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जानिए निलेश मांडलेवाला की कहानी, जो अब तक देश-विदेश के हज़ारों लोगों को नया जीवन दे चुके हैं

पेशे से सूरत के टेक्सटाइल कारोबारी निलेश मांडलेवाला ना सिर्फ गुजरात में बल्कि देश के ऐसे व्यक्ति होंगे, जो हमेशा दूसरों को नया जीवन देने तत्पर रहते हैं. अब सोच रहे होंगे कि भला टेक्स्टाइल कारोबारी ऐसा क्या कर रहे हैं. चलिए हम आपको बताते हैं कि टेक्स्टाइल नगरी सूरत के इस टेक्स्टाइल कारोबारी के बारे में जो अब तक कई लोगों को नया जीवन दे चुके हैं और उनकी यह यात्रा लगातार जारी है.

Know About Nilesh Mandlewala Know About Nilesh Mandlewala

टेक्सटाइल और डायमंड सिटी के नाम से देश और दुनिया में अपनी पहचान बनाने वाला गुजरात का सूरत शहर अब देश में ऑर्गन डोनर सिटी के तौर पर अपनी पहचान बनाते जा रहा है. सूरत शहर में ऑर्गन डोनेशन का बीड़ा टेक्स्टाइल कारोबारी नीलेश मांडलेवाला ने उठाया है. सन 1997 की बात है, जब नीलेश मांडलेवाला के 70 वर्षीय पिता की किडनी ख़राब हो गई थी. जिस कारण से उन्होंने अपने पिता की एंजियोप्लास्टी मुंबई की हिंदुजा अस्पताल में करवाई थी. सन 2004 में एंजियोप्लास्टी में लगाया गया स्टैंड ख़राब हो गया था, उसके बाद उनके पिता की डायलिसिस शुरू हो गई. मांडलेवाला और उनके भाई जो अमेरिका में रहते थे, दोनों भाइयों ने अपने पिता को किडनी देने को कहा था तो उनके पिता ने किडनी लेने से मना कर दिया था.

उनके पिता ने उनसे कहा कि वो इस उम्र को किसी तरह से जी लेंगे. नीलेश मांडलेवाला के पिता की किडनी ख़राब होने के चलते सन 2004 से सूरत शहर के महावीर अस्पताल में डायलिसिस शुरू हुआ था. वह अपने पिता को लेकर अस्पताल जाया करते थे. उस दौरान उन्होंने ऑर्गन ख़राब होने वाले लोगों की और उनके साथ आने वाले उनके परिजनों की पीड़ा को महसूस किया. उसके बाद टेक्स्टाइल कारोबारी नीलेश मांडलेवाला ने ऑर्गन खराब हुए लोगों की मदद करने का मन बनाया था, लेकिन उनके पास कोई रास्ता नहीं था. नीलेश मांडलेवाला का मन मज़बूत था, इसलिए उन्होंने आगे इस दिशा में सोचना शुरू कर दिया था.

किडनी ख़राब न हो, इसके लिए शुरू किया अभियान

सबसे पहले नीलेश मांडलेवाला ने किडनी ख़राब न हो, इसके लिए जनजागृति अभियान शुरू कर दिया था. गुजरात चेम्बर्स ऑफ़ कॉमर्स के प्रमुख सूरत आये थे, किडनी के बारे में चर्चा शुरू हुई थी. उनकी संस्था किडनी ख़राब ना हो इसके लिए काम करती थी तो उन्होंने उनसे जुड़ने के लिए कहा था.. तो वो भी उनसे जुड़ गए. सन 2005 के अप्रैल महीने में सबसे पहले उन्होंने सूरत के अस्पतालों में जाना शुरू किया था, वो अस्पताल के आईसीयू में जाया करते थे. ब्रेन डेड मरीज़ वहीं आया करते थे. इसी दौरान उन्होंने न्यूरो सर्जन और न्यूरों फिजिसीयन से भी संपर्क किया था.

इस दौरान 12 जनवरी 2006 को सूरत के अशक्ता आश्रम हॉस्पिटल के न्यूरो सर्जन डॉक्टर अशोक पटेल ने एक जगदीश भाई शाह नामक मरीज़ को ब्रेनडेड घोषित किया था. उस वक्त ब्रेन डेड जगदीश भाई शाह की पत्नी ज्योति बेन को उन्होंने ऑर्गन डोनेशन के लिए समझाया था तो वो ऑर्गन डोनेशन करने के लिए तैयार हो गये थे. उसी समय से सूरत से ऑर्गन डोनेशन करने की प्रक्रिया का बीज रोपा गया था. जो अब तक जारी है. अहमदाबाद के आईकेडीआरसी हॉस्पिटल की टीम सूरत आई थी और किडनी अहमदाबाद ले जाकर ट्रांसप्लांट किया था. यह गुजरात में इंटरसिटी केडेवर ट्रांसप्लांट की शुरुआत थी.

