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घर चलाने के लिए छोड़ी पढ़ाई, ससुर से 10 हजार रुपए उधार लेकर शुरू की कंपनी, और बन गए Logistics Man of India

हरियाणा के जय करण शर्मा को भारत का लॉजिस्टिक्स मैन कहा जाता है. आज भले ही वह इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनकी विरासत इतनी विशाल है कि पीढ़ियों तक लोगों के दिलों में रहेगी.

स्वर्गीय जय करण शर्मा स्वर्गीय जय करण शर्मा
हाइलाइट्स
  • पिता की मदद के लिए छोड़नी पढ़ी पढ़ाई

  • ससुर ने उधार दिए थे 10 हजार रुपए

आईपीएल में अभी हम सभी ने एक किसान के बेटे रिंकू सिंह की बल्लेबाजी के कारनामे देखे-सुने. अब हम आपको बताते हैं एक और किसान के बेटे के बारे में जिसने अपनी मेहनत से फर्श से अर्श तक का सफर तय किया. हरियाणा के एक छोटे से गांव झिंझर के एक साधारण किसान परिवार में जन्मे जय करण शर्मा ने खेतों से आसमान तक की बुलंदियों को छू लिया.

आज उन्हें भारत का लॉजिस्टिक्स मैन कहा जाता है क्योंकि अपनी कठोर मेहनत, लगन और दूरदर्शिता से उन्होंने देश की सबसे बड़ी लॉजिस्टिक्स कंपनी बनाई. इस कंपनी में आज भी करीब पांच हजार लोग काम करते हैं. कॉलेज ड्रॉप आउट जय करण शर्मा ने एक छोटी सी नौकरी से अपने करियर की शुरुआत की और फिर 1989 में अपना काम शुरू किया. 

इस सदी की शुरूआत में उनकी कंपनी ऑटोमोबाइल ट्रांसपोर्टेशन की देश की सबसे बड़ी कंपनी बन गई. आज आप नेशनल हाईवे पर रफ्तार से दौड़ते हुए बड़े-बड़े बंद ट्रक देखते होंगे, इनमें ही कारें उत्तर भारत से दक्षिण भारत और दक्षिण से उत्तर तक ले जाई जाती हैं.

Jai Karan Sharma (November 1, 1955 – October 11, 2020) (Photo: Chetak Website)

पिता की मदद के लिए छोड़नी पढ़ी पढ़ाई
वरिष्ठ पत्रकार मधुरेन्द्र सिन्हा ने अपनी किताब 'कर्मयोद्धा जय करण' में मैन ऑफ लॉजिस्टिक्स की कहानी का विस्तार से जिक्र किया है. बात उन दिनों की है जब हरियाणा में खेतों में सिंचाई की भारी दिक्कत थी और इतनी ही उपज होती थी कि घर-परिवार का काम चल जाए. ऐसे में झिंझर के किसान जगदीश शर्मा अपने बड़े भाई के साथ कुछ न कुछ कारोबार भी करते रहते थे. कभी गुड़ बेचने का तो कभी दूध का. लेकिन और पैसे कमाने के लिए उन्हें अपना गांव छोड़कर कलकत्ते जाना पड़ा जहां उन्होंने एक बासा (ढाबा) खोला. 

वहीं, उनके सबसे बड़े पुत्र जय करण झिंझर स्कूल में अच्छा प्रदर्शन कर रहे थे. उसके बाद उन्होंने अचीना गांव से बोर्ड की परीक्षा अच्छे नंबरों से पास की. लेकिन जब कॉलेज जाने की बात हुई तो पिता ने कलकत्ता बुला लिया जहां उन्होंने बंगवासी मॉर्निंग कॉलेज से प्री-यूनिवर्सिटी की परीक्षा पास कर ली. लेकिन पिता की आर्थिक मदद करने के लिए उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और नौकरी करने लगे. हालांकि, उनके मन में यह भावना बलवती होती गई कि मुझे अपना काम करना चाहिए. 

