बच्चों में दुर्लभ जेनेटिक बीमारियों की समय पर पहचान करना अब आसान हो जाएगा. ऑस्ट्रेलिया के यूनिवर्सिटी ऑफ मेलबर्न के वैज्ञानिकों ने एक नई ब्लड टेस्ट तकनीक तैयार की है, जिससे बिना दर्दनाक जांच के बीमारी का पता कुछ ही दिनों में चल सकेगा. यह तकनीक खासतौर पर उन बच्चों के लिए मददगार होगी जिनकी बीमारी का पता पहले नहीं चल पाया था.
दर्दनाक प्रक्रिया से नहीं गुजरना होगा
दरअसल, कई ऐसी दुर्लभ जेनेटिक बीमारियां हैं जैसे सिस्टिक फाइब्रोसिस, माइटोकॉन्ड्रिया जिनकी पहचान करना आसान नहीं होता. फिलहाल, डॉक्टर जीनोमिक टेस्टिंग यानी जेनेटिक स्तर पर जांच करते हैं, लेकिन इससे सिर्फ 50 प्रतिशत मामलों में ही बीमारी का पता चल पाता है. बाकी मरीजों को कई बार महीनों या सालों तक अलग-अलग जांचों से गुजरना पड़ता है, जिनमें कई बार मांसपेशियों की बायोप्सी जैसे दर्दनाक और जोखिम भरे टेस्ट भी शामिल होते हैं.
इस नई ब्लड टेस्ट तकनीक के बारे में जानकारी Genome Medicine नाम की मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुई है. शोधकर्ता डॉ. डेविड स्ट्राउड बताते हैं, “हमने सोचा क्यों न ब्लड सेल्स में मौजूद प्रोटीन को जांचा जाए. क्योंकि हर जीन किसी खास प्रोटीन को बनाने का निर्देश देता है. अगर कोई प्रोटीन खराब है, तो इससे यह पता चलता है कि किस जेनेटिक बदलाव की वजह से बीमारी हुई है.”
इस तकनीक को प्रोटीओमिक टेस्टिंग कहा जाता है. इसका फायदा यह है कि एक ही टेस्ट में कई तरह के जेनेटिक म्यूटेशन यानी बदलावों का असर देखा जा सकता है. इससे बीमारी की पहचान सिर्फ तीन दिनों में हो सकती है.
सफलता दर 50 से 70% तक
वैज्ञानिकों ने बताया कि यह नई जांच तकनीक, खासकर माइटोकॉन्ड्रियल बीमारियों के लिए, मौजूदा टेस्ट से ज्यादा सटीक निकली. कई ऐसे मामलों में भी बीमारी की पहचान हो गई, जहां जीनोमिक टेस्टिंग काम नहीं आई थी. यूनिवर्सिटी ऑफ मेलबर्न के प्रोफेसर डेविड थॉर्बर्न के मुताबिक, “जहां जीनोमिक टेस्टिंग 30 से 50% मामलों में मदद करती है, वहीं इस नई तकनीक से यह सफलता दर 50 से 70% तक बढ़ सकती है.”
सिर्फ 1 मि.ली. खून में होगा टेस्ट
एक और अच्छी बात यह है कि इस टेस्ट के लिए सिर्फ 1 मि.ली. खून की जरूरत होती है. यानी नवजात बच्चों में भी इसका आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है. जबकि अब तक माइटोकॉन्ड्रियल बीमारियों के लिए मांसपेशियों की बायोप्सी करनी पड़ती थी, जो बच्चों के लिए काफी मुश्किल होती है.
7,000 दुर्लभ बीमारियों में भी इस्तेमाल में लाया जा सकेगा
शोधकर्ताओं का कहना है कि यह तकनीक अभी सिर्फ माइटोकॉन्ड्रिया पर केंद्रित है, लेकिन इसे आगे चलकर करीब 7,000 दुर्लभ बीमारियों में भी इस्तेमाल में लाया जा सकता है. अच्छी बात यह है कि ये टेस्ट मौजूदा तकनीकों जितना ही खर्चीला है. इससे मरीजों को बार-बार अलग-अलग टेस्ट करवाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. इससे न केवल पेशेंट का समय और पैसा बचेगा, बल्कि हेल्थ सिस्टम पर बोझ भी कम होगा.
तेज, सटीक और बिना दर्द वाली है तकनीक
कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के माइटोकॉन्ड्रियल जेनेटिक्स एक्सपर्ट प्रोफेसर मिचल मिन्चुक ने इस रिसर्च को “डायग्नोसिस की दिशा में एक बड़ा कदम” बताया. उन्होंने कहा कि यह तकनीक तेजी से और आसानी से बीमारी की पुष्टि कर सकती है. इस तकनीक की सबसे बड़ी ताकत यही है कि यह तेज, सटीक और बिना दर्द वाली है. और समय पर डायग्नोसिस मिलने से बच्चों का इलाज जल्दी शुरू हो सकता है और माता-पिता को अगली संतान के लिए जेनेटिक जांच कराने का विकल्प भी मिल सकता है.