्थितियों में भी सतीश की कक्षाएं कभी रुकती नहीं. चाहे बारिश का मौसम हो या फिर ठंड का उनकी कक्षाएं लगातार जारी रहती हैं.

सतीश बताते हैं कि उन्होंने इस मिशन की शुरुआत आज से सात या आठ साल पहले की थी. शुरुआत ने उनकी कक्षाओं में सिर्फ बीस बच्चे ही आते थे लेकिन अब दो सौ से भी ज्यादा बच्चे पढ़ रहे हैं.

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सतीश कहते हैं की ,"जब मैं इन झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले बच्चों को स्कूल बैग की जगह कई बार हाथ में कटोरा लेकर बाल श्रम करते देखता तब उदास हो जाता था. सोचता था इन बच्चों का क्या कसूर है. इन्हें इनके बुनियादी हक भी नहीं मिल पा रहे हैं. इन बच्चों की प्रथम पाठशाला वर्ष 2008 में स्ट्रीट स्कूल के नाम से शुरू हुई. मैंने अकेले ही लगभग 20 से 25 बच्चों से वर्ष 2008 में मथुरा शहर के नवादा स्थित झुग्गी बस्ती में  यह कार्य  शुरू किया. बच्चों को निःशुल्क बैग स्लेट और कॉपी और कुछ खाने के लिए बिस्कुट टॉफी से शिक्षा एवम संस्कार की बयार बह चली जो अभी भी अनवरत रूप से जारी है."


सतीश कहते हैं कि सबसे मुश्किल है इन बच्चों के माता पिता को शिक्षा के महत्व के बारे में समझना. इनके माता पिता का यही मानना रहता है कि बच्चा पढ़ लिखकर क्या करेगा, करना तो उसे मजदूरी ही है. इसी सोच को बदलना एक चैलेंजिंग टास्क होता है. इसी काम को सतीश बखूबी निभा रहे हैं.

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सतीश खुद पेशे से एक शिक्षक हैं और प्राइवेट स्कूल में बच्चों को पढ़ते हैं. अपनी नौकरी के बाद वे बचा हुआ समय इन्हीं बच्चों के साथ बिताना पसंद करते हैं. वे कहते हैं कि उन्हें इन बच्चों को पढ़ाने से उन्हें एक अलग ही खुशी मिलती है. और इसलिए वे इन बच्चों को समय निकालकर पढ़ाने आते हैं.

गौरतलब है कि बच्चों में भी शिक्षा के प्रति उतनी ही रुचि है. इसलिए विपरीत परिस्थितियों में भी वे अपना अभ्यास जारी रखते हैं. इस मिशन में उनकी पत्नी के साथ साथ 14 वॉलिंटियर भी सहयोग कर रहे हैं.

सतीश कहते हैं कि उनका सपना है कि इस समाज में मौजूद हर एक बच्चे को पढ़ाई का बराबर से हक मिले. वे कहते हैं कि उनकी कोशिश रहेगी कि वह ज्यादा से ज्यादा बच्चों को अपने इस मिशन के तहत जोड़ सकें और उन्हें एक अच्छा भविष्य देने की कोशिश कर सकें.