

हर महान कहानी की तरह, यह कहानी भी एक छोटे से शहर- पंजाब के बठिंडा से शुरू होती है, जहां एक 14 साल की लड़की अपनी शिक्षा पूरी लगन से कर रही थी… उसका नाम था आंचल भठेजा, और उसके सपने बड़े थे… पर एक दिन सब बदल गया… मेडिकल इमरजेंसी ने उसकी आंखों की रोशनी पूरी तरह से छीन ली…
डॉक्टरों ने चेताया, “कुछ दिनों में सर्जरी नहीं करोगी, तो पूरी आंखों की रोशनी खो दोगी.” उस पल ने न सिर्फ उसकी आंखों की रोशनी छीन ली, बल्कि उसके जीवन को एक ऐसी दिशा दी, जिसकी किसी को कल्पना तक न थी.
बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौक रखने वाली आंचल अब अंधकार में फंस चुकी थी. फिर भी, उसने हार नहीं मानी. दसवीं की बोर्ड परीक्षा में, उसने अपने स्कूल में टॉप किया- बिना देखे, स्क्राइब की मदद से. लेकिन इस दौरान जब स्कूल में एडमिशन की बात हुई तो स्कूल ने तर्क दिया कि ‘यह नॉर्मल स्कूल है, तुम स्पेशल स्कूल जाओ.’
बस इसी तर्क ने आंचल के मन में सवाल खड़े कर दिए… “क्या शिक्षा का अधिकार केवल 'नॉर्मल' बच्चों का है?” इसी सवाल ने उसके अंदर एक आग जलाई- एक आवाज बनाई, जो अब कॉलेज और कोर्ट तक गूंजने वाली थी.
आंचल भठेजा, नेशनल लॉ स्कूल, बेंगलुरु (NLSIU) की पहली दृष्टिबाधित छात्रा, सुप्रीम कोर्ट में वादी का पक्ष रखने वाली पहली दृष्टिबाधित महिला वकील बनकर इतिहास रच चुकी हैं. 6 जून, 2025 को आंचल ने उत्तराखंड के सिविल जज (जूनियर डिवीजन) भर्ती में दृष्टिबाधित अभ्यर्थियों के बहिष्करण को चुनौती दी.
आंचल का जन्म बठिंडा, पंजाब में हुआ है और उन्हें जन्म के समय शुरुआत में कम दिखाई देता था, लेकिन रेटिनोपैथी ऑफ प्रीम्यूरिटी (ROP) के कारण कक्षा 10 के बोर्ड परीक्षाओं से ठीक पहले उनकी आंखों की रोशनी चली गई.
सिस्टम को चुनौती देना
इसके बाद आंचल ने कुछ ऐसा कर दिखाया जो शायद किसी ने न सोचा हो. उन्होंने शहर की लगभग 200-300 पंचायतों में फोन लगाया और पूछा: “गांव में दृष्टिबाधित लोग क्या करते हैं?” उन्हें उत्तर मिला: “वो तो अंधे हैं- खाना नहीं खा सकते, नहा नहीं सकते.”
यह पहला झटका था… लेकिन अंत नहीं. समझ आया कि यह धारणा सिर्फ दोहरे अज्ञान का परिणाम नहीं, बल्कि पूरे समाज का दर्दनाक स्वभाव है. इसी समय आंचल ने तय कर लिया कि वे इस समुदाय के लिए कुछ करेगी. और वह थी- कानून.
आंचल ने GNT डिजिटल को बताया, “कानून वह माध्यम है जिससे इच्छाएं और भावनाएं एक्शन में बदल सकती हैं.” उन्होंने CLAT की तैयारी शुरू की, SAP कैटेगरी में ऑल इंडिया रैंक 4 हासिल किया और देश के सबसे प्रतिष्ठित क़ानूनी संस्थानों में से एक- एनएलएसआईयू, बेंगलोर में दाखिला लिया.
कॉलेज कैसा रहा?
कॉलेज में आंचल ने महसूस किया कि दाखिला लेने भर से काम नहीं चलता- वास्तविक संघर्ष तो शुरुआत में ही होता है. कॉलेज में प्रवेश मिला, लेकिन बुनियादी सुविधाएं गायब थीं. लाइब्रेरी में कोई स्क्रीन रीडर नहीं था, स्पॉट पर डिजिटल या ब्रेल मटेरियल नहीं उपलब्ध था, और परिसर ऐसी इमारतों से लैस था कि एक अंधी लड़की के लिए उसमें नेविगेट करना विशाल चुनौती था.
