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GNT Exclusive: कॉलेज ड्रॉपआउट ने अपने गांव में बनाया पहला इंग्लिश मीडियम स्कूल, पढ़िए बच्चों का भविष्य बदलने वाले रंजीत बार की कहानी   

पश्चिम बंगाल के कालागाछिया गांव में रंजीत बार ने 2019 में नवाधा इन्क्लूसिव चैरिटेबल स्कूल शुरू किया. रंजीत कॉलेज ड्रॉपआउट हैं. देहरादून की सड़कों पर भीख मांगने वाले बच्चों को पढ़ाने से शुरुआत की थी. आज, उनका स्कूल 210 अनाथ, सिंगल पैरेंट के बच्चों, और बाल विवाह से बचे बच्चों को अंग्रेजी-माध्यम शिक्षा देता है. उनके स्कूल में बच्चे बंगाली, हिंदी और अंग्रेजी में बात करते हैं.

Ranjit bar Ranjit bar

पश्चिम बंगाल के कालागाछिया गांव की धूल भरी गलियों में एक सुबह, 9 साल का एक बच्चा अपने माता-पिता और बीमार छोटी बहन के साथ स्थानीय सरकारी अस्पताल पहुंचा. उसके हाथ में एक मुड़ा हुआ प्रिस्क्रिप्शन था. उसके माता-पिता, जो दिहाड़ी मजदूर थे, चिंतित थे. वे केवल बंगाली बोलते थे और न हिंदी समझते थे, न अंग्रेजी. जैसे ही नर्स ने दवाइयों और निर्देशों की जानकारी दी, माता-पिता चुपचाप खड़े रहे, कुछ जवाब देने में असमर्थ. तभी वह बच्चा आगे बढ़ा. उसने पूरी बातचीत को बंगाली में अपने माता-पिता के लिए अनुवाद किया. उसने प्रिस्क्रिप्शन को जोर से पढ़ा, दवा की खुराक समझाई, और अपनी मां को आश्वासन दिया, "सब ठीक हो जाएगा."  

यह छोटा-सा पल उन बच्चों के लिए एक बड़ी छलांग है, जो कभी स्कूल से कोसों दूर थे. आज, ये बच्चे न केवल प्रिस्क्रिप्शन पढ़ते हैं, बल्कि अपने सपनों को भी जोर-जोर से पढ़ते हैं. कालागाछिया के नवाधा इन्क्लूसिव चैरिटेबल स्कूल में, हंसी, भाषाओं, और छोटे-छोटे दिलों की महत्वाकांक्षाओं की गूंज सुनाई देती है. यह स्कूल न केवल शिक्षा देता है, बल्कि समाज के हाशिए पर रहने वाले बच्चों को नई जिंदगी देता है.  

सपनों का स्कूल  
नवाधा स्कूल की कक्षाओं में 11 साल का अनुपम दास, जो कक्षा 5 में पढ़ता है, बड़ी आसानी से अंग्रेजी बोलता है. उसका सपना है कि वह बड़ा होकर एक बिजनेसमैन बने. वह गर्व से कहता है, "मैं अपने गांव को बदलना चाहता हूं." दूसरी कक्षा में, 9 साल का प्रमिक हिंदी, बंगाली, और अंग्रेजी के बीच आसानी से स्विच कर सकता है. स्कूल के बारे में पूछने पर वह मुस्कुराता है, "यहां हम सब एक साथ खेलते हैं. कोई नहीं कहता कि तुम गरीब हो या अलग हो." उसका सपना है डॉक्टर बनना, क्योंकि "मेरे गांव में गरीबों को दवाइयां और इलाज नहीं मिलता. मैं उनकी मदद करूंगा."  

फोटो क्रेडिट- रंजीत बार

12 साल की सुप्रिति, जो कक्षा 6 में है, स्कूल के मिड-डे मील को अपनी पसंदीदा चीज बताती है. वह हंसते हुए कहती है, "हम सब एक साथ खाते हैं. और हमें तीन भाषाएं सिखाई जाती हैं- ये हमें स्मार्ट बनाता है!". ये बच्चे, जो कभी समाज की सीमाओं में बंधे थे, आज बड़े-बड़े सपने देखते हैं- आईपीएस ऑफिसर, सॉफ्टवेयर इंजीनियर, राजनेता, और सामाजिक बदलाव लाने वाले. इन सबके पीछे एक शख्स है- रंजीत बार, जिन्होंने अपनी असफलताओं को सैकड़ों बच्चों के लिए आशा की किरण में बदल दिया.  

