
सोचिए, शोले बिना बसंती की हंसी, राधा की खामोशी और जय- वीरू की दोस्ती के! जावेद अख्तर ने फिल्म के 50 साल पूरे होने पर जो किस्से सुनाए, वो आपको चौंका देंगे. उन्होंने बताया कि इस ब्लॉकबस्टर की शुरुआत में न बसंती थी, न राधा… और जय- वीरू भी आर्मी के दो बर्खास्त सिपाही थे.
डकैत से शुरू हुई कहानी
जावेद अख्तर बताते हैं, "ये आइडिया सलीम साहब का था- एक रिटायर्ड मेजर और आर्मी से निकाले गए दो जवानों पर फिल्म बनाने का. लेकिन आर्मी से जुड़े नियमों की वजह से किरदार बदलने पड़े और हमने इन्हें एक पुलिस अफसर और दो छोटे- मोटे गुंडों में बदल दिया."
उस वक्त बस एक डकैत दिमाग में था, बाकी किरदार धीरे- धीरे कहानी के साथ आए. अख्तर कहते हैं, “धीरे- धीरे कई किरदार जुड़ते गए और हमें लगा कि ये एक शानदार मल्टी- स्टारर बन सकती है. हालांकि शुरुआत में हमने इसे ऐसे प्लान नहीं किया था.”
1975- सिनेमा का सुनहरा साल
15 अगस्त 1975 को रिलीज हुई शोले शुरू में फ्लॉप हुई थी, लेकिन फिर धीरे- धीरे थिएटर में छा गई. अमिताभ बच्चन का शांत जय, धर्मेंद्र का मस्तमौला वीरू, संजीव कुमार का बदले की आग में जलता ठाकुर, और अमजद खान का डरावना गब्बर सिंह- सब मिलकर हिंदी सिनेमा का सबसे बड़ा पॉप कल्चर आइकॉन बन गए.
अख्तर कहते हैं, "हमने कभी ये सोचकर नहीं लिखा कि ये टाइमलेस बन जाएगी. इसमें बदला, दोस्ती, गांव की सादगी, शहर के चालाक गुंडे- सब कुछ था. ये एक इमोशन्स की सिम्फनी थी."
दीवार और शोले- जिंदगी बदलने वाला साल
अख्तर याद करते हुए बताते हैं, “1975 सिर्फ शोले का नहीं, बल्कि दीवार और आंधी जैसे क्लासिक्स का भी साल था. उस साल हमें नाम, पैसा और पहचान- सब मिला. हमारी जिंदगी बदल गई."
अगर आज लिखते तो?
जब उनसे पूछा गया कि अगर वो शोले को 2025 में लिखते तो क्या बदलते? उनका जवाब साफ था- "कुछ भी नहीं. शोले जैसी है, वैसी ही परफेक्ट है."
वो असली एंडिंग जो कभी नहीं देखी गई
फिल्म का असली अंत में ठाकुर गब्बर को मार देता है, लेकिन सेंसर बोर्ड ने इमरजेंसी के दौरान इसे बदलवा दिया. रिलीज़ वर्जन में ठाकुर गब्बर को छोड़ देता है और पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती है. अख्तर कहते हैं, "उस वक्त हमें दुख हुआ, लेकिन मजबूरी थी.”
दिलचस्प बात ये है कि जून 2025 में इटली के एक फिल्म फेस्टिवल में शोले का रिस्टोर किया हुआ वर्जन दिखाया गया, जिसमें ये असली एंडिंग शामिल थी.
अगर जय- वीरू आज होते…
2025 के जय और वीरू के बारे में अख्तर का जवाब था- "वो कॉरपोरेट वर्ल्ड में होते. इतने बदमाश हैं कि कहीं और फिट नहीं बैठते."
पचास साल बाद भी शोले का जादू कायम है क्योंकि ये सिर्फ एक डकैत की कहानी नहीं, बल्कि इंसानी भावनाओं का पूरा रंगमंच है- हंसी, आंसू, बदला, दोस्ती, प्यार और डर सब एक साथ. यही वजह है कि जय- वीरू की जोड़ी, बसंती की तुतलाहट, ठाकुर का गुस्सा और गब्बर का "कितने आदमी थे?" आज भी उतना ही असर डालते हैं जितना 1975 में डाला था.