1971 में महज 16 साल की उम्र में जय करण शर्मा ने एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में पार्ट टाइम काम शुरू किया. 1973 में उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और पूरी तरह से नौकरी करने लगे. उनके अच्छे काम को देखकर कंपनी ने उन्हें राजस्थान के खेतड़ी भेज दिया जहां अपनी ईमानदारी और परिश्रम के कारण उन्हें दिल्ली भेज दिया गया. फिर उनके मन में अपना काम करने की इच्छा बलवती हुई तो 1979 में अच्छी-खासी नौकरी छोड़ दी और अपना काम करने की प्लानिंग करने लगे लेकिन उनके पास कोई पूंजी नहीं थी.

ससुर ने उधार दिए थे 10 हजार रुपए
जय करण शर्मा काम की तलाश में उदयपुर जा पहुंचे और वहां के पार्क में निराश भाव से बैठे हुए थे तो उन्हें राणा प्रताप के प्रसिद्ध घोड़े चेतक की विशाल मूर्ति दिखाई दी और उसी पल उन्होंने सोचा कि वह अपनी कंपनी का नाम चेतक ही रखेंगे जो बिना डरे, बिना थके दौड़ता रहा. सपने देखने तो आसान होते हैं लेकिन उन्हें मूर्त रूप देना बेहद कठिन. जय करण शर्मा ने ठान लिया था कि वह अपना काम करेंगे सो उन्होंने तैयारियां शुरू कर दीं. काम तो वहीं था ट्रकिंग का लेकिन इसके लिए भी उन्हें पूंजी चाहिए थी जो उनके पास नहीं थी. 

तब उनकी पत्नी कृष्णा जी ने अपने पिता से उधार लेकर उन्हें 10,000 रुपए दिये और फिर जय करण शर्मा का काम शुरू हुआ. उन्होंने राजस्थान में सरकारी कारखाने में बनने वाले फर्टिलाइजर की ढुलाई का काम किराये के ट्रकों से दिल्ली में शुरू किया. उनके पास इतने कम पैसे होते थे कि ट्रकों का किराया चुकाने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ती थी.

शुरूआती दौर में जय करण शर्मा अपनी नवविवाहिता के साथ सीताराम बाज़ार में महज 10X10 फुट के कमरे में काफी समय रहे. इस दौरान वह 16-17 घंटे काम करते. गर्मी हो या सर्दी या बरसात, वह सड़क पर ही स्कूटर दौड़ाते रहते. वह पहाड़गंज में अपने ऑफिस से 40 किलोमीटर दूर कुंडली रोजाना जाया करते थे. उन्होंने हरियाणा के कुंडली में किराये पर अपना गोदाम बनाया जहां वह माल रखते थे और वहां से रोज दिल्ली आते-जाते. लौटने में रात हो जाती थी. खाने-पीने का भी कोई हिसाब नहीं रहता. कई दिनों तक उन्हें अपने बच्चों से बात करने तक का मौका नहीं मिलता. 

कहते हैं कि जब मनुष्य संघर्ष करता है तो ईश्वर भी साथ देता है. उस समय ही उनकी जिंदगी में पीएस गहलौत जी आये जो एक सार्वजनिक उद्यम में अफसर थे और वह जय करण जी की कर्मशीलता, संघर्ष और ईमानदारी से प्रभावित हुए. उन्होंने उनकी मदद करनी शुरू की और उन्हें सही वक्त पर सही सलाह दी. यह जय करण शर्मा के लिए वरदान साबित हुआ क्योंकि उन्हें गाइड करने वाला कोई सच्चा इंसान मिल गया, और उसके साथ ही उनका काम बढ़ता चला गया.

