Poster Put up Outside JDU Office
Poster Put up Outside JDU Office बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की मतगणना के रुझान ने न केवल एनडीए की व्यापक जीत का संकेत दिया है, बल्कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) की शानदार वापसी को भी दर्शाया है. सत्ता विरोधी लहर, राजनीतिक थकान और गठबंधन के भीतर कमजोर प्रदर्शन की भविष्यवाणियों को झुठलाते हुए, जेडीयू ने नाटकीय रूप से जबरदस्त और मजबूत प्रदर्शन किया है. यह प्रदर्शन 2020 के पिछले चुनाव जेडीयू 45 सीटें और इस चुनाव से पहले की कमजोर उम्मीदों से एक बड़ा उलटफेर है.
एग्जिट पोल में जेडीयू की वापसी के संकेत मिलते ही, पार्टी कार्यालय के बाहर "टाइगर अभी ज़िंदा है" के नारे वाले पोस्टर लगाए गए, जिसने नीतीश कुमार की राजनीतिक दृढ़ता को रेखांकित किया. लगभग दो दशकों तक सत्ता में रहने के बाद, नीतीश कुमार अपनी सबसे कठिन राजनीतिक परीक्षा का सामना कर रहे थे. सुशासन बाबू के रूप में जाने जाने वाले नीतीश को इन चुनावों में बढ़ती राजनीतिक थकान और सार्वजनिक संशय का सामना करना पड़ा. उनका लगातार गठबंधन बदलना और लगभग 20 वर्षों का शासन मतदाताओं में नवीनीकरण की चाहत पैदा कर रहा था.
मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग नीतीश कुमार के पक्ष में
चुनाव से पहले यह व्यापक रूप से माना जाता था कि प्रधानमंत्री मोदी की स्थायी लोकप्रियता और भाजपा का राष्ट्रीय प्रभुत्व ही एनडीए की सबसे बड़ी ताकत होगी, जो नीतीश की घटती लोकप्रियता की भरपाई कर सकती है. 2020 में 45 सीटों तक सिमटने के बाद, उनकी राजनीतिक पूंजी कम हो गई थी. उनकी पसंदीदा मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकृति रेटिंग 2020 के 37% से गिरकर 16% से 25% के बीच रह गई थी. हालांकि, इस बार भाजपा ने जेडीयू के साथ 101-101 सीटों पर बराबर सीटों का समझौता किया, लेकिन राजनीतिक गलियारों में नीतीश को कनिष्ठ भागीदार के रूप में देखा जा रहा था. यह धारणा थी कि मोदी का ब्रांड वोट खींचेगा, न कि नीतीश का, लेकिन नतीजों ने इन सभी संदेहों को झुठला दिया. इस चुनाव से उभरने वाली सबसे चौंकाने वाली सच्चाई यह है कि जिस नीतीश की व्यक्तिगत विश्वसनीयता को खत्म माना जा रहा था, वह असाधारण रूप से टिकाऊ साबित हुई. भाजपा के रणनीतिकारों ने जेडीयू की इस स्तर की वापसी की उम्मीद नहीं की होगी. नीतीश को लंबे समय से शासन-प्रथम नेता के रूप में देखा जाता रहा है, और यह छवि दो दशक बाद भी बरकरार है. उनकी उम्र, स्वास्थ्य या राजनीतिक थकान के सवालों के बावजूद, मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग उन्हें निम्नलिखित कारणों से समर्थन देता रहा है.
नीतीश की सबसे बड़ी ताकत क्या?
