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Navratri 2025: दो नहीं साल में चार बार आते हैं नवरात्रि... जानिए क्या है इनका महत्व... कैसे करें मां की साधना

नवरात्र की महत्ता केवल धार्मिक नहीं, वरन् दार्शनिक, वैज्ञानिक और सामाजिक भी है.

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भारतीय संस्कृति की जड़ें धर्म और साधना में गहराई तक व्याप्त हैं. यहां धर्म केवल कर्मकाण्ड नहीं, बल्कि वह धारणा है, जो जीवन में संकल्प, संतुलन, संयम और संबल देता है. इसी अर्थ में यहां धर्म की साधना की जाती है और नवरात्र उसी साधना का विराट् पर्व है. यह केवल उपासना नहीं, आत्मा और शक्ति का संवाद है. सच तो यह है कि नवरात्र सभी साधकों के लिए साधना का सार्वभौम पर्व है- गृहस्थ के लिए संतुलन, योगी के लिए चक्र-जागरण, तांत्रिक के लिए शक्ति-सिद्धि और सांसारिक जन के लिए मनःशांति का अवसर.

नवरात्र की महत्ता केवल धार्मिक नहीं, वरन् दार्शनिक, वैज्ञानिक और सामाजिक भी है. विदित है कि भारतीय मनीषा ने ब्रह्माण्ड को शिव और शक्ति की द्वंद्वात्मक एकता पर प्रतिष्ठित माना है- शिव चेतना हैं और शक्ति स्पंदन. चेतना बिना स्पंदन निस्तेज और स्पंदन बिना चेतना दिशाहीन. नवरात्र इसी सुप्त स्पंदन के उज्जागरण का अवसर है. इसलिए कहा गया है कि नवरात्र देवी-पूजन भर नहीं, बल्कि प्रकृति और चेतना के बीच संवाद की प्रक्रिया है, जिसमें साधक अपने भीतर के अंधकार में दीपक-सा प्रकाश उत्पन्न करता है. यहीं से एक मूल सत्य सामने आता है- यह जागरण माता का नहीं, अपितु स्वयं का है. देवी तो आदि-शक्ति हैं, सदैव जाग्रत, लक्ष्य अपने भीतर सोई शक्ति को जगाना है.

नवरात्र सभी के लिए है. विद्यार्थी के लिए यह आत्मनियंत्रण और एकाग्रता का प्रशिक्षण है. व्रत, जप, स्वाध्याय और संयम उसकी स्मरण-शक्ति और धैर्य को बढ़ाते हैं. व्यापारी के लिए यह धैर्य और विश्वास का पर्व है, जहां संयमित आहार, नियत पूजा और शुभारम्भ का मानस उसे समृद्धि के लिए तैयार करता है. गृहणी के लिए यह घर को जोड़ने वाला सूत्र है- वह स्वयं लक्ष्मी और शक्ति का मूर्त रूप है. जब वह संयम का सूत्रपात करती है तो घर का हर सदस्य अनुशासन और शुचिता में बंध जाता है और घर में शांति और सामंजस्य उतर आता है. गृहस्थ के लिए यह नौ दिवस जीवन-लय को साधना के साथ साधने का अवसर है.

ध्यातव्य है कि नवरात्र सदैव ऋतुओं के संधिकाल में आते हैं. चैत्र और आश्विन की नवरात्रियां सामान्य रूप से सभी साधकों के लिए और माघ व आषाढ़ की गुप्त नवरात्रियां विशेष साधकों के लिए मानी जाती हैं. ये संधिकाल स्वास्थ्य-विज्ञान की दृष्टि से संवेदनशील समय होते हैं. आयुर्वेद ने ‘लंघन’ अर्थात् कम आहार और उपवास को रोग-निवारण का उपाय बताया है. नवरात्र का फलाहार इसी का सुसंस्कृत रूप है. फल, मौसमी सब्जियां, दही, सेंधा नमक और हल्के मसाले पाचन को सहज रखते हैं; शरीर को हल्का और रोग-प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करते हैं. साथ ही प्याज-लहसुन जैसे रजस-तमस प्रधान आहार निषिद्ध होने से मन शांत और सतोगुणी बनता है. यही कारण है कि नवरात्र के व्रत केवल धार्मिक आस्था नहीं; अपितु वैज्ञानिक स्वास्थ्य-विधान भी हैं.