एक सपने की शुरुआत  
रंजीत बार की कहानी 2015 में शुरू हुई, जब वह हावड़ा से देहरादून की ट्रेन में बैठे थे. इंजीनियरिंग की डिग्री लेने का सपना लिए रंजीत अपने गांव का गौरव बनना चाहते थे. GNT डिजिटल को दिए इंटरव्यू में रंजीत बताते हैं, "मैं माइक्रोसॉफ्ट या इन्फोसिस में काम करने का सपना देखता था." लेकिन देहरादून में, ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगते और गुब्बारे बेचते बच्चों को देखकर उनके मन में कुछ टूटा. उनके चेहरे रंजीत को अपने गांव के बच्चों की याद दिलाते थे- चमकदार, लेकिन गरीबी की जंजीरों में जकड़े.  

एक दिन, रंजीत ने एक बच्चे से पूछा, "तुम जिंदगी में सबसे ज्यादा क्या चाहते हो?"  

"मैं स्कूल जाना चाहता हूं," एक छोटी-सी आवाज ने जवाब दिया.  

यह जवाब रंजीत के लिए एक टर्निंग पॉइंट था. उन्होंने उधार के एक चटाई और कुछ किताबों के साथ सड़क किनारे दो बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. जल्द ही, दो बच्चे दस हुए, फिर पचास, और फिर 400.  रंजीत हंसते हुए कहते हैं, "मैंने इसके लिए योजना नहीं बनाई थी, यह बस होता चला गया".  

लेकिन आर्थिक तंगी ने रास्ता रोका. प्राइवेट कॉलेज की फीस और देरी से भुगतान के जुर्माने ने उनके परिवार की बचत खत्म कर दी. रंजीत बताते हैं, "मेरे माता-पिता ने मुझे कॉलेज भेजने के लिए सब कुछ बेच दिया.” दो साल बाद, उन्होंने कॉलेज छोड़ने का कठिन फैसला लिया. लेकिन हार के बजाय, रंजीत ने इसमें उद्देश्य खोजा. वह मुस्कुराते हुए कहते हैं, "भगवान की दूसरी योजना थी." इस उद्देश्य ने बिल्डिंग ड्रीम्स फाउंडेशन को जन्म दिया, जो बच्चों को भीख मांगने, मजदूरी, और गरीबी से निकालकर शिक्षा और सम्मान देता है.  

फोटो क्रेडिट- रंजीत बार

सड़कों से शुरू हुई क्रांति  
रंजीत की यात्रा किसी शानदार ऑफिस में नहीं, बल्कि देहरादून की सड़कों पर शुरू हुई. ट्रैफिक सिग्नल पर नंगे पांव बच्चों को देखकर, रंजीत ने अपने गांव की तस्वीर देखी. एक दिन, उन्होंने बच्चों के एक समूह से पूछा, "तुम जिंदगी में क्या चाहते हो? मैं स्कूल जाना चाहता हूं," एक बच्चे ने कहा.  

इस जवाब ने रंजीत को बदल दिया. कुछ किताबों और एक उधार की चटाई के साथ, उन्होंने सड़क किनारे पढ़ाना शुरू किया. दो बच्चे जल्द ही 400 हो गए. रंजीत ने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ दी, ताकि ये बच्चे अपने सपनों को जी सकें.  

उनके प्रयासों ने बिल्डिंग ड्रीम्स फाउंडेशन को जन्म दिया. इस संगठन ने बच्चों को बाल मजदूरी, झुग्गी-झोपड़ियों, और भीख मांगने से बचाया. फाउंडेशन ने हंग्री हेल्पलाइन भी शुरू की, जो शादियों और रेस्तरां से बचे हुए खाने को जरूरतमंदों तक पहुंचाती है. आज, रोजाना 1,000 किलो से ज्यादा खाना बचाया और बांटा जाता है.  

गांव में क्रांति लाना  
रंजीत का दिल हमेशा कालागाछिया से जुड़ा रहा, जहां शिक्षा दुर्लभ थी, बाल विवाह आम थे, और सपने देखना खतरनाक माना जाता था. जब कोविड-19 आया, रंजीत अपने गांव लौटे. इस बार, गांव वाले, जिन्होंने पहले उनके प्रयासों पर संदेह किया था, राष्ट्रीय टेलीविजन पर उनकी कहानी देख चुके थे. रंजीत ने याद करते हुए GNT डिजिटल को बताया, "सबने कहा, ‘बाबू, तुमने दूसरों के लिए इतना किया. अपने गांव के लिए कुछ करो.” 