नीतीश को समर्थन देने वाले कारकों की बात करें, तो उसमें कई चीजें शामिल है. जैसे- सामाजिक सद्भाव और जातिगत संतुलन. नीतीश की सबसे बड़ी ताकत विभिन्न जातियों और धर्मों को साथ लेकर चलने की क्षमता है. संख्यात्मक रूप से उनकी कुर्मी जाति की आबादी भले ही कम हो (लगभग 3%), लेकिन वे उन जातियों के बीच लोकप्रिय हैं जो पारंपरिक रूप से किसी एक पार्टी के प्रति प्रतिबद्ध नहीं मानी जाती हैं, जैसे हिंदू में सवर्ण, कुशवाहा, पासवान, मुसहर और मल्लाह. उनकी पकड़ उन मुस्लिम मतदाताओं में भी बनी हुई है, जिन्हें आमतौर पर भाजपा के खिलाफ माना जाता है. नीतीश ने महिला मतदाताओं के बीच एक मजबूत सद्भावना अर्जित की है. मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना (MMRY) जैसी कल्याणकारी पहलों के माध्यम से महिला मतदाताओं ने उनके नेतृत्व के लिए एक स्थिर बल के रूप में काम किया है, जिससे उन्हें अन्य वर्गों के झटकों से बचाव मिला है. 2020 के विपरीत, जहां जेडीयू के कैडर में भ्रम दिखा था, इस बार पार्टी की संगठनात्मक शक्ति अधिक प्रभावी ढंग से सक्रिय हुई. ग्रामीण नेताओं और स्थानीय प्रभावशाली लोगों पर आधारित उसके पारंपरिक कैडर ढांचे ने निर्वाचन क्षेत्र स्तर पर भाजपा के साथ बेहतर समन्वय के साथ काम किया.
नीतीश की व्यक्तिगत विश्वसनीयता
नीतीश के कभी-कभार असंगत क्षणों ने उनके स्वास्थ्य और सतर्कता पर बहस छेड़ दी. विपक्षी दलों ने नेतृत्व के लिए उनकी योग्यता पर सवाल उठाने के लिए इनका फायदा उठाया. हालांकि इससे कुछ मतदाताओं पर प्रभाव पड़ने की उम्मीद थी, लेकिन कई लोगों का मानना था कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा की ताकत एक स्थिर शक्ति होगी. 2010 में 115 सीटों से 2020 में जदयू केवल 43 रह गईं, साथ ही वोट शेयर में भी 22.6% से 15.7% की उल्लेखनीय गिरावट आई. कभी प्रभावशाली रहे इस नेता ने बिहार के बदलते राजनीतिक परिदृश्य में प्रासंगिक बने रहने के लिए खुद को मोदी की लोकप्रियता पर निर्भर पाया. इस चुनाव से उभरने वाली सबसे चौंकाने वाली वास्तविकताओं में से एक यह है कि नीतीश की व्यक्तिगत विश्वसनीयता, जिसके बारे में माना जा रहा था कि वह खत्म हो रही है, उल्लेखनीय रूप से टिकाऊ साबित हुई है. जबकि भाजपा के रणनीतिकारों ने अनुमान लगाया था कि जदयू कुछ हद तक वापसी करेगी, उन्होंने यह उम्मीद नहीं की होगी कि नीतीश की लोकप्रियता इतने बड़े प्रदर्शन में तब्दील हो जाएगी. नीतीश को लंबे समय से शासन-प्रथम नेता के रूप में देखा जाता रहा है, और सत्ता में लगभग दो दशक बाद भी यह छवि बरकरार है. उनकी उम्र, स्वास्थ्य और कथित राजनीतिक थकान को लेकर उठाए गए सवालों के बावजूद, मतदाताओं का एक वर्ग अभी भी उन्हें पसंद करता है.
उम्मीदों से कहीं अधिक मजबूत बनाकर उभारा
कई मतदाताओं के लिए, नीतीश का शासन मॉडल उनकी राजनीतिक संगति से ज़्यादा मायने रखता है. मतदाताओं ने उनके कथित अवसरवाद को दंडित करने के बजाय, निरंतरता और प्रशासनिक अनुभव को पुरस्कृत करना चुना. सत्ता विरोधी लहर के बावजूद, स्थिरता, कल्याणकारी योजनाओं, जातिगत समावेशिता और प्रशासनिक निरंतरता की बुनियादी धारणाएं ब्रांड नीतीश के साथ मजबूती से जुड़ी रहीं, जिसने उन्हें न केवल प्रासंगिक बनाए रखा, बल्कि उम्मीदों से कहीं अधिक मजबूत बनाकर उभारा. इस प्रकार, "टाइगर अभी ज़िंदा है" का नारा सिर्फ एक राजनीतिक उद्घोष नहीं, बल्कि नीतीश कुमार की राजनीतिक लचीलेपन और विश्वसनीयता का प्रमाण रहा.