ध्यान और जप नवरात्र की साधना के केन्द्रीय स्तम्भ हैं. योगशास्त्र कहता है कि मां के नौ रूप मूलाधार से सहस्रार तक उठते हुए प्रतीकात्मक रूप से चक्र-जागरण को निरूपित करते हैं- शैलपुत्री से सिद्धिदात्री तक की साधना चेतना की ऊर्ध्व यात्रा का संकेत है. आधुनिक तंत्रिका-विज्ञान बताता है कि नियमित ध्यान से मस्तिष्क में अल्फा-थीटा तरंगें सशक्त होती हैं, कॉर्टिसोल घटता है और भावनियंत्रण बेहतर होता है. इसमें सामूहिक साधना का प्रभाव और भी तीव्र होता है-जैसे अनेक दीपक मिलकर दीपमालिका रच दें, वैसे ही जप-ध्यान का समूहिक स्वर वातावरण में परिष्कृत छाप छोड़ता है. नवरात्र का मंत्र, आरती और आराधना साधक को सहज और परिमार्जक शांति की ओर ले जाते हैं.

नवरात्र से जुड़े अनुष्ठानों में कलश-स्थापना अत्यंत अर्थवान् और महत्त्वपूर्ण है. कलश पंचतत्वों- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का मूर्त रूप है. मिट्टी गूंधकर बनाया, हवा में सुखाया, अग्नि में पकाया, फिर उसमें जल भरकर तीर्थ-नदियों का आवाहन किया जाता है. शास्त्र कहते हैं कि इसके मुख में विष्णु, कंठ में शिव और मूलांश में ब्रह्मा का वास है. इस प्रकार, गृह में प्रतिष्ठित कलश केवल जल का पात्र नहीं रह जाता, बल्कि अनुशासन, शुचिता और समन्वय का प्रण बन जाता है.

नवरात्र की कन्या-पूजन परंपरा इस पर्व के मर्म को मानवीय संवेदना में उतारती है. ज्ञातव्य है कि दो से दस वर्ष तक की कन्याओं को देवी का जीवंत स्वरूप माना गया है- दो वर्ष की ‘कुमारिका’, तीन की ‘त्रिमूर्ति’, चार की ‘कल्याणी’, पांच की ‘रोहिणी’, छह की ‘कालिका’, सात की ‘चंडिका’, आठ की ‘सांभवी’, नौ की ‘दुर्गा’ और दस की ‘सुभद्रा’.  हम जानते हैं कि छोटी कन्याओं का मन निश्छल और निर्मल होता है. उनके चरण धोकर, उन्हें भोजन कराकर और वस्त्र-दक्षिणा अर्पित कर जो सम्मान किया जाता है, वह केवल अनुष्ठान नहीं; बल्कि स्मरण है कि शक्ति-पूजन का अर्थ स्त्रियों के प्रति व्यवहारिक आदर है. आश्वस्ति है कि जहां स्त्री का मान है, वहां लक्ष्मी का स्थायी निवास होता है.

विचारणीय है कि शाक्त-परंपरा नवरात्र को शक्ति-साधना का चरम मानती है. दुर्गा-अवतार की कथा इसका सशक्त प्रतीक है. जब महिषासुर के उन्माद से देवता, दानव और यहां तक कि शिव-विष्णु भी विवश हो गए, तब सभी देवशक्तियों के संयोग से दुर्गा प्रकट हुईं. यह शिक्षा है कि जब सकारात्मक शक्तियां संगठित होती हैं, तब कोई भी असुर-वृत्ति टिक नहीं पाती. इसी विजय का नाम है महिषासुरमर्दिनी- वह जो भीतर के महान् असुर यानी अहंकार और जड़ता का वध कर दे. जानना चाहिए कि महिषासुर की भांति इस पर्व से जुड़े सभी नाम प्रतीक भी हैं- जैसे धूमराक्षस अज्ञान का, रक्तबीज आसक्ति और जड़ता का, चंड-मुंड चिंता और अहंकार का इत्यादि.