उन दिनों दिल्ली के शकूर बस्ती में रेलगाड़ियों से फर्टिलाइजर की बोरियां आती थीं जिन्हें गोदाम में पहुंचाना पड़ता था. यह काम इसलिए कठिन था कि इसमें रेलवे माल उठाने के लिए बहुत थोड़ा समय देती थी और उसमें ही सारा माल उठाना पड़ता था. वह कई बार भूखे-प्यासे वहां लदान करवाते. कई बार को रात भर काम चलता ताकि लदान समय पर हो जाए, अन्यथा जुर्माना देना पड़ता था. यहां से उनकी सफलता की कहानी शुरू तो हुई लेकिन असली सफलता तो दूर थी.

मारुति के कंसेप्ट से पकड़ी रफ्तार
1983 में भारत में मारुति ने गुड़गांव में अपनी कारों का उत्पादन शुरू किया. लेकिन कंपनी चाहती थी कि उनकी बनाई हुई कारें ड्राइवर चलाकर न ले जाएं बल्कि उन्हें ट्रकों के जरिये ले जाया जाए ताकि कस्टमर को जीरो माइल दिखाया जाए. यह कंसेप्ट बहुत अच्छा था और इसका फायदा जय करण  ने अपने दो और ट्रांसपोर्टर मित्रों के साथ मिलकर उठाया. 1984 में उन्होंने उन्होंने मारुति की कारें दक्षिण भारत ले जाने का टेंडर भरा और उन्हें यह काम मिला. 

भारत सरकार ने उन पर माय स्टांप डाक टिकट भी जारी किया

काम तो मिल गया लेकिन जय करण शर्मा के पास अपने ट्रक नहीं थे और उन्हें किराये के ट्रकों से कारें ढुलाई करनी पड़ रही थी. इसमें कमाई का बड़ा हिस्सा निकल जाता था. इसलिए उन्होंने अपना एक ट्रक खरीदा लेकिन उसे चेन्नई के रूट में लगा दिया ताकि समय और अन्य चीजों का अंदाजा मिले. इसमें उन्हें सफलता मिली और उन्होंने फिर आगे कदम बढ़ाया. लेकिन मूल समस्या ज्यों की त्यों खड़ी थी. आगे काम करने के लिए पूंजी नहीं थी. ऐसे में उन्होंने अपने घर की सारी चांदी तक गिरवी रख दी. गहलौत जी ने भी अपने घर की चांदी गिरवी रखी और पैसे उन्हें दिये जिससे काम आगे चल निकला.

जय करण शर्मा को इस बड़े खेल के नियम समझ में आने लगे और उन्होंने बड़ा कदम उठाने की सोची. उन्होंने चेन्नई जाकर दक्षिण भारत की सबसे बड़े ट्रैक्टर उत्पादक कंपनी टफे के मैनेजमेंट से जाकर उनके ट्रैक्टरों को उत्तर भारत लाने का काम लेने की सोची. वहां सबसे बड़ी समस्या थी भाषा की. वहां के टॉप मैनेजमेंट को हिन्दी नहीं आती थी और जय करण शर्मा को न तो तमिल आती थी और न ही इंग्लिश. 

लेकिन ऐसे में भी अपनी टूटी-फूटी इंग्लिश में अपने बिज़नेस की बातें खरे ढंग से रखने के कारण उन्हें वहां का काम मिल गया जिसने उनकी तकदीर बदल दी. कंपनी के लोग उनकी समझ-बूझ और सादगी से प्रभावित हुए. जय करण शर्मा ने उन लोगों को निराश नहीं किया और बहुत ईमानदारी से काम किया जबकि उन दिनों ट्रैक्टर ब्लैक में बिका करते थे. लेकिन जय करण शर्मा ने बहुत ईमानदारी से उनके ट्रैक्टर डीलरों को तीन-चार दिनों में पहुंचाना शुरू कर दिया. कंपनी का भरोसा आज भी चेतक पर बना हुआ है. उसके बाद एक बड़ा मोड़ तब आया जब उन्हें 1998 में हुंडई की कारों को चेन्नई से उत्तर भारत लाने का काम मिला. इसके बाद उन्हें हर कार कंपनी की कारों की ढुलाई का काम मिलने लगा और वह शीर्ष पर जा पहुंचे.  

