करवाचौथ का नाम आते ही हर सुहागन के चेहरे पर मुस्कान और आंखों में चमक आ जाती है. यह व्रत हर साल कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है. इस साल यह शुभ तिथि 10 अक्टूबर, शुक्रवार को है.
व्रत और पूजन की परंपरा
इस दिन विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र, सुख और समृद्धि की कामना करते हुए निर्जला व्रत करती हैं और माता करवा की पूजा करती हैं. शाम के समय सजी-धजी महिलाएं पूजा की थाली सजाती हैं जिसमें दीपक, मिठाई, करवा (जल का पात्र) और छलनी रखी जाती है.
चांद और छलनी की प्रथा
रात में जब चांद निकलता है, तो महिलाएं पहले छलनी से चंद्रमा को देखती हैं और फिर उसी छलनी से अपने पति का चेहरा निहारती हैं. इसके बाद व्रत खोला जाता है. मान्यता है कि छलनी में हजारों छेद होते हैं और जब चंद्रमा को देखा जाता है तो जितने प्रतिबिंब दिखाई देते हैं, उतनी ही पति की आयु बढ़ने का आशीर्वाद मिलता है. इसलिए करवा चौथ का व्रत छलनी से चंद्र दर्शन और पति दर्शन के बिना अधूरा माना जाता है.
पौराणिक कथा: चंद्र देव और गणेशजी का श्राप
इस परंपरा के पीछे एक पौराणिक कथा भी जुड़ी है. कहा जाता है कि एक बार चंद्र देव अपनी सुंदरता पर अहंकार करने लगे और उन्होंने गणेशजी के रूप-रंग का मजाक उड़ाया. गणेशजी क्रोधित हो गए और चंद्रमा को श्राप दिया कि जो भी व्यक्ति चंद्रमा को देखेगा, वह कलंक और दोष का भागी बनेगा. चंद्र देव ने अपनी गलती स्वीकार की और क्षमा मांगी. तब गणेशजी ने श्राप की अवधि केवल एक दिन कर दी, जो कि भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि थी. इस दिन को कलंक चतुर्थी कहा जाता है.
छलनी से चांद देखने की वजह
श्राप के डर से यह मान्यता बनी कि चौथ के दिन सीधे चंद्र दर्शन नहीं करने चाहिए. इसलिए महिलाएं छलनी की आड़ से चंद्रमा को देखती हैं और फिर अपने पति का चेहरा देखकर व्रत खोलती हैं.