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महिला किसान की पहल, चक्रवाती तूफान से बर्बाद होने से बचा रही काजू की फसल

अनिम्मा बेबी नाम की इस महिला ने काजू के पेड़ों के लिए एक मल्टीपल रूटिंग प्रोपेगेशन मेथड विकसित किया है. इस मेथड से नयी उत्पन्न हुई जड़ों की मदद से तेज हवाओं और तूफान के समय मजबूत टेक भी मिलती है और पेड़ों को फिर से रोपे जाने की जरूरत नहीं पड़ती.

केरल के कन्नूर जिले की एक महिला किसान केरल के कन्नूर जिले की एक महिला किसान
हाइलाइट्स
  • महिला किसान मल्टीपल रूटिंग प्रोपेगेशन मेथड विकसित किया है

  • 2004 में शुरू हुआ अनियम्मा का सफर

  • इन मेथड के नाम हैं सिलिंड्रिकल शेप मेथड और लो लाइंग पैरेलल ब्रांच मेथड

केरल के कन्नूर जिले की एक महिला किसान ने ऐसी पद्धति विकसित की है जो काजू की खेती को कीटों से बचा सकती है. इसके साथ तेज तूफान में यह उन पेड़ों में सहायक जड़ों को उत्पन्न करने में मदद कर सकती है. अनिम्मा बेबी नाम की इस महिला ने काजू के पेड़ों के लिए एक मल्टीपल रूटिंग प्रोपेगेशन मेथड (Multiple Rooting Propagation Method) विकसित किया है. ये पद्धति बढ़ते हुए काजू के पेड़ में जड़ें उत्पन्न करती है और इससे प्रति यूनिट क्षेत्र के उत्पादन में सुधार होता है. 
 
कीटों और तूफान से होती है खेती प्रभावित 
 
काजू के उत्पादन में कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है. कीड़े तने और जड़ों के माध्यम से पेड़ों के अंदर से छेदकर उन्हें दुर्बल बना देते हैं. कीटों के प्रकोप के अलावा, भारत के तटीय राज्यों में काजू की खेती को लगातार आते तेज तूफान का भी सामना करना पड़ता है. इससे खेती काफी प्रभावित होती है. और ऐसी नुकसान को फिर से सही स्थिति में लाने के लिए हर बार दस साल से ज्यादा का समय लगता है. ऐसे में मल्टीपल रूटिंग प्रोपेगेशन मेथड पेड़ के तने और जड़ को कीट/ कीड़ों से बचाने के साथ उत्पादकता को फिर से पुराने स्तर पर पहुंचाने में मदद करता है. इससे ये फायदा होता है कि इन नयी उत्पन्न हुई जड़ों की मदद से तेज हवाओं और तूफान के समय मजबूत टेक भी मिलती है और पेड़ों को फिर से रोपे जाने की जरूरत नहीं पड़ती.

तूफान और कीटों से बर्बाद हुई काजू की खेती (फोटो: ICAR)
तूफान से बर्बाद हुई काजू की खेती (फोटो: ICAR)


कैसे हुई सफर की शुरुआत?

अनियम्मा के सफर की बात करें तो, इसकी शुरुआत साल 2004 में हुई. काजू की तुड़ाई के दौरान उन्होंने  देखा कि काजू के पेड़ की एक झुकी हुई शाखा से दूसरी जड़ें (adventitious roots) निकल रही थीं. ऐसे में उन्होंने पाया कि इस जड़ से निकलने वाले नए पौधे का विकास सामान्य काजू के पौधे की तुलना में अधिक तेजी से हो रहा है. एक साल बाद उन्होंने देखा कि कीट ने उनके लगाए हुए पेड़ को बर्बाद कर दिया है. उनकी नजर जब उस नए विकसित हो रहे पौधे पर पड़ी तो उन्होंने पाया कि वह पूरी तरह से स्वस्थ है. 

इस दौरान उन्होंने नई जड़ों में गमलों में डाली जाने वाली खाद वाली मिटटी से भरी थैलियां लपेटकर नए पौधे को विकसित करने के बारे में सोचा. उन्होंने उस खोखले तने की मदद से नई जड़ को जमीन की ओर कर किया, साथ ही जमीन के पास वाली शाखाओं पर वजन डालकर उन्हें मिट्टी से ढक दिया. उनके ये दोनों प्रयोग सफल रहे. आज वह इन दो विधियों का उपयोग अपने काजू के पुराने हो चुके बागानों में पिछले 7 वर्षों से कर रही हैं. 
 
क्या हैं दोनों मेथड?

इन दोनों मेथड को विस्तार से समझें, तो इनका नाम सिलिंड्रिकल शेप मेथड (Cylindrical Shape Method) और लो लाइंग पैरेलल ब्रांच मेथड (Low Lying Parallel Branch Method) है.  

सिलिंड्रिकल मेथड की बात करें तो इसमें मिट्टी के मिश्रण (मिट्टी और गाय के गोबर) से भरी एक थैली को जमीन के साथ में उगने वाले काजू के पेड़ की निचली शाखाओं पर बांधा जाता है. सबसे पहले निकलने वाली नई जड़ों को मिट्टी और गाय के गोबर से भरे पेड़ के खोखले तने के माध्यम से जमीन की तरफ बढने के लिए मोड़ा जाता है. इन जड़ों को विकसित होने में लगभग 1 साल का समय लगता है. विकसित होने के बाद ये जड़ें काजू के पेड़ की जड़ों के उस नेटवर्क में जुड़ जाती हैं, जो पौधे को पोषक तत्व और पानी की आपूर्ति करवाती हैं. 

सिलिंड्रिकल शेप मेथड (फोटो: ICAR)
सिलिंड्रिकल शेप मेथड (फोटो: ICAR)

अब अगर दूसरे मेथड, लो लाइंग पैरेलल की बात करें तो इसमें जमीन के साथ में चल रही निचली शाखा की गांठों के चारों ओर पत्थरों का ढेर लगाया जाता है और उन्हें मिट्टी और गाय के गोबर से ढक दिया जाता है. इन गांठों से जड़ें निकलती हैं, और फिर वह शाखा नए पेड़ के रूप में विकसित होती है जबकि जो मुख्य पेड़ होता है उसका शेष भाग अलग रहता है.

Low lying parallel branch method (Photo: ICAR)
लो लाइंग पैरेलल ब्रांच मेथड (फोटो: ICAR)

देश में काजू की खेती का क्षेत्रफल लगभग 10 लाख हेक्टेयर 

दरअसल, भारत में काजू की खेती का क्षेत्रफल लगभग 10.11 लाख हेक्टेयर है, और यह काजू उगाने वाले सभी देशों में सबसे ज्यादा. देश में इसका कुल वार्षिक उत्पादन लगभग 7.53 लाख टन है, इसके साथ कई किसान अपनी आजीविका के लिए इस पर निर्भर हैं. एक बार खराब हो जाने के बाद इसे ठीक होने में 10 साल का समय लगता है. ऐसे में ये पद्धति देश में काजू की खेती करने वाले किसानों के लिए एक जीवनदायिनी के रूप में काम कर सकती है. 

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