फोटो क्रेडिट- रंजीत बार
फोटो क्रेडिट- रंजीत बार

बिना पैसे, लेकिन इच्छाशक्ति के साथ, रंजीत ने कालागाछिया में पहला अंग्रेजी-माध्यम स्कूल खोलने का फैसला किया. उनके पिता ने पहले विरोध किया- आखिर, परिवार की सारी बचत रंजीत की पढ़ाई पर खर्च हो चुकी थी. लेकिन अंत में, परिवार ने अपना पक्का घर स्कूल के लिए दे दिया और खुद एक अस्थायी मिट्टी के घर में चले गए. 25 दिसंबर 2020 को, नवाधा स्कूल ने छह बच्चों के साथ अपने दरवाजे खोले. छह महीने में यह संख्या 60 हो गई.  

सिर्फ स्कूल नहीं, एक परिवार  
आज, नवाधा स्कूल 167 से ज्यादा बच्चों को शिक्षा देता है, जिनमें अनाथ, एकल माताओं के बच्चे, और वे शामिल हैं, जो पहले बाल विवाह या फैक्ट्री मजदूरी के लिए मजबूर थे. स्कूल में नौ शिक्षक हैं, जो 2,000-2,500 रुपये महीने की मामूली तनख्वाह पर काम करते हैं. स्कूल पूरी तरह से सामुदायिक समर्थन पर चलता है, बिना किसी निजी फंडिंग के. हर गैर-शिक्षण कर्मचारी- चाहे वह रसोइया हो, सफाई कर्मचारी हो, या बच्चों की देखभाल करने वाला 45 साल से ऊपर का वालंटियर है. रंजीत की मां भी नौ घंटे रोजाना बिना सैलरी के काम करती हैं. रंजीत गर्व से बताते हैं, "मां के पास गाय, बकरी, मुर्गियां हैं, और एक कुत्ता भी, जो बच्चों के लिए पालक मां जैसा है." 

स्कूल की एक अनोखी नीति है: वे किसी समुदाय में तब तक नहीं जाते, जब तक उन्हें आमंत्रित न किया जाए. यह सम्मान और साझेदारी की नीति गांव वालों का गहरा भरोसा जीत चुकी है.  

फोटो क्रेडिट- रंजीत बार
फोटो क्रेडिट- रंजीत बार

एक सपने का पीछा  
रंजीत और उनकी टीम, कभी-कभी स्थानीय पुलिस की मदद से, भीख मांगने के खिलाफ अभियान चलाते हैं. वे माता-पिता से बात करते हैं, कभी-कभी उन्हें 15-20 रुपये रोजाना प्रोत्साहन के रूप में देते हैं, ताकि बच्चे काम के बजाय स्कूल जाएं. लेकिन असली बदलाव तब आता है, जब बच्चे खुद स्कूल छोड़ने से इनकार करते हैं.  

रंजीत एक मार्मिक कहानी साझा करते हैं, "दो छात्रों को उनके माता-पिता ने स्कूल से निकालकर अलीगढ़ भेज दिया. वे इतना रोए कि प्रिंसिपल ने मुझे फोन किया. मैंने बच्चों से बात की. उन्होंने कहा, ‘सर, प्लीज आइए. हम पढ़ना चाहते हैं.’" रंजीत उन्हें वापस नहीं ला सके, लेकिन उन्होंने एक वादा किया: "एक दिन, मैं इतना बड़ा स्कूल बनाऊंगा कि तुम्हें खुद लाऊंगा."  

आज, रंजीत का सपना है कि नवाधा को एक पूर्ण आवासीय स्कूल बनाया जाए. वह चाहते हैं कि कालागाछिया और आसपास के हर गांव में एक डॉक्टर, शिक्षक, इंजीनियर, और नेता हो. अनुपम, प्रमिक, और सुप्रिति की आंखों की चमक को देखकर लगता है कि यह सपना जल्द सच होगा.  

बांस की दीवारों और टिन की छतों वाले इस छोटे से स्कूल में, अगली पीढ़ी कुछ ऐसा बना रही है, जो उन्हें कभी नहीं मिला- एक भविष्य. और यह सब एक आदमी, एक चटाई, और एक सवाल से शुरू हुआ:  

"तुम जिंदगी में सबसे ज्यादा क्या चाहते हो?"