ज्ञातव्य है कि तंत्र-साधकों के लिए नवरात्र गहन साधना का समय है- मंत्र, यंत्र और तंत्र के समन्वय में शक्ति की उपासना. विज्ञान भी इसे पुष्ट करता है: मंत्रोच्चार की ध्वनियां वातावरण में सूक्ष्म स्पंदन उत्पन्न करती हैं; शंख-घंटा नकारात्मकता को भंग करते हैं; घृत-हवन से उत्पन्न कण वायु को शुद्ध करते हैं; दीप-ज्योति का प्रकाश पीनियल ग्रंथि को संकेत देता है. इससे जैव-घड़ी संतुलित होती है, निद्रा-जागरण सुधरता है और मन एकाग्र होता है. इसीलिए नवरात्र की साधना सहज पर स्फूर्तिदायक प्रतीत होती है और नौ दिनों की निधि महीनों तक मन में बनी रहती है.

ध्यातव्य है कि नवरात्र का आहार-विधान केवल ‘क्या न खाएं’ की सूची नहीं, बल्कि ‘कैसे जिएं’ की सूझ भी है. सात्त्विक आहार-शुद्ध, ताजा और सरल, जो देह तथा मन को परिष्कृत करता है. फल, दही, मौसमी कंद-मूल, सेंधा नमक और हल्के मसाले पाचन-अग्नि को संतुलित रखते हैं. आयुर्वेद कहता है कि रजस-तमस प्रधान आहार हमारी चित्तवृत्ति को अस्थिर कर काम-क्रोध को उकसाते हैं. ऐसे में, नवरात्र साधना से शरीर को व्याधियों से मुक्त और चित्त को विकारों से विमुक्त करने का सुअवसर प्राप्त होता है.

यही व्यापकता नवरात्र को समाज-जीवन में भी सेतु बनाती है. गरबा-डांडिया के वृत्त में गांव-शहर एक सुर में थिरकते हैं, रामलीला के मंच से अभिनय के माध्यम से भक्ति का प्रकाश झलकता है, तो कन्या-पूजन में छोटे चरणों का स्पर्श घर तथा घर में रहनेवालों के चित्त को शीतल कर देता है. इस प्रकार यह पर्व स्मरण कराता है कि शक्ति-पूजन का सच्चा अर्थ स्त्री-सम्मान, प्रकृति-सम्मान और मनुष्य-सम्मान है. यह बताता है कि व्रत का सच्चा अर्थ कठोरता नहीं, सजगता है और विजयादशमी का अर्थ किसी और पर नहीं, बल्कि अपने भीतर के अंधकार पर विजय है.

कहा जा सकता है कि नवरात्र का सार यह नहीं कि हम केवल बाहर आराधना करें, बल्कि सार यह है कि भीतर का दीपक जले. दुर्गा हमारे मानस के दुर्ग में अवस्थित हैं- दुर्गम को सरल करने वाली, कठिनाई को काटने वाली. हॉं, यह तभी सत्य होता है, जब हम अपनी कठिनाइयों की जिम्मेदारी लेकर उन्हें तप, संयम और ध्यान की ऊष्मा में गलाते हैं. नवरात्र हमें यह भी सिखाता है कि उपवास का अर्थ केवल खाली पेट रहना नहीं है, बल्कि अपनी चेतना के पास रहना है. पूजा का अर्थ केवल पुष्प-अर्पण नहीं, अपने विकारों का समर्पण है. इसी प्रकार, विजय का अर्थ केवल शंख-निनाद नहीं, भीतर की मौन-शांति है. मां दुर्गा केवल आस्था की देवी नहीं, मनोविज्ञान, जीवविज्ञान और सामाजिक संतुलन की आधारशिला हैं और इसलिए यह पर्व दर्शन, विज्ञान, योग और तंत्र- सभी का समन्वय है. जब हम इन नौ दिनों में मन-वचन-कर्म को साधना के अनुशासन में रखते हैं, तो बाहर की आरती की लौ भीतर की कंदराओं तक उतर आती है. इससे अन्तस् का अंधकार कम होता है, दृष्टि स्वच्छ होती है, असुर का विनाश होता है और जीवन का सुर फिर से मधुर होने लगता है.

(लेखक: कमलेश कमल) 
(कमलेश कमल हिंदी के चर्चित वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी हैं. कमल के 2000 से अधिक आलेख, कविताएं, कहानियां, संपादकीय, आवरण कथा, समीक्षा इत्यादि प्रकाशित हो चुके हैं. उन्हें अपने लेखन के लिए कई सम्मान भी मिल चुके हैं.)

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