

फेसबुक, एक्स, इंस्टाग्राम, यूट्यूब, स्नैपचैट, डिस्कॉर्ड, रेडिट, वग़ैरह-वग़ैरह. इंटरनेट की असीम दुनिया में मौजूद अनगिनत सोशल मीडिया एप्स ने युवाओं को असली दुनिया से इतर एक दुनिया दे दी है. वे अपने कमरे में बैठे-बैठे किसी से भी जुड़ सकते हैं. बात कर सकते हैं. सरसरी तौर पर देखने से लगेगा कि यूथ तकनीक के इस पहलू को पसंद करते हैं. लेकिन इस आबादी का एक हिस्सा ऐसा भी है जो इंटरनेट से दूर जाने की चाह रखता है.
यूरोप में उभर रहा ऑफलाइन क्लब
यूरोप में ऑफलाइन जाने की चाह रखने वाले युवाओं का समूह तेज़ी से बढ़ रहा है. यह एक छोटी सी विडंबना है कि ये लोग एक-दूसरे के साथ इंटरनेट पर ही जुड़ रहे हैं. लेकिन इंस्टाग्राम पर ऑफलाइन क्लब के फॉलोवर्स की संख्या पांच लाख से ज्यादा हो चुकी है. यह क्लब कैसे काम करता है, एक बार समझ लेते हैं.
ऑफलाइन क्लब मूल रूप से एक इवेंट मैनेजमेंट कंपनी है. इसकी स्थापना नीदरलैंड के इल्या नेप्पेलहौट, जोर्डी वैन बेनेकोम और वैलेंटिन क्लोक ने की थी. उनका उद्देश्य है कि वह ऑफ़लाइन क्लब का इस्तेमाल "वास्तविक दुनिया की कम्युनिटी और ऑफ़लाइन अनुभवों के जरिए लोगों को खुद से और दूसरों से फिर से जोड़ने" के लिए करें.
पिछले तीन साल से ऑफलाइन क्लब ने कई मीटअप आयोजित किए हैं जहां लोग अपने फोन या लैपटॉप नहीं ले जा सकते. कोई इन बैठकों में बैठकर किताबें पढ़ता है. कोई स्वेटर बुनता है. कोई कॉफी का आनंद लेता है तो कोई नए लोगों से मिलने और बातें करने का आनंद लेता है. अब तक ऑफलाइन क्लब को पॉजिटिव प्रतिक्रियाएं मिली हैं और यहां ज्यादा से ज्यादा लोग अपने सेलफ़ोन को बंद करने के लिए तैयार हैं.
नीदरलैंड से शुरू हुआ, यूरोप में फैला क्लब
द ऑफलाइन क्लब की शुरुआत करीब एक साल पहले हुई थी और इस दौरान यह आइडिया लोगों को खूब भाया है. सबसे पहला ऑफलाइन मीटअप एम्सटरडैम में हुआ था. उसके बाद से यह क्लब लंदन, पैरिस, मिलन और कोपेनहागन में बैठकें आयोजित कर चुका है. जर्मनी के न्यूज़ हाउस डीडब्ल्यू ने बताया कि बर्लिन में भी हाल ही में एक ऐसा मीटअप आयोजित किया गया था.
ऑफलाइन क्लब के इस आइडिया को हिट इसलिए भी माना जा रहा है क्योंकि अब तक युवा पीढ़ी के लोग अपने फोन से छुटकारा पाने में नाकाम रहे हैं. तमाम कोशिशों के बावजूद उनके लिए अपने फोन को बंद करना और असल ज़िन्दगी पर फोकस करना मुश्किल रहा है. यहां तक कि 'बोरिंग फोन' जैसे सॉफ्टवेयर भी उनके लिए मोटे तौर पर बेअसर ही साबित हुए हैं.
जर्मनी की डिजिटल एसोसिएशन बिटकॉम की मानें तो 16-29 साल की उम्र के लोग रोज़ तीन से ज़्यादा घंटे अपने स्मार्टफोन पर बिताते हैं. चिंता की बात यह है कि ये औसत आंकड़े हैं और असल आंकड़े इससे भी ज़्यादा हो सकते हैं.
दिमाग के लिए अच्छा नहीं है स्मार्टफोन
ब्रिटिश स्टैंडर्ड इंस्टीट्यूशन की ओर से किए गए एक सर्वे के अनुसार, 16-21 की उम्र के 70 प्रतिशत लोग सोशल मीडिया पर समय बिताने के बाद बुरा महसूस करते हैं. करीब आधे युवा तो रात 10 बजे के बाद एक डिजिटल कर्फ्यू के पक्ष में भी हैं, जिसके तहत रात 10 बजे के बाद कुछ चुनिंदा ऐप्स के इस्तेमाल पर बैन लग जाएगा. सर्वे में 46 प्रतिशत युवाओं ने कहा कि वे एक ऐसी दुनिया में रहना चाहेंगे जहां इंटरनेट मौजूद न हो.
भले ही यह पीढ़ी अपने फोन से दूर न रह पाती हो, लेकिन ऐसे कई सर्वे हैं जिनमें युवाओं ने इंटरनेट के बिना रहने की इच्छा ज़ाहिर की है. इसकी वजह यह है कि सोशल मीडिया और इंटरनेट उनकी मेंटल हेल्थ पर बुरा असर डाल रहे हैं. कई साइंटिफिक रिसर्च ने स्मार्टफोन के अत्यधिक इस्तेमाल को डिप्रेशन, एंग्जाइटी, स्ट्रेस और स्लीप डिसऑर्डर जैसी बीमारियों से भी जोड़ा है. इसी साल ब्रिटेन मेडिकल काउंसिल ने यह भी पाया कि तीन हफ्तों तक स्मार्टफोन के कम इस्तेमाल से डिप्रेशन के लक्षण 27 प्रतिशत तक कम हुए हैं.
ज़ाहिर है कि सोशल मीडिया और स्मार्टफोन के प्रयोग ने युवाओं की मेंटल हेल्थ पर बुरा असर डाला है और वे खुद भी इसे सुधारने की ज़रूरत महसूस कर रहे हैं. ऐसे में ऑफलाइन क्लब की परिकल्पना कई युवाओं को नई दिशा दे सकती है. द ऑफलाइन क्लब के संस्थापक अपनी वेबसाइट पर लिखते हैं, "हम एक ऐसी दुनिया की कल्पना करते हैं जिसमें फ़ोन-मुक्त जगहें और ऑफ़लाइन कम्युनिटी आदर्श हों."