बिहार के गया जिले के जंगल में एक गुरुकुल चल रहा है. इसमें बच्चों को शिक्षा के साथ औषधीय और परंपरागत खेती करने का गुर सिखाया जा रहा है. अनिल कुमार और उनकी पत्नी पिछले 10 सालों से अपनी मेहनत और लगन से इस पाठशाला चला रहे हैं.
जंगल के बीच स्कूल-
देश में हाई-टेक स्कूलों का बोलबाला है. जगह-जगह मॉडर्न स्कूल खोले गए हैं और खोले जा रहे हैं. लेकिन बिहार की राजधानी पटना से करीब 150 किलोमीटर दूर गया के बाराचट्टी प्रखंड के जंगलों के बीच एक ऐसा गुरुकुल है, जो अनोखी मिसाल पेश कर रहा है. ये गुरुकुल कोहवरी गांव में है.
इस गुरुकुल को एक कपल अनिल कुमार और उनकी पत्नी रेखा देवी चला रहे हैं. इस गुरुकुल में बच्चे आधुनिक शिक्षा के साथ औषधीय और परंपरागत खेती भी सीखते हैं. अनिल और रेखा ने दिल्ली से पढ़ाई की है. दोनों पिछले एक दशक से अपने दो बच्चों के साथ इस जंगल में रह रहे हैं. इस गांव में कभी नक्सलियों का दबदबा था, लेकिन अब इस गांव के स्कूल में पढ़ाई होती है.
दिल्ली में पढ़ाई, जंगल में सेवा-
अनिल कुमार का कहना है कि उन्होंने दिल्ली में अपनी पढ़ाई पूरी की और शिक्षा के क्षेत्र में अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी भी हासिल की. लेकिन साल 2015 के बाद अनिल और उनकी पत्नी ने शहर की भागदौड़ भरी जिंदगी छोड़कर नेचर की गोद में जीवन बिताने का फैसला किया. इसके बाद अपने गांव लौट आए. उनका गांव बीहिटा पटना में है.
काफी कोशिश के बाद बाराचट्टी प्रखंड के कोहवरी गांव में उनको जमीन दान में मिली. यह गांव जंगल के बीच है. अनिल इस गांव में रहने वाले बच्चों को प्रकृति का महत्व समझाने, औषधीय और परंपरागत खेती के प्रति रुचि जगाने और उनको शिक्षित करने के मकसद से 'सहोदय आश्रम सेवा' नाम से एक आश्रम शुरुआत की.
पढ़ाई के साथ खेती भी-
अनिल बताते हैं कि उनके आश्रम में करीब 30 बच्चे हैं. ये बच्चे शिक्षा के साथ-साथ खेती और प्रकृति के महत्व को समझ रहे हैं. इस आश्रम में गरीब बच्चों को पढ़ाई का तनाव नहीं है, बल्कि वो हँसते-खेलते शिक्षा ग्रहण करते हैं. इस आश्रम को पढ़ाई के बदले अनिल को कोई पैसा नहीं मिलता है. बल्कि गांववाले आश्रम के लिए अनाज दान करते हैं. कोहवरी गांव के अलावा दूसरे जिलों के बच्चे भी इस गुरुकुल में पढ़ाई करते हैं. इस गुरुकुल में बच्चे खुद सब्जियां और दूसरी फसलें उगाते हैं. खरीफ के मौसम में बच्चों ने जैविक विधि से 18 कट्ठा जमीन पर धान की खेती की.
4 हजार से अधिक पेड़ लगाए-
अनिल और रेखा ना सिर्फ बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण में भी महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं. उन्होंने आश्रम के आसपास और अन्य इलाकों में अब तक चार हजार से अधिक पेड़ लगाए हैं. अनिल बताते हैं कि जब वे साल 2016 में इस गाँव में आए थे, तब इस इलाके में पेड़ नहीं थे. लेकिन अब इस इलाके में पूरी हरियाली है. इसके लिए उनको सरकार ने सम्मानित भी किया है. उन्होंने करीब 100 प्रकार की परंपरागत सब्जियों, मोटे अनाज, और दूसरी फसलों के बीजों का संग्रह किया है.
आश्रम में खाना भी खुद बनाते हैं बच्चे-
अनिल कहते हैं कि आश्रम का खर्च लोगों के सहयोग और स्वयं द्वारा बनाए गए उत्पादों की बिक्री से चलता है. आश्रम में बाहर की चीजों का इस्तेमाल बैन है. आश्रम की साफ-सफाई बच्चे खुद करते हैं और खाना बनाने में एक-दूसरे की मदद करते हैं. यह आत्मनिर्भरता बच्चों में आत्मविश्वास और सामूहिकता का भाव पैदा करती है.
(गया से अंकित सिंह की रिपोर्ट)
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