

केंद्र सरकार MRP सिस्टम में बदलाव की योजना बना रही है. मकसद यह है कि निर्माता और रिटेलर जरूरत से ज्यादा MRP न लगाएं जिससे उपभोक्ता को नुकसान हो. कई बार देखा गया है कि एक सामान मामूली लागत का होते हुए भी बहुत महंगा बिकता है.
क्या आपने कभी किसी टी-शर्ट पर 2,999 का MRP देखा है, लेकिन स्टोर पर जाकर या ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर वही टी-शर्ट आपको 70% डिस्काउंट के साथ 899 में मिलती है? आप खुश हो जाते हैं कि डिस्काउंट अच्छा मिल गया. लेकिन क्या कभी ये सोचा है अगर 899 में बेचकर भी ब्रांड मुनाफा कमा रहा है, तो फिर उस टी शर्ट पर 2,999 का प्राइस टैग क्यों लगाया गया था?
असल में, ऐसा सिर्फ डिस्काउंट दिखाकर कस्टमर को लुभाने की मार्केटिंग ट्रिक होती है. यह डिस्काउंट रियल कम और फील-गुड फैक्टर ज्यादा होता है. सरकार इसी पर लगाम लगाने के लिए ही MRP सिस्टम में बदलाव की तैयारी कर रही है. सरकार अब सोच रही है कि खासकर रोजमर्रा की चीजों और जरूरी सामानों के लिए कोई स्पष्ट गाइडलाइन होनी चाहिए, जिससे ग्राहकों के साथ धोखा न हो.
उपभोक्ता मामलों का मंत्रालय चाहता है कि कंपनियां कोई भी मनमाना दाम ना लगाएं, बल्कि MRP को प्रोडक्ट की असली लागत और उस पर जो मुनाफा तय किया गया है, उससे जोड़कर ही निर्धारित करें. मतलब अगर कोई वस्तु 100 रुपये में बनी है, तो उस पर कितना और क्यों मुनाफा जोड़ा गया है, इसका स्पष्ट आधार होना चाहिए.
MRP क्या है आसान भाषा में समझिए?
MRP यानी Maximum Retail Price वह ज्यादा से ज्यादा रिटेल मूल्य होता है जो किसी पैक किए गए प्रोडक्ट पर लिखा होता है. इसे भारत सरकार के 1990 के ‘सिविल सप्लाइज’ विभाग और 2006 के भारतीय कंज्यूमर गुड्स एक्ट के तहत लागू किया गया. इसमें सभी टैक्स शामिल होते हैं और कस्टमर को इससे ज्यादा पैसे नहीं देने होते.
क्या हर चीज पर MRP लिखी होती है?
नहीं, सिर्फ पैक्ड सामानों जैसे बिस्कुट, जूस, दवाई पर MRP होता है. सेब, केला, दाल, चावल जैसे लूज यानी खुले मिलने वाले सामानों पर MRP नहीं होती, क्योंकि यह केवल पैकेज्ड उत्पादों पर लागू होता है.
आखिर MRP कैसे तय होती है?
MRP निर्माता/रिटेलर तय करता है. इसमें प्रोडक्शन कॉस्ट, मुनाफा, डिस्ट्रीब्यूटर और रिटेलर मार्जिन, GST, पैकिंग, ट्रांसपोर्ट, मार्केटिंग और विज्ञापन खर्च मिलाकर किसी सामान की MRP तय होती है.
क्या दुकानदार एमआरपी से ज्यादा चार्ज कर सकता है?
कानूनन तो नहीं, भारत में दुकानदारों को उत्पाद की एमआरपी से ज्यादा कीमत लेना कानूनी तौर पर मना है. अगर कोई ज्यादा चार्ज करता है तो आप कंज्यूमर कोर्ट में शिकायत कर सकते हैं.
बड़े डिस्काउंट के बाद भी प्रोडक्ट महंगा लगता है क्यों?
कई बार कंपनियां या दुकानदार एमआरपी को जानबूझकर बहुत ज्यादा दिखा देते हैं ताकि भारी छूट देकर कस्टमर को शॉपिंग के लिए मजबूर कर सकें. मान लीजिए एक जूस का पैकेट जिस पर एमआरपी 1500 रुपये लिखा है, उसे 50% छूट पर 750 रुपये में बेच रहे हैं लेकिन असल में उस जूस का बाजार मूल्य उससे भी कम हो सकता है. इसलिए डिस्काउंट के बाद भी कीमत ज्यादा लगती है. इसलिए खरीदारी करते समय एमआरपी के अलावा बाजार में समान उत्पाद की कीमतों की तुलना करना जरूरी है.