लेकिन आंचल खामोशी से टकराने वाली नहीं थी. उसने दृढ़ता से अपनी बात रखी- प्रोफेसरों से अनुरोध किया, प्रशासन से डॉक्यूमेंट स्कैन की व्यवस्था मांगी, और धीरे-धीरे बदलाव लाने की पहल शुरू की. यह रास्ता आसान नहीं था. आंचल बताती हैं कि कई प्रोफेसरों ने उनकी मदद की, सहपाठियों ने कदम बढ़ाया. वे कहती हैं, “बहुत अच्छे लोग मिलना जरूरी नहीं, मुझे सिस्टम की जरूरत है- Equal Opportunity Policy, Grievance Redressal System यह सब वेबसाइट पर होना चाहिए.” आंचल का लक्ष्य केवल लोगों का सहारा लेना नहीं था- वे चाहती थीं, हर छात्र का अधिकार बने.
आंचल कहती हैं, “भारत में जनगणना 2011 के समय 3.3 मिलियन दिव्यांग व्यक्ति थे, और आज यह संख्या कहीं ज्यादा है. ऐसे में, सिर्फ ‘दया’ या ‘फिलैन्थ्रॉपी’ आधारित सुविधाएं पुरानी बात हो चुकी हैं- अब कॉम्प्लायंस द्वारा नियंत्रित नीतियों के तहत समावेशी व्यवस्था लागू होनी चाहिए. ये कोई शर्त नहीं होनी चाहिए ये तो सभी की ज़िम्मेदारी है. जिस तरह से सभी को अधिकार है ठीक उसी तरह दिव्यांगों को भी अधिकार है.”
वेबसाइटों में एक्सेसिबिलिटी की कमी
आंचल बताती हैं कि इस पूरे सफर के दौरान उन्होंने पाया कि भारत में वेबसाइटों की 95% तक एक्सेसिबिलिटी की कमी है, जो विकलांग उपयोगकर्ताओं को अक्षम बना देती है. स्क्रीन रीडर और OCR जरूरी हैं. इसके अलावा, सभी डॉक्युमेंट डिजिटली उपलब्ध करवाएं जाने चाहिए. इसके लिए ज़रूरी है कि फिजिकल और डिजिटल दोनों इंफ्रास्टक्टर में बदलाव होना चाहिए. वे कहती हैं, OCR और स्क्रीन रीडर सिर्फ सहायक तकनीक नहीं- आपकी कानूनी ज़िम्मेदारी है. ये पॉलिसी में लिखिए, सिस्टम का हिस्सा बनाइए.”
सुप्रीम कोर्ट में रखा अपना पक्ष
साल 2025 में आंचल अपने पहले सुप्रीम कोर्ट केस में वकालत करने पहुंचीं, वह सिर्फ अपने लिए नहीं थीं. वह उस पूरे समुदाय की आवाज थी जिसने न्याय पाना मुश्किल ही समझा था.
आंचल कहती हैं, “इस यात्रा में मैं अकेली नहीं थी. मेरे पिता, जिनके सहयोग में शुरुआत में पूरा परिवार विरोध करता था- वो मेरा सबसे बड़ा सहारा बने. मां जिन्होंने 2015 में दुनिया छोड़ी- उनकी यादें मेरी हिम्मत बनी रहीं. बड़ी बहन ऑस्ट्रेलिया में अपने पारिवारिक जिम्मों को निभा रही हैं, लेकिन दूरी के बावजूद मुझे निरंतर प्रेम और विश्वास मिलता रहा. वहीं स्कूल और कॉलेज के दोस्त हर कदम पर मेरे साथ रहे. ये लोग मुझे न केवल हंसाते, दुखाते, बल्कि मुझे मजबूत बनाते हैं.”
आंचल अब न केवल वकील के तौर पर मुकदमे लड़ रही हैं, बल्कि “Mission Accessibility” जैसे अभियानों से जुड़ी हुई हैं. वे क्वीर हकों के लिए भी लगातार बात करती हैं. उनका मानना है कि जब आत्मबल, समर्थन, नीतिगत बदलाव और व्यक्तिगत संघर्ष मिले- तो कोई भी बदलाव संभव होता है, जो केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं, बल्कि समाजों को बदलता है.