
या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
माता का पाँचवाँ रूप स्कंदमाता का है. छान्दोग्यश्रुति के अनुसार शिव और पार्वती के पुत्र 'कार्तिकेय' का दूसरा नाम 'स्कंद' है. इस तरह स्कंद की माता होने के कारण ही आदिशक्ति जगदम्बा के इस रूप को स्कंदमाता कहा गया है. प्रतीक के रूप में इसे यहाँ शिव और पार्वती का मांगलिक-मिलन समझना चाहिए. इसे अभिव्यंजित करने के लिए माता को ममतामयी रूप में 'स्कंद' को गोद में एक हाथ से सँभालते हुए दिखाया गया है. स्मर्तव्य है कि भगवान् शंकर(जो शम् या शांति करने वाले हैं) और पार्वती(पर्वत की पुत्री या परिवर्तन के लिए तैयार शक्ति ) के इस परिणय प्रसंगोपरांत ही सनातन संस्कृति में संस्कार के रूप में कन्यादान, गर्भधारण आदि की महत्ता सुस्थापित हुई.
संस्कार (सम्+कृ+घञ्) का अर्थ प्रतियत्न, सुधार है, यही अनुभव भी है, यही मानस वृत्ति भी और यही स्वभाव का शोधन भी. अगर हम यह कहें कि संस्कृति शब्द संस्कार का ही विस्तार है तो भी कोई अत्युक्ति नहीं होगी. वस्तुतः मनुष्य के परिमार्जन का आधार संस्कृति है; तो इसका वाहक तत्त्व संस्कार है. इसी क्रम में देखें तो हमारी संसृति में हर तत्त्व का एक विशेष संस्कार बताया गया है. गर्भ से लेकर मृत्यु पर्यन्त हर आत्मा संस्कारित होती रहती है. अस्तु, पार्वती संस्कारित शक्ति हैं.
किञ्चित् यही कारण है कि आराधना के प्रयोजन से इस रूप को संतान प्राप्ति हेतु अतिफलदायी माना गया है. इस रूप के ध्यान का मंत्र है–
"सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रित करद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कंद माता यशस्विनी॥"
अब इसे प्रतीकों में समझें–
मोक्ष का द्वार खोलने वाली माता सिंह पर आरूढ रहती हैं और परम सुखदायिनी मानी गई हैं. यहाँ सिंह आभ्यन्तरिक शक्ति को वश में करने का प्रतीक है. उद्दाम ऊर्जा नियंत्रित कहाँ होती है? इसे नियंत्रित करना शेर की सवारी करने जैसा ही दुस्साध्य है. अस्तु, इस रूप की स्तुति का मंत्र है : “ॐ स्कन्दमात्रै नमः!”
पुराण में यह वर्णन आता है कि माँ स्कंदमाता की चार भुजाएँ हैं. अपने दो हाथों में माँ 'कमल-पुष्प' धारण किए रहती हैं. 'कमल' संस्कृति का प्रतीक है. इस तरह, शिव और शक्ति के मिलन से 'स्कंद' का जन्म और उससे संस्कृति और संसृति की प्रवहमानता का यह प्रतीकात्मक निरूपण है. इन कमलों में सोलह दलों(पंखुड़ियों) का होना बस चित्रकार की कल्पना नहीं है. वस्तुतः, यह शाक्त-साधकों के लिए 'विशुद्धि-चक्र' को इंगित करता है.
विशुद्धि-चक्र ध्वनि का केन्द्र है और यह केवल संयोग नहीं कि सोलह पंखुड़ियाँ संस्कृत के सोलह स्वरों को अभिव्यंजित करती हैं. इतना ही नहीं, ये उन सोलह शक्तिशालिनी-कलाओं (योग्यताओं) को भी प्रतीकों में निरूपित करने की व्यवस्था है, जिनसे एक मानव चेतना के उत्कर्ष को प्राप्त करता है.
साधक के दृष्टिकोण से अभी उसकी साधना 'विशुद्धि-चक्र पर अवस्थित है, जिसका मूल स्थान कंठ है. ग्रैव-जालिका में गले के ठीक पीछे स्थित यह चक्र थायराइड ग्रन्थि के पास होता है. इस विशुद्धि में 'वि' का अर्थ विशेष और 'शुद्धि' का अर्थ अवशिष्ट निकालना है. विशुद्धि का रंग बैंगनी है, जो शिव-कंठ का भी रंग है. क्या यह बस ऐसे ही है कि आदियोगी, नीलकंठ, विषकंठ शिव को 'विशुद्धि-चक्र' का सबसे बड़ा साधक माना गया है?
