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Sustainable Living: मिट्टी के घर में रहता है यह परिवार... बच्चों को करा रहे होम स्कूलिंग... Natural Farming कर उगाया फूड फॉरेस्ट

राघव के घर के पीछे एक बगीचा है, जिसमें अमरूद, कटहल और 70 से ज़्यादा किस्म के फलदार पेड़ हैं. साथ ही, एक एकड़ खेत में वे धान, दालें, सब्जियां, औषधीय पौधे और यहां तक कि अपने पहनने के कपड़े के लिए कपास तक उगाते हैं.

Sustainable Living (Photo: Aikanthika Website) Sustainable Living (Photo: Aikanthika Website)

आजकल लोग भागती-दौड़ती जिंदगी से ब्रेक चाहते हैं. अपने बच्चों को केमिकल फ्री खाना खिलाना चाहते हैं और चाहते हैं कि बच्चों की जिंदगी शांति और सुकून से भरी हो. लेकिन यह इतना आसान नहीं है क्योंकि इसके लिए आपको तकनीक के साथ आए आरामों को भी छोड़ना पड़ेगा और लोगों के लिए ऐशो-आराम की जिंदगी को छोड़ना मुमकिन नहीं है. लेकिन आज हम आपको बता रहे हैं एक ऐसे परिवार के बारे में जिन्होंने न सिर्फ ऐशो-आराम को छोड़ा है बल्कि अपने लिए एक बिल्कुल प्राकृतिक और संतुलित जीवनशैली बनाई है. 

हरियाली ही इस परिवार की पहचान है, और 'प्राकृतिक जीवन' उनका मंत्र. यह कहानी है कर्नाटक के दावणगेरे जिले के हरिहर तालुक के मल्लनायकनहल्ली गांव के श्रीनिवास नगर में रहने वाले किसान राघव और उनके परिवार की. उनके घर का नाम है 'ऐकांतिका', जिसका अर्थ है “एकदम अनोखा” और सच में, यह नाम उनके जीवन को बखूबी दर्शाता है. यहां वह अपनी मां, पत्नी और दो बच्चों के साथ रहते हैं. 

प्राकृतिक खेती कर उगाया फूड फॉरेस्ट
राघव के घर के पीछे एक बगीचा है, जिसमें अमरूद, कटहल और 70 से ज़्यादा किस्म के फलदार पेड़ हैं. साथ ही, एक एकड़ खेत में वे धान, दालें, सब्जियां, औषधीय पौधे और यहां तक कि अपने पहनने के कपड़े के लिए कपास तक उगाते हैं. राघव जापानी किसान मसनोबू फुकुओका की प्राकृतिक खेती विधि से प्रेरित हैं. उन्होंने उनकी 'डू-नथिंग' (कुछ मत करो) पद्धति अपनाई है, जिसमें ज़मीन की बहुत कम जुताई होती है, कोई रासायनिक खाद या कीटनाशक नहीं डाला जाता और एक ही फसल बार-बार नहीं उगाई जाती.

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वे अपने खेत में नारियल, धान, मोटे अनाज, जड़ वाली सब्जियां, पत्तेदार साग, दालें, जड़ी-बूटियां और 70 से ज़्यादा किस्मों के फल उगाते हैं- जिनमें देशी और विदेशी दोनों शामिल हैं. सब्जियों की खेती के लिए वह "स्क्वायर फुट मॉडल" का उपयोग करते हैं, जिससे एक छोटे क्षेत्र में ज़्यादा उत्पादन हो सके. इसके साथ ही, वे देशी बीजों को बचाने और फैलाने के लिए एक छोटा-सा सामुदायिक बीज बैंक भी चलाते हैं. 

मिट्टी का घर, मिट्टी के बर्तन 
उनका घर भी एक मिसाल है,  इसमें सीमेंट और लोहे का बिल्कुल उपयोग नहीं किया गया. चूना, मिट्टी, पत्थर और लकड़ी से बना यह घर गर्मियों में ठंडा और सर्दियों में गर्म रहता है. उनके घर में खाना मिट्टी के बर्तनों में पकता है. फर्श नीम पाउडर से साफ किया जाता है. नहाने, बर्तन धोने और कपड़े साफ करने के लिए रीठा (soapnut/shikakai) का इस्तेमाल होता है. 

इतना ही नहीं, कपास उगाने के बाद वे खुद ही हाथ से सूत कातते हैं और उससे कपड़े व साड़ियां बनाते हैं. राघव के अनुसार, बाजार में मिलने वाले साबुन और शैम्पू में रसायन होते हैं जो हमारे शरीर और मिट्टी के लिए नुकसानदायक होते हैं. इसलिए उनका परिवार केवल प्राकृतिक विकल्पों का ही इस्तेमाल करता है. 

राघव ने खेत के पास एक खुला कुआं खुदवाया है और वह जल संरक्षण में विश्वास रखते हैं. उनका मानना है कि मिट्टी को हमने काफी नुकसान पहुंचाया है, अब हमें रुक जाना चाहिए. अगर हम उसे ज़हर देना बंद कर दें, तो वह खुद ही ठीक हो जाएगी.
 

 

 

 

 

बच्चों की पढ़ाई और होमस्कूलिंग
राघव के दोनों बच्चे स्कूल नहीं जाते. वे उन्हें घर पर ही खेती, बुनाई, जल संरक्षण, औषधीय ज्ञान और जीवन के अनुभवों के ज़रिए पढ़ाते हैं. उनका कहना है कि बच्चों को सिर्फ परीक्षा पास करने के लिए नहीं, बल्कि जीना सीखने के लिए पढ़ाना चाहिए. वे एक देशव्यापी होमस्कूलिंग नेटवर्क का हिस्सा हैं, जिसमें बंगलुरु के 200 से ज़्यादा परिवार जुड़े हुए हैं. 

कमाई नहीं, आत्मनिर्भरता प्राथमिकता
‘ऐकांतिका’ में उगाई गई फसलों का जो हिस्सा उनके काम में नहीं आता, उसे वे स्थानीय बाजार और ऑनलाइन बेचते हैं. आंध्र प्रदेश से तमिलनाडु तक लोग उनके उगाए चावल और सब्ज़ियां खरीदने के लिए इंतज़ार करते हैं. उनके काले चावल की सबसे ज़्यादा मांग है, यह वही चावल है जो पहले सिर्फ राजघरानों के लिए उगाया जाता था.

राघव पिछले कई वर्षों से चावल की किस्मों पर रिसर्च कर रहे हैं. हर किस्म को समझने और उसे अच्छे से उगाने में 2 से 3 साल लगते हैं. यही वजह है कि सुगंधी चावल बिरयानी के शौकीनों की पसंद बना है. राघव को न तो उत्पादन की चिंता है और न ही मुनाफे की. उनका लक्ष्य बस इतना है कि वे प्रकृति के साथ मिलकर, साधारण लेकिन संतोषजनक जीवन जिएं- सिर्फ उतना ही लें, जितना ज़रूरी हो.