

"शफीक भाई, उठ जाओ, सहरी का वक्त हो गया...."
"हां जाग गया हूं..."
जाग जाओ, उठ जाओ, सहरी कर लो. रमज़ान का महीना आते ही अब भी सूरज की पहली किरण निकलने से पहले दिल्ली के कुछेक इलाकों में इस तरह की आवाज़ें सुनाई देती हैं. ये आवाज़ें लगाने वालों को सहरीवाला (Sehriwala) या ज़ोहरीदार (Zohridar) कहा जाता है. यह काम वे किसी नौकरी के तहत तो नहीं करते लेकिन रोज़ा रखने के लिए लोगों को सहरी के वक्त जगाना इनकी ज़िम्मेदारी होती है.
खास बात है कि सहरीवालों की परंपरा पिछले 1400 सालों से चली आ रही है. तकनीक के उद्भव के बाद इस परंपरा की ज़रूरत भले ही खत्म हो गई है, लेकिन कई सहरीवाले हैं जो अब भी हाथ में डफली लेकर पूरे शौक-ओ-ज़ौक के साथ यह काम कर रहे हैं.
क्या है सहरीवालों का इतिहास?
सहरी में लोगों को आवाज़ देकर उठाने की परंपरा उतनी ही पुरानी है, जितनी की रमज़ान में रोज़े रखने की रिवायत. अरबी में यह भूमिका निभाने वाले व्यक्ति को मुसहराती (Musahrati) कहा जाता है. इस्लामिक इतिहास की किताबों के अनुसार, पैगम्बर मोहम्मद (स.अ.) के साथी बिलाल बिन रबाह दुनिया के पहले मुसहराती थे. वह मदीना शहर की गलियों में घूम-घूमकर लोगों को सहरी के लिए उठाते थे.
गौरतलब है कि सहरीवालों की कवायद सिर्फ भारत में ही मौजूद नहीं है. मिस्र, सीरिया, सुडान, सऊदी अरब, इराक, जॉर्डन, पाकिस्तान, बांग्लादेश और फलस्तीन में भी मुसहरातियों का इतिहास रहा है. भारत और पाकिस्तान में जहां इन्हें सहरीवाला या ज़ोहरीदार कहा जाता है, वहीं ओल्ड ढाका में इन्हें ढाकाइया के नाम से पहचाना जाता है. इंडोनेशिया में यह काम करने वाले व्यक्ति को केंटोगन कहा जाता है.
बेहद कठिन है सहरीवालों का काम
गला फाड़कर चिल्लाना और अपने घरों में सोते हुए लोगों को चिल्लाना कोई आसान काम नहीं. शिन्हुआ की एक रिपोर्ट दमिश्क के रहने वाले सहरीवाले अबु रबाह के हवाले से कहती है, "रमज़ान के महीने में मेरी ड्यूटी होती है लोगों को नमाज़ और सहरी के लिए जगाना."
अशर्क अल-औसात की एक रिपोर्ट अब्बास क़तिश नाम के एक सहरीवाले के हवाले से कहती है कि इस काम के लिए आपका स्टैमिना और सेहत बहुत अच्छी होनी चाहिए. क्योंकि उसे हर रोज़ लंबी दूरी तय करनी होती है. वह कहते हैं, "उसकी आवाज़ भी ऊंची होनी चाहिए और फेफड़ों में ज़ोर होना चाहिए. कविताएं पढ़ने की कला भी आनी चाहिए. एक सहरीवाले को लोगों को जगाने के लिए रातभर अल्लाह से दुआ करनी चाहिए."
तकनीक के बावजूद जिन्दा हैं सहरीवाले
तकनीक के उदय ने इंसान की कई ज़रूरतों को आसान कर दिया है. लेकिन यह तरक्की कई परंपराओं को भी निगल गई है. पहले अलार्म घड़ी और फिर फोन ईजाद होने के बाद लोग सहरी में उठने के लिए इनपर निर्भर रहने लगे. इस तरह धीरे-धीरे सहरीवालों की तादाद कम होती गई. हालांकि कई लोग ऐसे हैं जो अब भी शौक के साथ यह काम करते हैं.
द पेट्रियट की एक रिपोर्ट बताती है कि पुरानी दिल्ली में महज़ 5-6 सहरीवाले बचे हैं. इन्हीं में से एक हैं बस्ती मीर दर्द के रहने वाले इदरीस. उन्होंने धीरे-धीरे सहरीवालों की संख्या घटते हुए देखी है लेकिन फिर भी वह इसे करते रहना चाहते हैं. रिपोर्ट इदरीस के हवाले से कहती है, "मुझे रमज़ान के मुबारक महीने में रोज़ा रखने वालों को उठाने की ज़िम्मेदारी निभाने में शांति मिलती है. मैं जब तक ज़िन्दा हूं, तब तक यह करता रहूंगा."
इदरीस की तरह ही हैदराबाद में भी कई सहरीवालों ने इस परंपरा को जारी रखा है. सहरीवालों को लोग अकसर मिठाइयां, फल या दूसरे इनाम देकर धन्यवाद कहते हैं. भारत के अलावा अब भी कतर, इराक, सीरिया और फलस्तीन जैसे कई देशों में इस परंपरा को जिन्दा रखा जा रहा है.