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Story of Fourth General elections: आंतरिक असंतोष और आर्थिक मंदी का वो दौर, जो Indira Gandhi के लिए बना था अग्निपरीक्षा

साल 1967 में लोकसभा चुनाव 17 फरवरी से 21 फरवरी के बीच हुए थे. इससे पहले भारत में चार प्रधानमंत्री बन चुके था. इस चुनाव में कांग्रेस ने पहली बार 300 से कम सीटें जीतीं थीें.

Indira Gandhi Indira Gandhi
हाइलाइट्स
  • कांग्रेस ने पहली बार 300 से कम सीटें जीतीं

  • उत्तराधिकार के संघर्ष से जूझ रही थी कांग्रेस

फरवरी 1967 में हुए आम चुनाव (general election) का भारतीय राजनीति में एक अलग महत्व है. भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 1967 का लोकसभा चुनाव एक निर्णायक क्षण के रूप में उभरा. ये देश के राजनीतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण मोड़ था. इससे पहले 1960 के अशांत दशक में भारत को चीन और पाकिस्तान के साथ सैन्य संघर्ष से लेकर आंतरिक असंतोष और आर्थिक मंदी तक, बहुमुखी चुनौतियों से जूझते देखा गया था. इन सभी मुश्किलों के बीच, 1967 का लोकसभा चुनाव देश के लिए एक परीक्षा के रूप में सामने आया.

1962 के भारत-चीन युद्ध (Indo-China War) के परिणाम ने जवाहर लाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) के नेतृत्व पर संदेह पैदा कर दिया था, जिससे उनकी राजनयिक विरासत कहीं न कहीं धूमिल हो गई थी. इतना ही नहीं आम जनता को भारत की सैन्य कमजोरियों के बारे में पता चलने लगा था. इन तनावों के बीच, 1964 में जवाहरलाल नेहरू के निधन से राजनीतिक अनिश्चितता का दौर शुरू हुआ. 

जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) के निधन पर देशभर में शोक का माहौल था. ऐसे में कांग्रेस पार्टी (Indian National Congress) उत्तराधिकार के संघर्ष से जूझ रही थी, जिसे देखते हुए पार्टी ने इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) को अपना नेता चुना. हालांकि, पार्टी के भीतर असंतोष भड़क रहा था. उथल-पुथल की इस पृष्ठभूमि में, 1967 के लोकसभा चुनावों के लिए मंच तैयार किया गया था.

आजादी के बाद 20 साल तक कांग्रेस देश की राजनीति पर हावी रही थी और आम चुनावों में भारी अंतर से जीत हासिल की थी. 1952, 1957 और 1962 के आम चुनाव ने कांग्रेस के प्रति लोगों के विश्वास को दिखाया था. लेकिन इसबार परिस्थितियां अलग थीं.

हालांकि, कांग्रेस (Congress) 1967 के चुनाव में भी विजयी हुई. लेकिन इस उथल-पुथल के बीच, 1967 का लोकसभा चुनाव लोकतंत्र और शासन की जटिलताओं को दूर करते हुए एक राष्ट्र के परिवर्तन का प्रतीक बन गया. केरल और उड़ीसा जैसे राज्यों में समय-समय पर कांग्रेस को मिलने वाली असफलताओं का लोकसभा चुनाव पर कोई खास असर नहीं पड़ा. फिर भी, 1967 के चुनावों ने एक अलग कहानी सामने ला दी.

भारत में चार प्रधानमंत्री बनने के बाद 1967 का लोकसभा चुनाव हुआ था. 520 एकल सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र थे. इनमें से 77 एससी (अनुसूचित जाति) निर्वाचन क्षेत्र थे जबकि अन्य 37 एसटी (अनुसूचित जनजाति) निर्वाचन क्षेत्र के रूप में आरक्षित थे. लोकसभा चुनाव 17 फरवरी से 21 फरवरी के बीच हुए थे.

जैसे-जैसे नतीजे आने लगे, यह स्पष्ट हो गया कि सत्ता पर कांग्रेस की पकड़ कमजोर हो गई है. 16 राज्यों में से केवल आठ राज्यों में कांग्रेस पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में लौटी, जबकि दूसरे राज्यों ने अलग-अलग गठबंधन और क्षेत्रीय दलों का विकल्प चुना. मद्रास में, द्रविड़ मुनेत्र कजगम (DMK) ने हिंदी को एकमात्र आधिकारिक भाषा के रूप में लागू करने के अपने कट्टर विरोध के कारण जीत हासिल की थी. इसी तरह, पंजाब, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने कांग्रेस के प्रति बढ़ते असंतोष और क्षेत्रीय स्तर की शिकायतों पर ध्यान नहीं देने के चलते कांग्रेस से पूर्ण बहुमत छीन लिया था.

कांग्रेस ने पहली बार 300 से कम सीटें जीतीं. इस चुनाव में कांग्रेस ने 283 सीटें हासिल कीं, जो पांच साल पहले के चुनाव से 78 कम थीं. पार्टी का वोट शेयर भी घटकर 40% से थोड़ा अधिक रह गया था.

चुनावी हार महज सीटों के नुकसान से आगे बढ़ गई. लेकिन इसने कांग्रेस आलाकमान पर बुरी तरह आघात किया. इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल के प्रमुख सदस्यों को हार का सामना करना पड़ा, जिनमें एस.के. पाटिल और के. कामराज जैसे प्रभावशाली राजनेता भी शामिल थे. पार्टी की आंतरिक कलह और अहंकार ने मतदाताओं और असंतुष्ट गुटों दोनों को अलग-थलग कर दिया था.

चुनावी उथल-पुथल के पीछे देश को परेशान करने वाले और भी गंभीर मुद्दे थे. बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश में सूखे के कारण अनाज की कमी ने सार्वजनिक अशांति को बढ़ावा दिया था. बढ़ती कीमतों और आर्थिक स्थिरता ने मोहभंग को बढ़ा दिया, जिससे प्रभावी ढंग से शासन करने की कांग्रेस की क्षमता में विश्वास कम हो गया. 

इतना ही नहीं क्षेत्रीय स्तर पर शिकायतों ने कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ा दीं थीं. मद्रास में भाषा की राजनीति और पंजाब में विभाजन संबंधी विवादों ने तनाव को और भी बढ़ा दिया था. इन मुद्दों का समाधान करने में पार्टी विफल रही. 

फिर भी, निराशा के बीच, कांग्रेस के लिए आशा की किरण बनी रही. स्वतंत्रता संग्राम से इसकी स्थायी विरासत और वर्षों से अर्जित सद्भावना ने एक उम्मीद की किरण दिखाई. पार्टी के बड़े नेताओं ने सुझाया कि अगर पार्टी खुद को आंतरिक भ्रष्टाचार से मुक्त कर सकती है और अपने आदर्शवाद को फिर से जगा सकती है, तो वह जनता का विश्वास फिर से हासिल कर सकती है.

भारत राजनीतिक प्रवाह के इस दौर से गुजर रहा था. ऐसे में लगातार देश के भविष्य की दिशा को सवाल उठ रहे थे. पीछे मुड़कर देखें तो, 1967 के चुनाव भारत के राजनीतिक विकास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुए. ये समय लोकतंत्र के एक नए युग की शुरुआत था.