ऊपर हमने देखा कि आज साधना के पाँचवें दिन साधक इस चक्र पर है अर्थात् पाँचवें स्तर पर है. इसके नीचे चौथे स्तर पर अनाहत चक्र है और ठीक ऊपर आज्ञा चक्र है. जिज्ञासु पाठकों को यह जानना चाहिए कि अधिकतर लेखक, कवि, चित्रकार, मूर्तिकार आदि चौथे चक्र अथवा अनाहत चक्र(भावनाओं के चक्र) में ही होते हैं.
ऐसी आश्वस्ति है कि विशुद्धि चक्र पर आने के बाद साधक 'तंत्र-विज्ञान' को समझने लगता है और 'शिव' तो तंत्र के सबसे बड़े विज्ञाता हैं ही. यह चक्र वस्तुतः एक फिल्टर है जिससे अज्ञान और प्रमाद के कई विष छन जाते हैं. इस चक्र की साधना को ही 'नादयोग' कहते हैं. इसकी फलश्रुति शब्द की साधना एवं ज्ञान की प्राप्ति में होती है, जिसके अनन्तर ईमानदारी एवं निर्भीकता आदि गुणों का अभ्युदय एवं पल्लवन होता है. आगे आज्ञाचक से मिलकर यह विशुद्धि चक्र 'विज्ञानमय कोष' का निर्माण करता है. शब्दों को ब्रह्म कहने का वस्तुतः यही निहितार्थ है. ध्यातव्य है कि कंठ से ब्रह्मस्वरूप शब्द निःसृत होते हैं और देखिए कि साधना में इसका समानरूप तत्त्व आकाश (अंतरिक्ष) बताया गया है, जिसमें सभी स्फोट और सभी शब्द अंतर्भूत हैं.
यह भी जानना चाहिए कि यह विशुद्धि चक्र 'उदान प्राण' का प्रारंभिक बिन्दु है. श्वसन के समय शरीर के विषैले पदार्थों को शुद्ध करना इस प्राण की प्रक्रिया है. शायद पाठकगण अब समझ सकेंगे कि शिव द्वारा गरल पान करना एवं कंठ में इसे रोक लेने एवं विशुद्ध कर लेने का प्रतीकात्मक अर्थ क्या है.
यहाँ प्राण शब्द को समझ लेना समीचीन होगा–
‘प्राण’ शब्द प्र+ अन्+ अच् ‘प्राणित्यनेनेति करणे’, ‘घञ्’ प्रत्यय से निष्पन्न होता है. तभी तो इसका निर्वचन करते हुए कहा गया है- प्राणिति जीवति बहुकालमिति. ‘प्राणी’ इसीलिए ‘प्राणी’ है; क्योंकि वह प्राणवान् है , वस्तुतः ‘प्राणी’ संज्ञा का मूल हेतु ‘प्राण’ ही है. अतएव जीव की उत्पत्ति और नाश प्राण हेतु ही हुआ करता है. इसी कारण प्राण को ब्रह्म कहा गया है. प्राणी ही श्वास है, बल है, शक्ति है इसी की साधना ही शक्ति की साधना है. जिस प्राणी ने प्राणों को साध लिया उसने जगत्, ब्रह्म, बल, शक्ति सभी कुछ साध लिया. प्राणिशास्त्र की दृष्टि से प्राण आयु है, मनोविज्ञान की दृष्टि से प्राण प्रज्ञा है औऱ तत्त्व-शास्त्र की दृष्टि से प्राण आत्मा है.
इस साधना प्रक्रिया की एक और प्रतीकात्मक व्याख्या हो सकती है–
यह शुद्धीकरण न केवल शारीरिक स्तर पर, वरन् चित्त एवं मनोभाव के स्तर पर भी होना वरेण्य है. जीवन के इस महासमर में हमें विपदाओं, समस्याओं और त्रासद-अनुभवों को शिव की भाँति 'निगल लेना' होता है. इसके पश्चात् हमें उनका ज्ञान (शब्द-ऊर्जा से मनन, चिंतन, अनुशीलन) की अग्नि से शोधन-परिशोधन और उन्मोचन करना होता है. यही असली शुद्धीकरण है. यही विशुद्धि चक्र की साधना का रहस्य है.
(लेखक: कमलेश कमल)
(कमलेश कमल हिंदी के चर्चित वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी हैं. कमल के 2000 से अधिक आलेख, कविताएं, कहानियां, संपादकीय, आवरण कथा, समीक्षा इत्यादि प्रकाशित हो चुके हैं. उन्हें अपने लेखन के लिए कई सम्मान भी मिल चुके हैं.)
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