समाज सेवा में भी आगे रहे
जय करण शर्मा को इंजीनियरिंग नहीं आती थी लेकिन फिर भी उन्होंने ट्रकों के पिछले हिस्से के डिजाइन में महत्वपूर्ण बदलाव किए. इससे पहले के मुकाबले ज्यादा गाड़ियों की ढुलाई होने लगी. इससे उनका मुनाफा बढ़ने लगा. वह हमेशा कंपनी का मुनाफा बढ़ाने की कोशिश करते, वह भी बिना बेईमानी के. उन्होंने कभी कानून नहीं तोड़ा. उन्होंने कभी अपने कर्मचारियों को कभी भी निकाला नहीं. बुरे से बुरे वक्त में उनका साथ दिया. इतना ही नहीं उन्हें दानवीर करण कहा जाने लगा क्योंकि वह लोगों की मदद को आगे आते. चाहे मामला लड़कियों की शादी का हो या फिर धर्मशाला बनवाने का या कॉलेजों की आर्थिक मदद का, जय करण शर्मा हमेशा आगे रहते. उन्होंने दोनों हाथों से दान किया जिस कारण पूरे हरियाणा में आज उनका नाम रोशन है.

2018 तक जय करण शर्मा अपने उद्यम की ऊंचाइयों पर जा पहुंचे थे. उन्होंने खुद एक टीवी चैनल को बताया था कि उनके पास 2500 ट्रक हैं. इसके अलावा उन्होंने कई वेयरहाउस बनवाए और देशभर में शाखाएं खोलीं जिससे बड़े पैमाने पर लोगों को रोजगार मिला. उन्होंने 1983 में रेलों और ट्रकों से माल ढुलाई का काम शुरू किया था जिसे मल्टी मोडल ऑपरेशन कहा जाता है. उन्होंने हवाई जहाज से भी सामान भेजने का काम किया और उनकी कंपनी आज भी यह काम कर रही है. इस तरह से अपनी दूरदर्शिता से वह लॉजिस्टिक्स की दुनिया में नंबर वन हो गए. कोराना काल में हम भारतीयों ने लॉजिस्टिक्स का महत्व जाना, जब घर बैठे सामान पहुंचने लगे.

जय करण शर्मा ने अपने जीवन में बहुत संघर्ष किया. उन्हें तरह-तरह की व्याधियों ने घेर लिया था फिर भी वह कमज़ोर नहीं पड़े. अपना काम हमेशा करते रहे लेकिन अपने जीवन की 65वीं वर्षगांठ के ठीक पहले ही 10 अक्टूबर 2020 को दिल के दौरे से उनका निधन हो गया. इसके साथ ही एक दानवीर, कर्मवीर, कर्मयोद्धा चला गया, यह बताकर कि संघर्ष करने वाले कभी हारते नहीं और सफलता उनके ही हाथ लगती है जो ईमानदारी और लगन से काम करते हैं. 

उनके चाहने वाले उनकी तुलना बिड़ला जी और धीरूभाई अंबानी से भी करते हैं जिन्होंने बिना पूंजी की शुरुआत की थी और अपनी मेहनत-लगन से शीर्ष पर चले गए. जय करण शर्मा को कभी पुरस्कार, सम्मान वगैरह की चाहत नहीं रही, वह सिर्फ अपनों से प्यार चाहते थे. लेकिन उनके निधन के बाद उन्हें सम्मानित करने की होड़ लग गई. उन्हें मरणोपरांत कई अवार्ड मिले जिसमें से एक था लॉजिस्टिक्स मैन ऑफ इंडिया. भारत सरकार ने उन पर माय स्टांप डाक टिकट भी जारी किया.