ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की ओर से प्रकाशित एक रिसर्च ने दावा किया है कि एक 'अल्ट्रासाउंड हेल्मेट' बिना सर्जरी के पार्किन्सन जैसी दिमागी बीमारियों का इलाज कर सकता है. यह हेल्मेट एक आम अल्ट्रासाउंड की तुलना में दिमाग के 1000 गुना छोटे हिस्सों तक पहुंचकर पार्किन्सन का इलाज कर सकता है.
यह रिसर्च इसलिए अहम है क्योंकि अब तक पार्किन्सन का इलाज डीप ब्रेन स्टिमुलेशन (DBS) से होता था. यह नई खोज इस खतरनाक तरीके की जगह ले सकती है. साथ ही यह हेल्मेट डिप्रेशन, टूरेट सिंड्रोम, अलज़ाइमर और एडिक्शन जैसी बीमारियों का भी इलाज कर सकता है. यह हेल्मेट क्यों खास है, कैसे काम करता है और डीबीएस की जगह इसका इस्तेमाल क्यों ज़रूरी है, आइए समझते हैं.
क्यों खास है अल्ट्रासाउंड हेल्मेट?
इस अल्ट्रासाउंड हेल्मेट की अहमियत समझने के लिए हमें सबसे पहले डीबीएस को समझना होगा. डीबीएस एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें इलेक्ट्रोड दिमाग में गहरे इंप्लांट किए जाते हैं और फिर मस्तिष्क तक बिजली के पल्स पहुंचाए जाते हैं. इसके विपरीत, अल्ट्रासाउंड दिमाग में किसी तरह का डिवाइस इंप्लांट किए बिना ही मकैनिकल पल्स मस्तिष्क तक पहुंचाता है.
अब यह नया हेल्मेट अल्ट्रासाउंड तकनीक को भी एक कदम आगे ले जाने की काबिलियत रखता है. दरअसल बड़ी अल्ट्रासाउंड मशीन से पहुंचने वाले पल्स सटीक न होने के कारण ज़्यादा असरदार भी नहीं होते थे. अल्ट्रासाउंड हेल्मेट अब दिमाग तक सटीक पल्स पहुंचाकर ज़्यादा असरदार साबित हो सकता है. नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित रिसर्च के अनुसार, यह हेल्मेट अब तक इस्तेमाल किए जाने वाले डीप ब्रेन अल्ट्रासाउंड यंत्रों की तुलना में दिमाग के 30 गुना छोटे हिस्सों तक पहुंच सकता है.
कैसे काम करता है यह हेल्मेट?
द गार्जियन की एक रिपोर्ट ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की रिसर्चर इयोना ग्रिगोरस के हवाले से कहती है, "इस हेल्मेट में 256 सोर्स हैं जो एक एमआरआई स्कैनर में फिट हो जाता है. यह थोड़ा भारी है लेकिन धीरे-धीरे आप सहज महसूस करने लगते हैं."
इस सिस्टम को टेस्ट करने के लिए रिसर्च में सात वॉलंटियर चुने गए. इस टेस्ट में उनके दिमाग के लैटरल जेनक्युलेट न्यूक्लियस (LGN) में चावल के दाने जितने छोटे हिस्से में पल्स पहुंचाए गए. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर और सीनियर रिसर्च ऑथर शारलोट स्टैग के अनुसार, ये पल्स दिमाग के उस हिस्से में एकदम सटीकता के साथ पहुंचीं. उनका कहना है कि ऐसा पहले कभी भी नहीं हो सका है, इसलिए यह अद्भुत है.
इस प्रोजेक्ट को अंजाम देने में एक दशक से भी ज़्यादा का समय लगा है. प्रोफेसर स्टैग बताती हैं कि जब उन्होंने इसकी शुरुआत की थी तो वह प्रेग्नेंट थीं और अब उनकी बेटी 12 साल की है. इस हेल्मेट की ईजाद से पहले प्रयोग की जाने वाली डीबीएस प्रक्रिया में डॉक्टरों को सर्जरी के ज़रिए मरीज़ के दिमाग़ में इलेक्ट्रोड लगाने होते थे. अल्ट्रासाउंड हेल्मेट में डॉक्टरों को इस लंबी प्रक्रिया से नहीं गुज़रना होगा. और यह डीबीएस की तुलना में ज़्यादा सुरक्षित भी होगा.
इस रिसर्च पर काम करने वाली टीम अब इस हेल्मेट को पार्किन्सन, स्किज़ोफ्रेनिया, स्ट्रोक रिकवरी, डिप्रेशन और दूसरी परेशानियों के लिए टेस्ट करने जा रही है.