सबसे कम उम्र के बच्चे का ऑर्गन डोनेशन

देश में सन 1994 में ह्यूमन ऑर्गन डोनेशन का क़ानून बना था. उसी के तहत ट्रांसप्लांट की प्रक्रिया की गई थी. 1997 से 2006 तक गुजरात में ऑर्गन डोनेशन की दिशा में कुछ ज़्यादा काम नहीं हुआ था, लेकिन 2006 के बाद गुजरात में ऑर्गन डोनेशन की दिशा में प्रगति आई थी. फ़रवरी 2006 में 24 वर्षीय युवक राजू गोहिल सूरत के स्मीमेर हॉस्पिटल में ब्रेन डेड हुआ था, जिसके ऑर्गन डोनेशन करवाने के लिए दो दिन तक परिजनों को समझाया था, तब वो तैयार हुए थे. ब्रेन डेड राजू गोहिल की किडनी अहमदाबाद में ट्रांसप्लांट हुई थी, जबकि लीवर हैदराबाद की हॉस्पिटल में ट्रांसप्लांट हुआ था. क्योंकि गुजरात में लीवर ट्रांसप्लांट तब नहीं होता था. 2006 में ही सूरत के एडवोकेट जसवंत भाई पटेल के साढ़े चार वर्षीय पुत्र का ब्रेन डेड हुआ था तो नीलेश भाई ने उनका संपर्क कर बच्चे के ऑर्गन डोनेशन करवाने के लिए कहा था. एडवोकेट जसवंत भाई पटेल ने नीलेश भाई से कहा कि वो स्वामीनारायण संप्रदाय के प्रमुख स्वामी से बात करेंगे यदि वो कहेंगे तो वो अपने ब्रेन डेड बच्चे का ऑर्गन डोनेट करेंगे. एडवोकेट ने जब प्रमुख स्वामी से बात की तो उन्होंने ऐसा करने के लिए कह दिया था और उस समय देश में सबसे कम उम्र के बच्चे का ऑर्गन डोनेशन की यह पहली घटना थी.

ट्रस्ट बनाने का आईडिया कैसे आया? 

नीलेश भाई ने बताया कि 2013 में सूरत के इनकम टैक्स कमिश्नर संदीप कुमार जो मुंबई से सूरत ट्रांसफ़र होकर आये थे. उनकी किडनी ख़राब हो गई थी, उनका सूरत के महावीर हॉस्पिटल में डॉक्टर केतन भाई देसाई ट्रीटमेंट कर रहे थे. उस समय चीफ इनकम टैक्स कमिश्नर गुंजन मिश्रा थीं, उनका एक दिन उनके पास फ़ोन आया था और संदीप कुमार की किडनी ट्रांसप्लांट को लेकर बातचीत की थी. उसके बाद उन्होंने इनकम टैक्स कमिश्नर की किडनी ट्रांसप्लांट के लिए अहमदाबाद में नाम रजिस्टर करवा दिया था. सूरत की मंजुला बेन ढोला ब्रेन डेड हुई थी, उनके ऑर्गन डोनेशन करवाए थे. जिसके तहत एक किडनी संदीप कुमार को मिली थी, जबकि दूसरी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की छात्रा को मिली थी. इसके बाद इनकम टैक्स कमिश्नर ने नीलेश भाई मांडलेवाला से कहा कि उन्हें नया जीवन मिला आप अकेले काम करते हैं तो क्यों ना एक ट्रस्ट बनाया जाए, जिससे इस काम को नेशनल लेवल तक ले ज़ाया जा सके. लेकिन उन्होंने मना कर दिया था. हालांकि तब तक 2013 तक 100 किडनी दान करवा चुके थे. एक साल तक बातचीत चलती रही. उसके बाद 4 दिसंबर 2014 को ट्रस्ट रजीस्टर्ड करवाया था और 20 दिसंबर 2014 को उनके ट्रस्ट का शुभारंभ हुआ था.

अब तक 1038 ऑर्गन के डोनेशन करवा चुके हैं

नीलेश भाई मांडेलावाला ने बताया कि उनका ट्रस्ट रजिस्टर्ड होने से पहले और बाद में अब तक 1038 ऑर्गन और टीस्यू के डोनेशन करवा कर 951 देश और विदेश के लोगों को नया जीवन दिया है. इसमें किडनी, लीवर, हार्ट , फेफड़े, हाथ और नेत्र सभी आ गए हैं. अप्रैल 2016 में हड्डी का पहला दान शुरू किया था. 2017 से लंग्स और हाथ के डोनेशन की कोशिश शुरू की थी. 2019 में गुजरात का पहला लंग्स डोनेशन करवाया था. 2017 में देश के सबसे छोटे 14 महीने के बच्चे का हार्ट का दान करवाया गया था, जो मुंबई में साढ़े तीन साल की बच्ची के शरीर में ट्रांसप्लांट करवाया था. उसके बाद 2020 में कोरोना आ गया उसके बाबजूद क़रीबन 200 ऑर्गन और टिश्यू का दान किया गया था.

(इनपुट- संजय सिंह राठौर)